रातों की नींद, दिन का सुकून खोना पड़ता है।
घर-परिवार, सुख-चैन से दूर होना पड़ता है।
फ़क़त पत्थर फैंकने से फल नहीं मिल जाता-
दिनरात पसीना बहाकर बीज बोना पड़ता है।।
ये मत सोच कि धरा ने तुमको दिया क्या है?
जरा सोच, धरा के लिए तुमने किया क्या है?
ये जननी तो सबको समान अवसर देती है-
ये तो अपना कर्म है कि उससे लिया क्या है?
माँ और मिट्टी कहाँ बच्चों से हिसाब लेती है?
जो कुछ भी है सबकुछ तो बेहिसाब देती है।
ये बच्चों की नादानी है जो फ़र्क मान बैठते-
माँ का आँचल को आनंदमयी रमणरेती है।
फ़टी चादर को क्या तलवार से सिया जाता है?
अपनों से क्या रिश्तों का हिसाब लिया जाता है?
मिलना न मिलना सब तय है उसके बहीखाते में-
फल तो वही मिलता है जो कर्म किया जाता है।।
प्रियमवाणी
©पङ्कज प्रियम