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Sunday, September 20, 2020

878.थाली में छेद

थाली में छेद
खाकर जिसने छेद किया है, अपने देश की थाली में।
पकड़ के उसको आओ डालें, सड़ती गंदी नाली में।।

रोटी खाये हिंदुस्तानी, नारा लगाए पाकिस्तान।
अपने देश को गाली देता, दुश्मन की करता गुणगान।
माफ़ नहीं तुम उसको करना, भारत को जो गाली दे-
पकड़ के उसको---

बात सहिष्णुता की करता, खुद चलवाता बुलडोजर।
देशविरोधी नारों पर तो, मुँह सील जाता है अक्सर।।
खुद पे जब हो प्रश्न खड़े तो, औकात दिखाते गाली में।
पकड़ के उसको--

नफ़रत की जो आग लगाये, देश नहीं है यह उनका,
दुश्मन की बोली जो बोले, देश नहीं है यह उनका।
घर में छुपे सब गद्दारों को लटकाएं आओ फाँसी पे।।

©पंकज प्रियम

Thursday, May 14, 2020

834. कोरोना काल

कोरोना काल

यह कैसा वायरस आया है?
यह कैसा वायरस आया है?

यह कैसा वायरस आया है?
हर दिल में खौफ़ समाया है।
विकट कोरोना काल में अब
बस दिखता मौत का साया है।
यह -

चहुँ ओर मचा चीत्कार अभी,
हर ओर मचा हाहाकार अभी।
बन काल कोरोना आया है,
सब जन-जन ही घबराया है।
यह कैसा-

कल भाग रहे थे शहर की तरफ,
अब भाग रहे सब घर की तरफ।
ये दृश्य विभाजन का दुहराया है।
हाँ इस वक्त ने सबको हराया है।
यह कैसा-

शहर की ख़ातिर छोड़ा गाँव,
संकट में क्यूँ मिला न ठाँव?
जो शहर ने सबको भगाया है,
सब लौट के गाँव ही आया है।
यह कैसा-

छीन गयी रोजी-रोटी जब,
क्या करता बेचारा कोई तब।
जहाँ खून-पसीना बहाया है,
वही वक्त पे काम न आया है।
यह कैसा.

नर-नारी बच्चे-बूढ़े और जवान,
हलक में अटकी सबकी जान।
हालात में खुद को बिठाया है,
सामान सा ट्रक में समाया है।
यह कैसा-

हालात से तब मजदूर बने,
हालात से अब मजबूर बने।
जब शहर ने ठेंगा दिखाया है
घर वापस कदम बढ़ाया है।
यह कैसा--

सब भूखे पैदल चलने को,
नङ्गे पाँव चले हैं जलने को।
कोई खुद को बैल बनाया है,
कोई पत्ता चुन-चुन खाया है।

यह कैसा वायरस आया है,
हर दिल में खौफ़ समाया है।

©पंकज प्रियम

Friday, May 8, 2020

832. धर्म का ठप्पा

धर्म

लिखूंगा अगर तो कहोगे की लिखता है,
हिंदुस्तान में क्या हमारा ही धर्म सस्ता है?

जब चाहा जैसे तुमने उसको काट लिया,
चंद वोटों की ख़ातिर सबको बांट दिया!
नफऱत के बीज तो खुद बोती है सरकार,
और कुछ लिखो तो बोल पड़े लिखता है।
हिंदुस्तान में क्या हमारा ही धर्म सस्ता है?

हर गली हर नुक्कड़ धर्म का लगा ठप्पा,
एक बेचारे को खा गया समझ गोलगप्पा!
औरों की तरह उसने भी तो नाम लिखा!
क्या केवल इसमें ही तुझे धर्म दिखता है?
हिंदुस्तान में क्या हमारा ही धर्म सस्ता है?

सेक्युलरिज्म का क्या यही होता है फंडा,
हिन्दू गर हिन्दू कह दे तुम चला दो डंडा!
फिर क्यूँ नौकरी नामांकन का हर पन्ना,
हर किसी का चीख-चीख धर्म लिखता है?
हिंदुस्तान में क्या हमारा ही धर्म सस्ता है?

माना कि गंगा-जमुनी की तहज़ीब हमारी,
फिर क्यों दिखती यह ओछी नीति तुम्हारी?
संविधान ने हर किसी को है अधिकार दिया,
सबके जैसे उसने लिखा तो घाव रिसता है?
हिंदुस्तान में क्या हमारा ही धर्म सस्ता है?

