Sunday, September 30, 2018

440.रंग भरे जीवन

अक्सर ख़्वाबों में जो है आता
मस्तिष्क पटल पर वो है छाता
चल पड़ती है तब कूँची अपनी
खुद कैनवास पर छप है जाता।

ख़्वाबों का तुम अब खेल देखो
इन रंगों का तुम अब मेल देखो
कोरा कागज़ जिंदा हो जाएगा
कागज़ पे चलती अब रेल देखो।

सारे ख़्वाब हक़ीक़त से लगते
तस्वीरों की जब रंगत करते
रहता कहाँ तब कोरा जीवन
दिल में रंग मुहब्बत के भरते।

,©पंकज प्रियम

Saturday, September 29, 2018

440.गाँव

गांव

चहुँ ओर है छटा हरियाली
गाँव की हर बात निराली।

चर्चा होती है दुनिया जहान
चौपाल की अलग है शान।

हर घर खेती हर घर किसान
धान भरे खेत-खलिहान।

घर घर खबर छापे अख़बार
पनघट पे जब जुटती नार।

चूल्हा चौखट से घर परिवार
ग्रामीण जीवन लघु संसार।

©पंकज प्रियम

439.मुक्तक,सुबह

सुबह की धूप है निकली,जरा तुम आँख तो खोलो ।
नहीं आलस करो इतना,अधर से आज कुछ बोलो ।।
हवाएं कह रही है क्या, चलो अब आज सुन भी लो ।
प्रणय के रंग जीवन में , बहाने साथ तुम हो लो ।।

सुहानी धूप है बिखरी,जरा किरणों से तुम मिल लो
नहीं सोये रहो इतना, जरा बिस्तर से तुम हिल लो
फिजाएं कह रही है क्या,नहीं सुनना तुझको क्या?
जवानी रुप सी निखरी,जरा फूलों से तुम खिल लो।

सुप्रभात
✍पंकज प्रियम

सुप्रभात
✍पंकज प्रियम

Friday, September 28, 2018

438.नील गगन

नील गगन

नीलगगन अलमस्त पवन
महक उठे सब चन्दन वन
दूर गगन करे पंछी विहार
चहक उठा तब अन्तर्मन।

चढ़ उठी जब नील गगन
मद्धम मद्धम सूर्य किरण
बहक उठी जब से बयार
महक उठा तब अन्तर्मन।

अम्बर खिला नील गगन
पुलकित हुए वन उपवन
वसुधा भी जब हर्षित हुई
बहक उठा तब अन्तर्मन।

©पंकज प्रियम

437.गज़ल. नहीं रहा


समंदर का अब कोई साहिल नहीं रहा
महफ़िल में अब कोई शामिल नहीं रहा।

चल दिये मुंह फेर करके वो इस कदर
उनकी मुहब्बत के मैं क़ाबिल नहीं रहा।

हम दिनरात इश्क़ उनसे जो करते रहे
खो दिया चैन,कुछ हासिल नहीं रहा।

अपने दिल में छुपा के रखा था उसको
निकले वो ऐसे की दिल,दिल नहीं रहा।

दिल बहलाने को बहुत मिलते हैं मगर
किसी से "प्रियम" दिल,मिल नहीं रहा।
©पंकज प्रियम

Thursday, September 27, 2018

436.सरकार

सरकार

कागज़ी जो घोड़ा दौड़ाए
हाथी को भी हवा उड़ाए
घोषणाओं की भरमार है
समझ लो यही सरकार है।

मंत्री,सन्तरी नेता अफ़सर
जनता को लगवाते चक्कर
उनके हितों की दरकार है
समझ लो यही सरकार है।

पूंजीवाद की बोली बोले
धनपशुओं के आगे डोले
गरीबों को बस फटकार है
समझ लो यही सरकार है।

योजनाएं तो बनती है खूब
ठेकेदारों की चलती है खूब
टेबल टेण्डर की जयकार है
समझ लो यही सरकार है।

आँकड़ों का बस होता खेल
अंडर टेबल का प्यारा मेल
चोर ही बन जाता सरदार है
समझ लो यही सरकार है।

नहीं दोष सिर्फ सरकारों का
नहीं दोष क्या,पहरेदारों का
निगरानी का भी अधिकार है
आखिर हमारी ही सरकार है।

