Saturday, June 27, 2020

851. माँ तुझे सलाम

माँ तुझे सलाम

पहली बात तो      डरते नहीं हम,
दूसरी गलती       करते नहीं हम।
बांध कफ़न सर,    चलते हम पर-
दुश्मन हाथों ,      मरते नहीं हम।।

जीवन अपना, हर दिन हर शाम,
हरपल खुद से ही है खुद संग्राम।
तेरी चरणों में सर झुकता करता-
बस तुझे सलाम, माँ तुझे सलाम।।
©पंकज प्रियम
#साहित्योदय_साहित्य_संग्राम- माँ तुझे सलाम।
कवि पंकज प्रियम
Sahityoday
साहित्योदय- अंतर्राष्ट्रीय साहित्य-कला संगम

Thursday, June 25, 2020

850.आत्मनिर्भर


आत्मनिर्भर भारत के सपने और चुनौतियाँ

वैश्विक महामारी कोरोना ने पूरी दुनिया को घुटनों के बल खड़ा कर दिया है। क्या इटली, क्या स्पेन क्या, भारत और क्या अमरिका? चाँद और मंगल पर दुनिया बसाने का ख़्वाब देखने वालों को एक वायरस ने औकात दिखा दी। ज्ञान, विज्ञान, धर्म, चमत्कार सबकुछ धरासायी। इस महामारी से बचने का जो रास्ता दिखा वह है सोशस डिस्टेंसिंग और लॉकडाउन। दुकानें बंद हो गयी, कल-कारखानों में ताले लग गये। खुद को सर्वशक्तिमान समझने वाला मनुष्य घरों में कैद होने को विवश हो गया। ऐसे में भोजन पानी, रोजी रोजगार और रोजमर्रा की जरूरतें कैसे पूरी होती?
कहते हैं कि आवश्यकता ही अविष्कार की जननी है तो इस विषम परिस्थितियों में लोगों ने बहुत कम साधन-संसाधनों में जीवन निर्वहन शुरू कर दिया। सैलून बन्द हुए तो कई महिलाओं की ब्यूटी पार्लर की प्रतिभा निखर कर सामने आयी और अपने पति और बच्चों के बाल खुद काट डाले। हमारे राकेश तिवारी जी ने तो ट्रिमर से ही खुद बाल बना लिया। कोरोना के खौफ़ से घरों की बाई, नौकर चाकर भी चले गए और लोगों ने स्वयं कार्य शुरू कर दिया। इसी तरह के अन्य कार्य जिसके लिए हम दूसरों पर आश्रित रहते थे उसे खुद करने लगे। प्रधानमंत्री ने तो आत्मनिर्भर भारत की कल्पना कर डाली और लोगों को आत्मनिर्भर बनने की सलाह दी। यह सही है कि हमें आत्मनिर्भर होना चाहिए और आत्मनिर्भर भारत का सपना किस हद तक पूर्ण होता है यह देखने वाली बात है लेकिन इसकी अपनी चुनौतियां भी है। कई चीजें हैं जिसपर निर्भरता हमारी मजबूरी बन जाती है और यह एक दूसरे के रोजी रोजगार का साधन भी होता है। अगर सारे लोग खुद बाल बनाने लगे तो फिर नाई क्या करेंगे?उनका घर परिवार कैसे चलेगा? यह तो महज़ एक बानगी है ऐसे तमाम लोग एक दूसरे पर निर्भर रहकर सहारा बनते हैं। हमारे प्राचीन धर्मग्रंथों में भी सबके कार्यो का बंटवारा कर सबको रोजी रोजगार उपलब्ध कराने की व्यवस्था की थी जो आज भी बरकरार है। आत्मनिर्भर भारत के स्वप्न का असली मकसद ख़ुद को इतना सशक्त बनाना है जिसमें किसी कार्य या चीज के लिए बिल्कुल ही निर्भर न रहें। अगर ऐसी विपरीत परिस्थिति आये तो खुद को उसमें ढाल पाएं। इसके अलावे आज हम तकनीक से लेकर रोजमर्रा की कई चीजों के लिए चीन, अमेरिका, जापान जैसे देशों पर आश्रित हैं जिसका नाज़ायज फायदा ये देश उठाते रहें हैं। अगर तकनीक से लेकर हर बात में हम आत्मनिर्भर हो जाएं तो फिर कोई हमारा ग़लत फायदा नहीं उठा सकता। इसके लिए सरकार को छोटे-छोटे उद्योग, व्यापार और शिक्षा पर विशेष ध्यान देने की जरूरत होगी। तभी हम सही मायनों में आत्मनिर्भर बन सकते हैं। 