मत करो यह भेदभाव, ज़हर न ऐसे घोलो,
क्या ख़ता थी उसकी आख़िर कुछ तो बोलो!
धर्म लिखना दोष अगर है सबको तुम रोको,
क्या धर्म का केवल सेलेक्टिव रिश्ता है?
हिंदुस्तान में क्या हमारा ही धर्म सस्ता है?
©पंकज प्रियम

शर्मनाक कार्रवाई- जमशेदपुर में इस फलवाले पर सिर्फ इसलिए कार्रवाई हो गयी कि उसने दुकान का नाम हिन्दू फल दुकान रख लिया था। जबकि यह कोई अपराध नहीं। सभी लोग अपने धर्म के अनुसार दुकान और होतकों का नाम रखते हैं लेकिन कार्रवाई सिर्फ बेचारे इस पर हुई। राजनीतिक पहल के बाद प्रशासन ने हाथ पीछे कर लिया।

Wednesday, May 6, 2020

829. उसपार चलो


मध्दम-मद्घम सा सूरज,
साँझ सिन्दूरी सुरमई।
हाथों में ले हाथ सजन,
तुझमें मैं तो खो गई।

डूब रहा सूरज क्षण-क्षण,
नभ बादलों का डेरा है।
अम्बर-धरती का ये मिलन,
बस लगता तेरा-मेरा है।

सूरज की किरणों से देखो,
स्वर्णिम आभा है बिखरी।
अम्बर को आलिंगन कर के
कण-कण धरती है निखरी।

हाथों में ले हाथ सजन,
चलो चलें उसपार प्रियम।
हो सुहानी रातें और बस
प्यार-मुहब्बत का मौसम।
©पंकज प्रियम

Friday, April 3, 2020

806. जाहिलों

जाहिल

डूब मरो ऐ जाहिलों,
शर्म करो ऐ जाहिलों।

ये तब्लीगी जमात,
है जाहिल करामात।

थू है थूकने वालों पर,
थू है पत्थरबाजों पर।

तन से तो हो रहे नंगे,
मन में भरे केवल दंगे।

कोरोना के वाहक सारे,
मानवता के हैं हत्यारे।

क्यूँ करे इनका इलाज़,
दंडित कर इनको आज।

थूक से जो करते हैं वार,
बस सज़ा के है हक़दार।

©पंकज प्रियम

Sunday, March 29, 2020

801. कैसा वायरस आया है?

कैसा वायरस आया है?

ये कैसा वायरस आया है?
हर दिल में खौफ़ समाया है।
ये कैसा वायरस आया है?
मुफ़लिस पे रौब जमाया है।

राजा हो या रंक अभी तो,
बांधा अपने पाश सभी को।
हर देश में मौत का साया है,
ये कैसा वायरस आया है?

अमरीका, इटली या स्पेन,
लूट लिया भारत का चैन।
जो चीन ने रोग लगाया है
ये कैसा वायरस आया है।

हर शक्ति है बेकाम अभी,
विज्ञान भी है नाकाम अभी।
कुछ काट नहीं मिल पाया है,
ये कैसा वायरस आया है?

अपनों से अपने दूर हुए,
सब कैसे अब मजबूर हुए।
परदेश से मार भगाया है,
ये कैसा वायरस आया है?

सबको सबसे दूर किया,
हाल बड़ा मजबूर किया।
हर घर को जेल बनाया है,
ये कैसा वायरस आया है।

सब मन्दिर-मस्जिद बंद हुए,
अब दूर सभी सम्बन्ध हुए।
हर ताकत को झुठलाया है,
ये कैसा वायरस आया है?

मौत का मंजर है पसरा,
बस छूने से भी है खतरा।
हर चेहरा मास्क चढ़ाया है,
ये कैसा वायरस आया है।

वीरान सड़क सन्नाटे में
बाज़ार तड़पता घाटे में।
सरकार ने कर्फ़्यू लगाया है,
ये कैसा वायरस आया है?

भूखे मरेगी जो जनता सभी
जागेगी क्या तेरी ममता तभी।
अब पैदल सबको दौड़ाया है,
ये कैसा वायरस आया है?

बचने का है बस एक उपाय,
घर में रहो सब ताला लगाय।
हर देश ही अब थर्राया है,
ये कैसा वायरस आया है?