अच्छे नेता को चुनना होगा
खुद अपना खेत बुनना होगा
समय की सदा यही पुकार है
अपने हाथों में ही सरकार है।

©पंकज प्रियम

435.अपराजिता

नारी तू अपराजिता

भला किसने कभी तुमसे
यहां कोई जंग है जीता
सदा ही हार मिली सबको
नारी तुम सदा हो अपराजिता।

जीत लेती हो मौत को
नवसृजन करती सह के
नौ माह की प्रसव वेदना।
पुरुष कहाँ तुमसे कभी जीता।
नारी तुम सदा हो अपराजिता।

कहाँ सुकून मिला किसको
यहां अपमानित कर तुझको
द्रौपदी बन महाभारत रचती
कभी रामायण की तुम सीता
नारी तुम सदा हो अपराजिता।

हर युग में तुझको सबने तोड़ा
लेकिन हिम्मत नहीं तुमने छोड़ा
अहिल्या सा शापित जीवन
कभी अग्निपरीक्षा देती सीता
नारी तुम सदा हो अपराजिता।

माँ, बेटी,पत्नी और बहना
हर घर की तुम हो गहना
सागर की लहरों सा समर्पण
अविरल बहती तुम हो सरिता
नारी तुम सदा हो अपराजिता।
©पंकज प्रियम

अंगूठे की मौत

"अंगूठे की मौत", को प्रतिलिपि पर पढ़ें : https://hindi.pratilipi.com/story/YqOVEOTjlDMB?utm_source=android&utm_campaign=content_share भारतीय भाषाओँ में अनगिनत रचनाएं पढ़ें, लिखें और दोस्तों से साझा करें, पूर्णत: नि:शुल्क

Wednesday, September 26, 2018

434.खुशियां

उम्र के आखिरी मोड़पर
सब दुनियादारी छोड़कर
आ मिली जब दो बहना
फिर खुशी का क्या कहना?

गुजरी यादें सब ताजा हुई
बीती बातें जब साझा हुई
खिलखिला पड़ी दो बहना
फिर हँसी का क्या कहना?

जाने ऐसी क्या बात हुई
ठहाकों की बरसात हुई
दो बहनों का यूँ मिलना
लगा फूलों का खिलना।

चार दिनों का ताना बाना
खुशी-गम का आना जाना
जिंदगी आज जी ले बहना
कल का फिर क्या है कहना?
©पंकज प्रियम

Tuesday, September 25, 2018

435.सज़ा(गज़ल)

ग़ज़ल
मुहब्बत क्या खाक मजा देगा
कुछ नहीं दिल को सजा देगा।

हररोज आंखों से नींद उड़ाकर
तेरी खुशियों की बैंड बजा देगा।

चैन सुकून सबकुछ लूटा कर
एक दिन ख़ाक में मिला देगा।

नशा इस कदर छाएगा तुमपर
निगाहों से यूँ जाम पिला देगा।

लबों की खामोशी पे मत जाना
वो तो निगाहों से ही जता देगा।

कितना छुपाओगे राज अपना
तेरा हुलिया सबकुछ बता देगा।


किस पर यकीन करोगे "प्रियम"
तेरा दिल ही जब तुझे दग़ा देगा।
पंकज प्रियम

Monday, September 24, 2018

433.रणचण्डी

भयानक रस
रणचण्डी

लूटती देख बेटी की अस्मत
माँ दौड़ी बन चण्डी आई
आँखों से बरसाती शोले
ले कृपाण रण चण्डी आई।

आँख लाल,बड़ी विकराल
बनकर काल शिखण्डी आई
बांध चुनरी अपने कपाल
लेकर भाल रण चण्डी आई।

चढ़ी उछल वह छाती पर
चढ़ी शेरनी मानो हाथी पर
काटे पैर और काटे हाथ
कटकटाते दाँत,खिंचे आँत।

फाड़ी छाती,फोड़ा कपाल
पहन लिया मुण्ड का माल
रक्त रंजित हो बिखरा बाल
उछाल दिया आँखे निकाल।

काट काट हवसी की लाश
फेंक दिया कुत्तों के पास
नजर दौड़ाया आसपास
कर रही हवसी की तलाश।
©पंकज प्रियम