©पंकज प्रियम

Thursday, June 18, 2020

849.चीनी कम

चीनी कम

तरेरी आँख जो फिर से,     हमें पहचान तुम लोगे,
दिला मत याद बासठ की, नहीं तो जान तुम लोगे।।
पड़ोसी हो पड़ोसी की तरह रहना नहीं तो फिर-
अगर औकात पे आये,   हमें फिर मान तुम लोगे।।

भरोसा था पड़ोसी पर, समझ आयी न मक्कारी,
किया था पीठ पर हमला, समझ आयी न गद्दारी।।
फ़क़त कुछ साल के अंदर, दिया मुंहतोड़ जब तेरा- 
करो दिन याद सरसठ के, पड़ी ग़लती तुम्हें भारी।।

तुम्हारी आँख है छोटी, तुम्हारा दिल बहुत छोटा,
फ़टी सी जेब से निकला, लगे सिक्का कोई खोटा।।
अरे हम घोल के पीते, सदा *चीनी* को शरबत में-
मगर हम छोड़ भी देते , अगर मधुमेह जो होता।।

©पंकज प्रियम

Monday, June 15, 2020

848. क्या क्या हुआ


ग़ज़ल 
काफ़िया-आ
रदीफ़- हुआ
बहरे रजज़ मुसम्मन सालिम
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
2212 2212 2212 2212

क्या कुछ हुआ कैसे हुआ, कह दो मुझे क्या-क्या हुआ,
जब हम मिले तो क्या हुआ, सब कुछ कहो जो था हुआ।

आँखे लड़ी धड़कन बढ़ी, साँसे रुकी पलकें झुकी,
खामोशियाँ-खामोशियाँ, वो वक्त था ठहरा हुआ।

लब चुप रहे कुछ मत कहे, बातें मगर होती रही,
नैना कहे नैना सुने, बातें जिगर करता हुआ।

लम्हा वहीं थम सा गया, धरती गगन का वो मिलन,
बिजली पवन सूरज किरण, सबकुछ लगे रुकता हुआ।

तूफां उठा दरिया उमड़,  सागर लहर माझी उतर,
दिल मिल गये जिस पल *प्रियम* सबकुछ लगा निखरा हुआ।
©पंकज प्रियम

847. कायर हीरो

हीरो!
भला इसतरह भी कोई जाता है क्या?
यूँ खुद को कोई स्वयं मिटाता है क्या?

अभी तो शुरू हुआ था वक्त तुम्हारा-
वक्त से पहले यूँ दौड़ लगाता है क्या?

कुछ भी रही होंगी मजबूरियां तेरी,
मगर कोई कायरता दिखाता है क्या?

जीवन तो हरक्षण युद्ध है संघर्षों का,
रणभूमि में कोई पीठ दिखाता है क्या?

नहीं, तुम नहीं हो सकते रोल मॉडल,
हीरो जीवन में हारना सिखाता है क्या?

कायर होता वो खुद हारता जो जीवन,
खुद सोकर कोई औरों जगाता है क्या?

मुक्त हो गए तुम जीवन झंझावातों से,
मगर अपनो को दुःख पहुचाता है क्या?

मौत भी तो रोई होगी तुमसे मिलकर,
ऐसी अपनों को कोई रुलाता है क्या?

तनिक सोचते क्या बीतेगी माँ-बाप पर,
अपने बच्चों का शव पिता उठाता है क्या?

आख़िर क्यूँ? क्यूँ आँसू बहाऊं मैं तुझपर!
ईश्वर वरदान जीवन, कोई ठुकराता है क्या?