©पंकज प्रियम
29.03.2020

Friday, March 20, 2020

792. फाँसी

हो गयी फाँसी दुष्कर्मी को, मिला हृदय को अब है चैन।
धन्यवाद करती अब माता, थी वर्षों से जो बैचेन।

दुष्कर्मी कोई बच न पाये, नेता मंत्री या अफ़सर।
फाँसी सबको हो जाये, अफ़रोज़ नाबालिक या सेंगर।

हैवान सभी होते हैं वह जो नोचते बेटी की अस्मत,
हरपल खौफ़ बढ़ाये वो मौत ही उनकी हो किस्मत।

इंसाफ़ करे अब न्यायालय, बिन लगवाये वो चक्कर,
कोई बेटी मरे नहीं अब, इन खूनी पंजों में फँसकर।

सजा कठिन हो ऐसी कि, मौत की वो फरियाद करे,
बेटी को सब बेटी समझे, फिर कोई न अपराध करे।

आसिफा हो या निर्भया, किसी की माँ न रोये कभी,
अस्मत पे जो हाथ लगाए, दे दो फाँसी उसको अभी।

न्याय में देरी अन्याय सदा, जल्दी करो इंसाफ़ अभी
हैवान दरिन्दे दुष्कर्मी को, करो न उसको माफ़ कभी।
©पंकज प्रियम

Monday, February 3, 2020

785. सुनो गर्जना

सुनो गर्जना
वर्तमान की।
चहुँ ओर उठा
जो शोर सुनो,
सिसकती नारी
तुम और सुनो,
मासूमों के आँसू
घटाटोप घनघोर सुनो।
क्रिया की प्रतिक्रिया की
घात की प्रतिघात की
समर्थन-विरोध का शोर सुनो।
सुनो गर्जना
प्रतिमान की
धधकती ज्वाला
अभियान की
चिल्लाता जोर सुनो।
मंचों के आसन से
धृतराष्ट्री शासन से
कालाबाज़ारी राशन से
उठती गर्जना हर ओर सुनो।
अंधा दिखाए राह यहाँ
कुर्सी की बस चाह यहाँ
दिन दहाड़े खुद लूटकर डाकू
सिपाही को कहता चोर सुनो।
घपले-घोटालों के बनते
कीर्तिमान की
सुनो गर्जना
वर्तमान की।

©पंकज प्रियम
3फरवरी2020

Saturday, February 1, 2020

784. तारीख़ पे तारीख़

तारीख़ पे तारीख

कौन बचा रहा दरिंदो को?
फिर क्यूँ टली दरिंदो की फाँसी?
अपनी बेटी को इंसाफ़ दिलाने को
लड़ रही एक माँ को चुनौती दे गया वकील
अनन्तकाल तक नहीं होने देंगे फाँसी!
आज वकील ने चुनौती दी
कल तो उसकी जान भी ले सकता है!
जैसे गवाहों और परिजनों के साथ होता रहा है.
न्यायालय बेवश कानून के दल्लों के आगे।
रखैल बना रखा है कानून को ऐसे वकीलों ने,
एक माँ के आँसू क्या तुम्हें सोने देंगे?
क्या दो निवाले मुँह में भर पाओगे?
कैसे बीवी-बेटी को गहने दोगे खरीदकर
दरिन्दों को बचाने के एवज में मिले पैसों से?
मिलार्ड! अरे ओ मिलार्ड!!
जरा तुम तो रहम खाओ
माना कि कानून ने आँखों में बांध रखी है पट्टी
तुम्हारी तो है खुली।
देखो एक माँ की आँखों से बहते बेटी के जख़्म को
जैसे एक आतंकी को बचाने के लिए आधी रात
तुम कोर्ट खोलकर फैसला करने लगे थे
आज भी कर दो न एक रात में फैसला
न दो उन दुष्ट दुष्कर्मी और हैवान को माफ़ी
दरिन्दों को बचानेवाले वकील को ही दे दो फाँसी।
नही करोगे तो बढ़ता रहेगा हौसला इनका
नहीं थमेंगे अपराध कभी
कानूनी पेंचों में तुम्हें उलझाते रहेगे
चंद टुकड़ों में बिककर दरिन्दों को बचाते रहेंगे।
तुम्हारी भी तो बेटी होगी?
निर्भया की जगह तुम्हारी बेटी होती तो क्या करते?
है जवाब?
हैदराबाद एनकाउंटर पर सवाल करनेवालों,
है कोई जवाब तुम्हारे पास?
यूँ ही नहीं जश्न मनाया था लोगों ने,
क्यूंकि तंग आ चुके हैं लोग
कोर्ट की इस तारीख़-पे-तारीख़ से।