432.सुई धागा

बहुत फट गए अपने रिश्ते
कुछ नए कुछ पुराने रिश्ते
उन से फिर मिलना होगा
फिर उनको सिलना होगा।

आसानी से ये नहीं मिलेंगे
#सुई धागा से नहीं सिलेंगे
दिल से दिल मिलना होगा
फिर उनको सिलना होगा।

सुई का काम चुभोना है
धागे का काम पिरोना है
एक दूजे में मिलना होगा
प्रेम से सब सिलना होगा।

आओ तुम सुई बन जाओ
मुझको भी खुद में समाओ
फूलों को भी खिलना होगा
रिश्तों को भी सिलना होगा।

©पंकज प्रियम

Saturday, September 22, 2018

431.गंगा




गंगा
सुनो!गंगा ने है सबको पुकारा
क्या तुझको मन नहीं धिक्कारा
धोया है इसने हर पाप तुम्हारा
ढोया है इसने  सन्ताप तुम्हारा।
शीतल निर्मल कल कल गंगा
करते सब इसको हरपल गन्दा
कहां बहती अब अविरल धारा!
ढोकर चलती अब कचरा सारा।
स्वर्ग से उतरी बनके मोक्ष द्वार
धरा ने दिया प्यार इसे बेशुमार
सगर पुत्रों को तब जिसने तारा
आज हमने उस गंगा को मारा।
धोती रही जो सबके पाप गंगा
हो गयी मैली खुद आज गंगा
माँ बनके दिया सबको सहारा
सिमटता अब अपना किनारा।
बना लिया है अब कैसा धंधा
बोतल में बिकने लगी है गंगा
रुक गयी अब अविरल धारा
प्रदूषित हो गया है जल सारा।
करते रहोगे जो इसको गन्दा
कहीं रूठ न जाय तब गंगा
कर रही प्रकृति तुम्हें ईशारा
मिटेगा अब अस्तित्व तुम्हारा।
प्रदूषण को दूर भगाना होगा
गंगा को स्वच्छ बनाना होगा
तभी बचेगा अस्तित्व हमारा
गंगा बहेगी जो अविरल धारा।
कदम से कदम मिलाना होगा
कचरे से मुक्ति दिलाना होगा
स्वच्छ हो जब इसका किनारा
तभी बहेगी गंगा निर्मल धारा।
©पंकज भूषण पाठक"प्रियम"


Wednesday, September 19, 2018

429.मुक्तक। कलम

मैं कलम हूँ
कभी मैं शब्द सृजन करता,कभी हथियार बनता हूँ
शब्दों की सरिता का,मैं शीतल धार बनता हूँ
किसी की मौत की तारीख मुकर्रर जब कोई करता
उस फैसले के साथ,खुद मौत मैं स्वीकार करता हूँ।
✍पंकज प्रियम

428.तुम

तुम

किया है जो वादा मुझसे
बस उतना ही निभाना तुम।

कुछ और नहीं इरादा मेरा
हाथों से हाथ मिलाना तुम।

लकीरों पे नहीं रहा भरोसा
मेरी  किस्मत बनाना तुम।

कोरा कागज़ है जीवन मेरा
प्रेम की स्याही गिराना तुम।

तोड़ दूँ मैं सारे जग का घेरा
यूँ हौसला मेरा बढ़ाना तुम।

©पंकज प्रियम

Thursday, September 13, 2018

427.गणेश मुक्तक

गणेश चतुर्थी की ढेरों शुभकामनाएं

विघ्नहर्ता प्रथम पूज्य तुम,हे गजानन! अभी कहाँ हो?
अज़ब गति है तेरी विनायक,कभी यहाँ हो,कभी वहाँ हो।
हमारा तनमन तुझे ही अर्पण,कभी करा दो मुझे भी दर्शन
बरस रही है तरस के नैना,दरस दिखा दो अभी जहाँ हो।