नहीं तुम हीरो कतई नहीं हो सकते हो मेरे,
विलन को देखकर हीरो भाग जाता है क्या?

कैसे दिखाऊँ मैं बच्चों को तस्वीर तुम्हारी?
कोई भला कायरों की कहानी सुनाता है क्या?

बहुत गर्व था तेरे फ़र्श से अर्श तक सफ़र पर,
आसमां पे चढ़ कोई खुद को गिराता है क्या?
कवि पंकज प्रियम
अश्रुपूरित श्रद्धांजलि सुशान्त

Monday, June 8, 2020

846. कोरोना काल और साहित्य

*कोरोना काल और साहित्य* 

कहते हैं हर सिक्के के दो पहलू होते हैं वैश्विक आपदा कोरोना ने जहाँ एक तरफ भारी तबाही मचाई तो वहीं दूसरी तरफ जीने का नजरिया बदल दिया. सीमित संसाधनों में जीना सीखा दिया. कामकाज ऑफिस से चलकर वर्क टू होम हो गया. सब कुछ मानो ठप्प सा हो गया तो लोगों ने इसमें भी विकल्प की तलाश कर ली, बाज़ार से लेकर विद्यालय तक सबकुछ ऑनलाइन हो गया. साहित्य तो समाज का दर्पण होता है तो भला वह कैसे अछूता रहता ?
 इस कोरोना काल में एक बात बहुत अच्छी हुई कि सबको साहित्य सृजन और सकारात्मक सोच का बड़ा उन्मुक्त फ़लक मिल गया . झारखण्ड के परिप्रेक्ष्य में देखें तो यहाँ के रचनाकार शुरू से ही शिक्षा,साहित्य , समाज और राजनीति में उपेक्षित रहे हैं। 
अब तक मंच, साहित्य सृजन , कवि सम्मेलनों को अपनी जागीर समझने वाले बड़े-बड़े स्वनामधन्य स्थापित मंच और मठाधीशों का तिलिस्म टूट सा गया। कोरोना की वजह से मंचों के सारे आयोजन बन्द हो गए और बड़े बड़े हस्ताक्षर भी घरों में कैदी जीवन बिताने लगे। टेलीविजन के शो भी बंद हो गये ऐसे  संकट में सोशल मीडिया खासकर  फेसबुक लाइव ने वाकई एक बेहतरीन विकल्प दिया जहाँ लोग हजारों लाखों लोगों तक अपनी बात रखने में सक्षम हुए । मंचीय आयोजनों में भी लोग सिर्फ अपनी सुनाते हैं ,दूसरों को सुनने की क्षमता नहीं, वहां भी लोग फेसबुक और व्हाट्सएप पर ही जुड़े रहते हैं। अबतक बड़े बड़े प्रतिष्ठित मंच सिर्फ स्थापित रचनाकारो को ही मंच प्रदान करते रहे हैं, छोटे शहर कस्बों के कलमकारों को वे बड़ी हीन भावना से देखते हैं। अमूमन ऐसे बड़े मंचो पर किसी नवोदित या छोटे शहर या गांव के नवांकुरो को मंच देते ही नहीं और अगर देते भी हैं तो लगता कि बहुत बड़ा एहसान कर रहे । कोई नवोदित  मंच पर 2 मिनट से अधिक पढ़ता चला गया तो आयोजक बड़ी बद्तमीजी के साथ उन्हें काव्यपाठ छोड़ने को कह देते हैं। इस फेसबुक लाइव में  सबको अधिकार मिला अपनी बात कहने का, कविता शिल्प और शैली पर चर्चा एक अलग विषय  है लेकिन कवि के मन से निकला भाव छंदों के जोड़ घटाव में भले न उतरते हों लेकिन कथ्य और भाव सही हों तो उन्हें भी अवसर मिलना ही चाहिए। हर कोई एक दिन में तुलसीदास, कबीर या दिनकर तो नहीं बन जाता, अगर कोई सीखना चाहता है ,मंचों पर आना चाहता है तो उनके लिए यह फेसबुक माध्यम एक वरदान साबित हुआ । इस कोरोना काल में फेसबुक लाइव ने न केवल उनकी सृजनक्षमता बढ़ी है बल्कि एक नई पहचान भी मिली है। साहित्य के मामले में झारखण्ड जैसे राज्य में प्रतिभा तो भरी पड़ी है लेकिन उन्हें सही मंच नहीं मिल पाता है. कुछेक स्थापित साहित्यकारों को छोड़ दें झारखण्ड के नवोदित कलमकारों को स्थान मिलना संभव नहीं था लेकिन कोरोना काल में साहित्योदय ने उन कलमकारों को भी अंतरराष्ट्रीय फलक प्रदान किया जिन्होंने मंच पर कदम भी नही रखा था. झारखण्ड जैसे प्रान्त से अंतर्राष्ट्रीय स्तर का इतना बड़ा मंच पहले नहीं बन पाया था.  बाद कई  अन्य साहित्यिक संस्थाओं ने भी ऑनलाइन आयोजन शुरू किये लेकिन कुछ महीने के बाद सब थककर बैठ गये लेकिन साहित्योदय लगातार कलमकारों को मंच देता रहा. ऐसे विकट दौर में जब नंदन और कादम्बिनी जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाएं बंद हो रही थी तब साहित्योदय ने झारखण्ड से सौ पृष्ठों की रंगीन साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया. कोरोना काल में जब लोग बीमारी , बेरोजगारी और बेकारी से अवसाद में डूब रहे थे तब साहित्योदय ने लोगों को सकारात्मक सृजन कार्य में व्यस्त रखा. इस दौरान काव्यसागर , कोरोना काल , शब्द मुसाफिर जैसे पुस्तकों का प्रकाशन एक मील का पत्थर साबित हुआ. लोग कोरोना के अवसाद से उबर गये और फिर से जीना शुरू किया. 