©पंकज प्रियम
कवि पंकज प्रियम


Thursday, January 2, 2020

772. मन बंजारा

मन बंजारा

मन बंजारा तन बंजारा
जीवन ये बंजारा है।
चार दिनों की ज़िन्दगी,
कुछ क्षण का गुजारा है।

एक पल भी कहाँ ये मन
स्थिर ठहरता है।
ख़्वाब सजाये पँखों से
हरपल ये विचरता है।

तन भी कहाँ हरदम
साथ निभाता है।
बचपन से बुढापा तक
हाथ बढ़ाता है।

तिनका-तिनका ये
जीवन जोड़ता जाता है।
पलभर ही बुलावा में
तन-मन छोड़ के जाता है।

रात घनेरी हो काली
पर होता सबेरा है।
सुबह सुनहरी हो लाली
फिर होता अँधेरा है।

तन-मन-धन और जीवन
कहाँ होता बसेरा है?
हरपल हरक्षण ये जीवन
बंजारा-बंजारा बंजारा है।
©पंकज प्रियम
02.01.2020

Saturday, December 21, 2019

766. जाड़े का मौसम

जाड़े का मौसम कहता है..

जाड़े का मौसम कहता है
क्या कहता है? क्या कहता है?

सर्द हवाओं के संग-संग,
धूप गुलाबी से अंग-अंग
जब शोला गर्म दहकता है।
तब तनमन खूब बहकता है?
जाड़े का मौसम कहता है,
इसमें भी फूल महकता है।

कोहरा घना जब छाता है,
साफ़ नज़र नहीं आता है।
साँसों में शोला पिघलता है
साँसों से भांप निकलता है।
जाड़े का मौसम कहता है,
इसमें भी जीवन सजता है।

पछुआ कटारी चलती है,
बदन में आरी चलती है।
खुद ही खुद में सिमटता है,
मौसम भी पल में बदलता है।
जाड़े का मौसम कहता है,
इसमें भी जीवन पलता है।

सब सोये होते घर में जहाँ,
मुस्तैद कोई सरहद में वहाँ।
जब बर्फ में कोई जगता है,
तब चैन से हर कोई सोता है।
जाड़े के मौसम कहता है,
उनसे ही जीवन रहता है।

श्वानों को कम्बल मिलता है,
कोई नंगे बदन भी हिलता है।
चादर से मज़ार तो भरता है,
कोई ठंड से हार के मरता है।
जाड़े का मौसम कहता है,
इसमें भी जीवन पलता है।

कम्बल तो बंटता खूब यहाँ,
अफसर भी लूटता खूब यहाँ।
कम्बल की जरूरत सर्दी में
पर होता है टेण्डर गर्मी में।
ओढ़ के सबकोइ पीता है,
कम्बल में घी जो पिघलता है।

जाड़े का मौसम कहता है,
इसमें भी जीवन जलता है।
©पंकज प्रियम

©पंकज प्रियम

Tuesday, December 17, 2019

759. सेंगर

सज़ा

दुष्कर्मी कोई बच न पाये, नेता मंत्री या अफ़सर।
फाँसी सबको हो जाये, अफ़रोज़ नाबालिक या सेंगर।

हैवान सभी होते हैं वह जो नोचते बेटी की अस्मत,
हरपल खौफ़ बढ़ाये वो मौत ही उनकी हो किस्मत।

इंसाफ़ करे अब न्यायालय, बिन लगवाये वो चक्कर,
कोई बेटी मरे नहीं अब, इन खूनी पंजों में फँसकर।

सजा कठिन हो ऐसी कि, मौत की वो फरियाद करे,
बेटी को सब बेटी समझे, फिर कोई न अपराध करे।

आसिफा हो या निर्भया, किसी की माँ न रोये कभी,
अस्मत पे जो हाथ लगाए, दे दो फाँसी उसको अभी।

न्याय में देरी अन्याय सदा, जल्दी करो इंसाफ़ अभी
हैवान दरिन्दे दुष्कर्मी को, करो न उसको माफ़ कभी।
©पंकज प्रियम