©पंकज प्रियम

Tuesday, September 11, 2018

426.तेल मुक्तक

तेल मुक्तक
1
हुआ पेट्रोल है मंहगा,कहाँ डीजल रहा सस्ता
लगाया वैट है इतना,बचा है अब कहाँ रस्ता
किया ये खेल कैसा है,लगाया तेल कैसा है?
खुले बाजार पे छोड़ा,किया हालत यहाँ खस्ता।
2
सबमें लगाया जीएसटी,तेल को तूने छोड़ा है
कम्पनी जीभर लूट रही,खुल्ला इसको छोड़ा है
नहीं जनता से लेना है,नहीं जनता को देना है
बेचारी पीस रही जनता,इस हाल पे छोड़ा है।
©पंकज प्रियम

Monday, September 10, 2018

हिचकी। मुक्तक

हिचकी
करो ना याद तुम इतना,मुझे हिचकी सताएगी
करूँ जो याद मैं तुझको,तुझे हिचकी रुलाएगी।
हमारी हिचकियों में ही,कहीं ना जा निकल जाए
मुझे धड़कन बना लो तुम,कभी हिचकी न आएगी।
©पंकज प्रियम

Sunday, September 9, 2018

428. भाषा

भाषा निज सम्मान है,भाषा से पहचान।
भाषा हित समाज है, भाषा से अरमान।।

मातृभाषा से अपनी,करते सब हैं प्यार।
मातृभाषा बोल बड़ी,है अपना हथियार।।

हिंदी भाषा हिन्द की,अंग्रेजी को छोड़।
दिल बसा ले स्वदेशी,इससे नाता जोड़।

हिंदी भाव सहज बड़ी,मीठे इसके बोल।
भाषा सब हिंदी खड़ी,कानों में रस घोल।।

©पंकज प्रिय

Saturday, September 8, 2018

427.दोहे

दोहे

सूरज से उगते रहो,करो जगत पे राज।
कर्म डगर चलते रहो,सच्चाई की राह।।

भक्ति-डोर से है बंधा,ये सारा संसार।
जात-पात सब से परे,धरती करती प्यार।।

नफरत की ज्वाला बढ़ी,राजनीति का खेल।
सच ही लिखती लेखनी,बिगड़े उनका मेल।।

करता वो अपराध है,जो रहता है मौन।
अपना तो बस हाथ है, साथी बनता कौन ?

सब जंगल तो कट रहे,कहाँ मिलेगी छाँव?
भटक रहे हैं जानवर,कहाँ मिलेगी ठाँव ?

©पंकज प्रियम

Friday, September 7, 2018

426.मुल्क और मीत

मुल्क और मीत
***********
मितवा मुझे तो जाना होगा,
इस दिल को समझाना होगा 
अपने वतन का साथ निभाने,
अपनों का अब हाथ बंटाने. 
सरहद पे मुझे जाना होगा।
मितवा....।


मितवा अभी तुम आये हो
अंखियन ख़्वाब बसाये हो
थे आतुर तुम आने को
क्यूँ आतुर फिर जाने को?
ये बात मुझे तो बताना होगा।
मितवा तुझे क्यूँ जाना होगा. 


ये मुल्क ही मेरा मीत सजन रे 
रग-रग में बसा गीत सजन रे .
एक नया संगीत बनाने 
देशप्रेम का भाव जगाने.
सरगम सुर से सजाना होगा।
मितवा मुझे तो जाना होगा,.


हाथ की मेंहदी छूटी नहीं रे  
रात खुमारी टूटी नही रे 
भोर हुआ कब नींद जगाने 
क्यूँ आतुर हो विरहा पाने 
मुझको ये समझाना होगा
मितवा तुझे क्यूँ जाना होगा. 


सीमा पर जब चलती गोली
खेलती हमसे खून की होली
रंग ख़ुशी का उसमे मिलाने 
सबके घर एक दीप जलाने
सरहद आग जलाना होगा. 
मितवा मुझे तो जाना होगा,


कुहू -कुहू जब कोयल बोले,
कुहक-कुहक के जियरा डोले
राग मिलन की  फिर से जगाने 
आग विरह की दिल से बुझाने
सागर ज्वार उठाना होगा।
मितवा तुझे क्यूँ जाना होगा. 