सोशल मीडिया ने साहित्य को एक नई दिशा प्रदान की। साहित्य सृजन और प्रतिभाओं का प्रदर्शन किसी बड़े मंच या मठाधीश लॉबी का मोहताज़ नहीं रहा। आनेवाले कुछ वर्षों तक शायद ही पहले की तरह कोई मंचीय आयोजन हो सके। ऐसे में सोशल मीडिया का मंच ही सभी के लिए सशक्त मंच बनेगा। मंचीय आयोजन की अपनी सीमाएं और बेहिसाब ख़र्च भी है आज जितने बड़े-बड़े कवियों का काव्यपाठ इस माध्यम में जरिये हो सका शायद ही मंचीय आयोजन में  हो पाता. आज सभी बिल्कुल सुरक्षित घरों में रहकर  बड़े बड़े कवियों को बड़ी आसानी से सुन पा रहे हैं न तो किसी से पास मांगनी है और न ही महंगे टिकट खरीदने की जरूरत है। बड़े कवियों को तो ढेरो मंच मिल जाते हैं और बदले में लाखों रुपये फीस भी, लेकिन ऐसा नहीं है कि छोटे शहरों,गाँव कस्बों में प्रतिभाएं नहीं है! सोशल मीडिया का ही कमाल है कि रानू मण्डल जैसी प्लेटफॉर्म पर भीख माँग कर पेट भरनेवाली साधारण औरत भी बॉलीवुड तक का सफर तय कर सकी। आज हमारे विशेष कार्यक्रम साहित्य संग्राम ने कविता और पत्रकारिता को जोडकर नया कीर्तिमान हासिल कर लिया है। बहुत ही मामूली खर्च और व्यवस्था के अलावे  डिजिटल टीम की दिनरात की  मेहनत से यह कार्यक्रम बेहद सफल है। टीवी चैनलों में इस तरह के आयोजन और प्रसारण में करोड़ों रुपये ख़र्च होते हैं लेकिन हमलोगों की कुछ निजी सहयोग और पूरी मेहनत से इस तरह का कार्यक्रम सपन्न हो सका है। टीवी चैनलों में कवि सम्मेलन देखकर राँची, गिरिडीह, अंबिकापुर, बिलासपुर, देवघर, हज़ारीबाग जैसे छोटे शहरों के छोटे छोटे रचनाकारों के मन मे भी उन टीवी कार्यक्रमों में शामिल होने की कुलबुलाहट रहती होगी लेकिन उनतक पहुँच पाना सबके बस की बात नहीं। इस कोरोना काल में न केवल झारखण्ड के दूर -सुदूरवर्ती ग्रामीण साहित्यिक प्रतिभा को आसमानी फलक मिला वल्कि अमेरिका, कनाडा , जर्मनी, रूस, मारीशस, जापान, केन्या , लन्दन , इंग्लैड , अफ्रीका, अबुधाबी , कतर , तंजानिया  जैसे देशों के लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकारों, कलाकरों और संस्कृतिकर्मियों को झारखण्ड की धरती से जोड़ने का काम किया.  इस कोरोना काल में जहाँ उपेक्षित गुमनाम कलमकारों को फिर से नया जीवन मिला तो वहीं नये रचनाकारों को सृजन का नया आधार मिला है.  
"✍️पंकज प्रियम
कवि -लेखक -पत्रकार 