758. पहचानो तुम

पहचानो तुम
नफऱत की जो आग लगाये, उसको भी पहचानो तुम।
मानवता के दुश्मन हैं जो, हकीकत उसकी जानो तुम।।

जाति धरम और मज़हब का हर चेहरा गंदा लगता है,
इंसानों के वेश में छूपकर हर मोहरा दरिंदा लगता है।।

नफ़रत की जो बात करे, कभी न उसकी मानो तुम।
देश का दुश्मन जो भी बैठा, उसको भी पहचानो तुम।

आस्तीनों में छूपकर बैठे,  काले विषधर नाग यहाँ,
ज़हर उलगते रहते हरदम, फूँकते घरघर आग यहाँ।

फन कुचलो उन सर्पों का, जो भीतर बैठे घात करे।
सर कुचलो उन गद्दारों का छूपकर जो आघात करे।

समर शेष नहीं अब कुछ भी समय चक्र पहचानो तुम।
अमन-चैन के दुश्मन हैं जो, हकीकत उनकी जानो तुम।

©पंकज प्रियम

Thursday, December 12, 2019

748. दीपशिखा

दीपशिखा

तिमिर निशा के हर आँगन
ज्योत जलाती दीपशिखा।

संग हवा वह पलती रहती,
खुद में खुद जलती रहती।
चीर तमस घनघोर निशा,
ज्योत जगाती दीपशिखा।

दीये की बाती उसकी थाती
जलकर भी वो न घबराती।
मन का तिमिर खूब मिटा,
मार्ग दिखाती दीपशिखा।

हरपल जलती ज्ञान सिखाती,
जीवन का गूढ़ सन्देश बताती।
जलना तो केवल दीपक जैसा,
ज्ञान सिखाती दीपशिखा।

मद्धम पलती मध्दम जलती,
हरदम मद्धम रौशन करती।
बहुत तेज की लौ फड़का,
साँस बुझाती दीपशिखा।

गर जीवन ये जीना तुझको,
कर दो समर्पण तुम मुझको,
खुद को कैसे नियंत्रित करना
पाठ पढ़ाती दीपशिखा।
©पंकज प्रियम

Sunday, December 8, 2019

736. काट देना उसके हाथ

काट देना उसके हाथ

किंचित भय तू करना नहीं,
कभी दुष्टों से तू डरना नहीं।
अस्मत पे कोई डाले हाथ,
काट देना तुम उसके हाथ।।

छोड़ो लज्जा उठा लो शस्त्र,
हाथों को ही बना लो अस्त्र।
गलत करे जो तेरे साथ,
काट देना तुम उसके हाथ।।

नहीं कृष्ण यहाँ अब आएंगे,
न अर्जुन-भीम तुझे बचाएंगे।
उठा गाण्डीव बन जाना पार्थ,
काट देना तुम उसके हाथ।।

तुम्हीं हो दुर्गा तुम्हीं हो काली,
गदा खड्ग और खप्परवाली।
उठा त्रिशूल बन के भोलेनाथ,
काट देना तुम उसके हाथ।।

नहीं कोर्ट न मानव अधिकार,
वोट बैंक में सब गये हैं हार।
समझ न खुद कभी अनाथ,
काट देना तुम उसके हाथ।।

कबतक यूँ ही मरती रहोगी?
खूनी पंजो से डरती रहोगी?
नहीं मिलेगा जब कोई साथ,
काट देना तुम उसके हाथ।।

उपदेश गीता का रखना याद,
दानवों का वध नहीं अपराध।
हथियार उठाके आत्मरक्षार्थ,
काट देना तुम उसके हाथ।।
©पंकज प्रियम
8.12.2019

Saturday, December 7, 2019

734.खुद सँहार करो

सँहार करो

अब तुम आर करो या पार करो,
सब दुष्टों का अब तो सँहार करो।

न्याय की उम्मीद भी छोड़ दिया,
फिर एक बेटी ने दम तोड़ दिया।
जाते-जाते कह गयी वो भाई को,
तुम छोड़ना नहीं मेरे कसाई को।
चाहे कुछ भी हो जाये भाई मेरे,
उन दुष्टों पर जानलेवा वार करो।