सरहद पे जब जंग छिड़ी हो
दुश्मन दो-दो हाथ भिड़ी हो
वक्त नहीं कुछ समझाने को 
रिपुदल मार गिराने को 
शस्त्र मुझे ही चलाना होगा।
मितवा मुझे तो जाना होगा,


ठीक है जाओ लेकिन सुन लो,
बीज मुहब्बत कुछ तो बुन लो. 
प्यार के फूल खिलाने को 
खुद से खुद को मिलाने को 

खाओ कसम तुम मेरे सजन रे 
लौट के फिर तुम्हें आना होगा।
मितवा...
©पंकज प्रियम

426.मुक्तक, निगाहें

मुक्तक

निगाहें ख़ंजर का भी काम करती है
जिधर उठती है कत्लेआम करती है
इन आँखों की गुस्ताखियां तो देखो
दिल की बातें भी सरेआम करती है।

निगाहें मैख़ाने का भी काम करती है
मुहब्बत के पैमाने में जाम भरती है
डूबकर कभी इन आँखों में तो देखो
खुद आंखों की नींद हराम करती है।

निगाहें किताबों का भी काम करती है
कोरे पन्नों से भी इश्क़ पैगाम करती है
पढ़कर कभी देखो नैनों की तुम भाषा
दिल के जज्बातों को सलाम करती है।
©पंकज प्रियम

Tuesday, September 4, 2018

425.मुक्तक.कान्हा

मुक्तक
काल चक्र से परे हो मोहन,तुम्हीं बताओ पड़े कहाँ हो
पार्थ सारथी बने हो माधव,जहां जरूरत खड़े वहाँ हो
तुम्हें ही ढूंढे है जग ये सारा,तड़प रहा है ये दिल हमारा
अभी जरूरत तुम्हारा केशव,चले ही आओ बसे जहाँ हो।

नहीं धरा में न आसमां में,न तुम यहाँ हो ना तुम वहाँ हो
घर के अंदर सबने खोजा,तुम्हीं बताओ ना तुम कहाँ हो
नहीं पता है किसी को तेरा,अजब रचा है ये खेल तेरा
करे मुहब्बत तुम्हें जो कान्हा,यही बताओ ना तुम वहाँ हो।

©पंकज प्रियम

Monday, September 3, 2018

424. कान्हा को आना होगा

आना होगा

कान्हा तुम्हें आना होगा
यमुना को बचाना होगा
हुआ विषाक्त जल सारा
प्रदूषण को मिटाना होगा।
कान्हा...
यहाँ मचा है प्रलय बहुत
हो रहा दर्द असह्य बहुत
प्रलयंकारी इन बाढ़ों से
कश्ती पार लगाना होगा
कान्हा..
बढ़ गया अब पाप बहुत
चढ़ गया है संताप बहुत
पल पल दबती वसुधा से
पाप का बोझ हटाना होगा.
कान्हा....
सड़कों पे होता चीर हरण
अबलाओं का मान मर्दन
दुःशासन के खूनी पंजो से
द्रौपदी को बचाना होगा।
कान्हा...
कैसा छिड़ा है ये धर्मयुद्ध
सब खड़े अपनों के विरुद्ध
कर्मपथ से डिगते पार्थ को
गीता का पाठ पढ़ाना होगा
कान्हा..
घाटी में है भटका नौजवान
पत्थर खाता अपना जवान
राह से भटकते युवाओं को
सही मार्ग तो दिखाना होगा
कान्हा..
सच है युद्ध कोई पर्याय नहीं
बिन इसके कोई उपाय नहीं
पापियों से भरी रणभूमि में
अब चक्र तुम्हें उठाना होगा।

कान्हा तुम्हें तो आना होगा।
©पंकज प्रियम
3.9.2018

423.मुक्तक

मुक्तक

बदन को छू कर तेरे, पवन बेताब हो जाता
अधर को चूम कर तेरे,नशा शराब हो जाता
नहीं कोई करिश्मा है,तुम्हारा हुश्न ऐसा है
नज़र में डूबकर तेरे,इश्क़ बेहिसाब हो जाता।

©पंकज प्रियम

Saturday, September 1, 2018

422.मुक्तक

मुक्तक

सजा बाजार है देखो,यहाँ जिंदा लाशों का
बड़ा लाचार है देखो,लगा पहरा सांसों का
नहीं आज़ाद है कोई,नहीं आबाद है कोई
धरा का देवता करता,है व्यापार लाशों का।

©पंकज प्रियम