Sunday, June 7, 2020

845. सृजन आधार के वो दिन

1.चुप्पी तोड़ो
चुप्पी तोड़ो स्वस्थ रहो तुम,
घर-बाहर अलमस्त रहो तुम।
इस मुश्किल में न घबराना-
स्वच्छ रहो और स्वस्थ रहो तुम।

चार दिनों का दर्द समझना,
मुश्किल में औरत का रहना।
न रक्त अशुद्ध न वो अपवित्र-
मानव तन का चक्र समझना।

जीवन का सृजन वरदान के नारी,
इस कष्ट को सहती जान है नारी।
आरंभ सृजन का होता जिससे-
अपवित्र अशुद्ध अभिशाप वो कैसे?

जो रक्त सृजन आधार है बनता,
अपवित्र उसे क्यूँ कोई कहता?

2.सृजन आधार के दिन

जुबाँ अब खोल तू नारी, तनिक कुछ बोल तू नारी,
दबा कर दर्द तू तन में, जहर मत घोल तू नारी।
नहीं वो रक्त है अपवित्र, नहीं अभिशाप के वो दिन-
सृजन का चक्र मासिक है, जहाँ को बोल तू नारी।।

सृजन का बीज अंकुरण, धरा को कष्ट कुछ होता,
मगर धरती कहाँ रोती, फ़सल जब नष्ट कुछ होता।
वही आधार हैं बनते, बड़ी मुश्किल भरे वो दिन-
फसल जब लहलहाती है, कहाँ फिर दर्द कुछ होता।।

तुम्हीं काली तुम्हीं दूर्गा,   तुम्हीं तो मात जगदम्बा,
तुम्हीं धरती तुम्ही अम्बर, तुम्हीं पत्नी बहन अम्मा।
सृजन आधार तुम जननी, नही अभिशाप तुम नारी-
सृजन शक्ति समाहित हो, तुम्हीं बेटी तुम्हीं हो माँ।

फ़क़त वो चार दिन मुश्किल, सकल आधार जीवन का,
मिला वरदान है तुझको,        सृजन संसार जीवन का।
बदन को स्वच्छ रखना और सुरक्षा चक्र अपनाना-
तनिक आराम तब करना,    यही दरकार जीवन का।।

©पंकज प्रियम

Wednesday, June 3, 2020

843. चुप्पी तोड़ो

चुप्पी तोड़ो स्वस्थ रहो तुम,
घर-बाहर अलमस्त रहो तुम।
इस मुश्किल में न घबराना-
स्वच्छ रहो और स्वस्थ रहो तुम।

चार दिनों का दर्द समझना,
मुश्किल में औरत का रहना।
न रक्त अशुद्ध न वो अपवित्र-
मानव तन का चक्र समझना।

जीवन का सृजन वरदान के नारी,
इस कष्ट को सहती जान है नारी।
आरंभ सृजन का होता जिससे-
अपवित्र अशुद्ध अभिशाप वो कैसे?

जो रक्त सृजन आधार है बनता,
अपवित्र उसे क्यूँ कोई कहता?

©पंकज प्रियम