अरे ओ मूढ़ मानवाधिकार वालों
आज भी शर्म संज्ञान तुम डालो।
चुप रहते हो जब जलती है चिता,
तुझे तो सिर्फ दानवों की है चिंता।
मानो तुम्हारी बेटी या बहना थी,
यही सोच कर तुम प्रतिकार करो।

तुम्हीं बोलो क्या करेगा वो भाई,
क्यूँ न मारे उसे जो बना कसाई।
एनकाउंटर पर रोने वाले बोलो,
आज भी जरा तुम आँखें खोलो।
तुम्हारे घर में न हो जाए घटना
कुछ तो ऐसा ही व्यवहार करो।

एनकाउंटर पर तो संज्ञान लिया,
गलत जज ने उसको मान लिया।
जब मरती बेटी क्यूँ चुप हो जाते,
क्या शर्म हया सब कुछ खो जाते?
नहीं लुटे तेरी बेटी की भी अस्मत,
पेश नजीर कुछ इस प्रकार करो।

वर्षो तक तुम हो केस लटकाते,
निर्भया जैसे मुद्दे को भी भटकाते।
आज बेटियाँ क्यूँ पूछ रही सवाल?
खुद तुमने तो किया है यह हाल।
मिला पाओ अपनी बेटी से आँखे,
फ़ैसला कुछ ऐसे तुम दो-चार करो।

अगर वक्त पर जो मिलता इंसाफ़,
कर देती बेटियां तुमको भी माफ़।
बहुत हो चुका अब खेल दरिंदो का,
पर नोच लिया आज़ाद परिंदों का।
तेरे भी घर में घुस न जाये दानव,
हैवान दरिंदो में अब हाहाकार करो।

बचने न पाये यहाँ अब कोई दरिंदा,
जहाँ दिखे दुष्कर्मी जला दो जिंदा।
न तारीख़ जिरह न कोई मुक़दमा,
किसी बेटी को न अब पहुँचे सदमा।
बहुत देख लिया इंसाफ़ सभी का,
अब खुद की किस्मत सरकार करो।

बेटियाँ तुम खुद अब बनो हथियार
अपने हाथों को अब करो तलवार।
छोड़ो लिपिस्टिक काज़ल बिंदिया,
सोना है गर जब चैन की निंदिया।
बन दुर्गा, बन काली, बन चामुण्डा,
अब तुम खुद ही इनका सँहार करो।

©पंकज प्रियम
07 दिसम्बर 2019

Tuesday, December 3, 2019

731.निःशब्द हूँ प्रियंका

निःशब्द हूँ प्रियंका

निःशब्द हूँ प्रियंका क्या कहूँ?
यह भारत है जहाँ आतंकवादियो को भी
बचाने को वकील खड़ा हो जाता है
फिर तो तुम्हारे गुनहगार महज रेपिस्ट हैं!
उन दुष्टों के लिए वकीलों की क्या कमी होगी?
कोर्ट में बारबार तुम्हारे नाम पर झूठी जिरह करेंगे
हरबार अपने लफ्फाजियों से
दुष्टों के वकील कोर्ट में तुम्हारा बलात्कार करेंगे,
तुम्हारे माँ-बाप को जलील करेंगे,
लेकिन उन दुष्टों को बचाने की पुरजोर कोशिश करेंगे
तुम प्रियंका हो न
इसलिए न तो कोई मोमबत्ती जलाएगा
न ही कोई अवार्ड वापस करेगा
न फिल्मी हस्तियां कुछ कहेंगी
और न ही कोई धरना प्रदर्शन करेगा,
संविधान लिखनेवाले ने इतनी छूट दे रखी है कि
हर कुकर्मी जघन्य अपराध करके भी छूट जाता है,
कोई झूठी गवाही के बल पर
कोई ठोस सबूतों के अभाव में
कोई धनबल पर, कोई बाहुबल पर
जैसे निर्भया का नाबालिक बलात्कारी!
कानून तो बन गए हैं लेकिन क्या रुका बलात्कार
क्योंकि कड़ी सजा नहीं मिलती
जिस दिन रेपिस्टों की सरेआम सजा होगी
जिस दिन उनकी मोबलिंचिंग होगी
यकीनन खौफ़ पैदा होगा उनमें,
सोचेंगे दस बार रेप करने से पहले
कोई कानून नहीं प्रियंका,
अब तुम्हें हथियार उठाना होगा
खुद के हाथों को तलवार बनाना होगा

©पंकज प्रियम

Monday, November 18, 2019

727. बरगद की छाँव

बरगद की छाँव में

मेरे घर गाँव में
बरगद की छाँव में,
बीता है बचपन
उसके जो ठाँव में।
विशाल बरगद का पेड़
नीचे बनता खलिहान,
जहाँ होता सबका जुटान।
वो बतकही और ठहाके,
आहिस्ते-आहिस्ते भैंस-बैलों का
धान के खोवा में घूमना मिसना,
उसकी पीठ पर शान से मेरा चढ़ना,
बैलों के संग गोल गोल घूमना,
फिर एक रोज मेरा धड़ाम से गिरना
और फिर मेरी ठुड्ढी का कटना,
आज भी मौजूद है वह निशान,
जिससे सब हो गये थे परेशान।
और उसके पीछे-पीछे छड़ी ले
किसना बाबा का संग चलना,
वो बरगद महज़ एक वृक्ष नहीं
हमारे घर का बड़ा सदस्य था,
जिसकी बड़ी शाखाओं में लगते झूले
जिसपर झूलते हमारा बचपन बीता,
शाखाओं से लटकती लम्बी-लम्बी डोर
जिसपर झूलते बेफ़िक्री में बच्चे हर ओर।
बट सावित्री के दिन माँ चाची का पूजन
विशाल बरगद का आस्था की डोर का बंधन।
उसके पत्तों का आसन, उसकी ही छाया
पत्तों से ही भगवान को पँख झलना
बरगद के छाँव में नारी का पतिधर्म पलना।
हम बच्चे उछलते कूदते प्रसाद के इतंजार में
सच में कितना सुकून था बरगद के प्यार में।
वक्त के साथ बरगद भी लाचार हुआ
या कहूँ शाखाओं की छँटाई से बीमार हुआ।
धीरे-धीरे वह सूखता गया
मानो वह हमसे रूठता गया।
खतम हो गयी उसकी सारी निशानी
रह गयी तो सिर्फ यादों की कहानी।
अब न तो बरगद है और न छाँव है,
रोजगार सृजन में हमसे दूर गाँव है।
©पंकज प्रियम
18/11/2019

Saturday, November 16, 2019

724. सिंदूर

सिंदूर

चुटकी भर सिंदूर लगा
सजनी सुंदर सजती है।
सोलह शृंगार होता पुरा,
माथे जो लाली रचती है।

बिन इसके सुहाग अधूरा,
हर नारी अधूरी लगती है।
चटक सिन्दूरी सूरज आभा,
सजा के औरत फबती है।।

चुटकी भर सिंदूर की कीमत
सुहागन सारी समझती है।
तभी सुहाग बचाने को नारी,
यमराज से भी उलझती है।।

औरत का सम्मान है लाली,
जिसको माँग में भरती है।
सिंदूर सजाकर लगती सुंदर,
तभी गुमान वो करती है।।

सिंदूर की कीमत पूछो उनसे
जिनकी माँग उजड़ती है।
घुट-घुट कर के आँसू पीती,
पतझड़ के जैसे झड़ती है।।

सिंदूर सुहागन का है दर्पण,
जिसे रोज निहारा करती है।
लाज सिंदूर की रखने को
नारी हरपल जीती मरती है।।
©पंकज प्रियम

Saturday, November 2, 2019

710. ज़िंदगी का सफ़र

सफ़र अनजान को सफर कर लेना,
काँटों भरी राह को भी हौसलों से
फूलों से सजा तुम डगर कर लेना।

जिंदगी को बस यूं गुज़र कर लेना
रोज खिलते हंसी फूलों की तरह
मुस्कुराहटों से ही सहर कर लेना।

बन जाओ किसी चेहरे की हँसी,
रोज धड़कते दिलों की ही तरह
लोगों की सांसों पे असर कर लेना।

बहुत ही खूबसूरत है ये जिंदगी,
होके मायूस न कभी इस तरह
कभी जीवन में न जहर कर लेना।

बड़ी मुश्किल से मिलती है खुशी,
होके रुसवा न कभी इस तरह
हंसी में न गमों को बसर कर लेना।

बहुत छोटी है ये अपनी जिंदगी
बन जाओ मुस्कुराहटों की वजह
हंसी बाँटते ही यूँ सफ़र कर लेना।
©पंकज प्रियम