Tuesday, October 31, 2017

मर गयी संवेदना

कहां खो गयी मानवता
क्या मर गयी संवेदना?
बीच राह कराह रही
पानी पानी गुहार रही
मदद को हाथ बढ़े नही
भीड़ तमाशबीन रही।
क्या असह्य रही वेदना
क्या मर गयी तू संवेदना?
जन रक्षा की जिसपर भार रही
वो भी देखो तस्वीर उतार रही
क्या ऐसे पुलिस की दरकार रही
क्या खो गयी इसकी भी चेतना
क्या तू मर गयी संवेदना?
समाज के पहरुआ अखबार रही
जनजागरण के पत्रकार हो तुम
दर्द से तड़पता क्या जान नही
क्या तुझमे भी बचा इंसान नही
इस वक्त भी खबर की दरकार रही
क्या यही पत्रकारिता की करार रही।
दो बूंद पानी को तरसते मुंह मे
गन माइक ठुसने की क्या दरकार रही
दो बाइट लेने की जगह
दो बूंद पानी पिलाते तो
शायद जान बच जाती
तब मानवता जग जाती
संवेदना भी बच जाती।
पर हाय यहाँ तो सब तमाशबीन रही
क्या हम इतने असंवेदन
अमानव बेगैरत इंसान रहे
औरों के दुख दर्द की नही
बस अपनी जान की परवाह रही
अब तो डूब ही मरो सब
चुल्लू भर पानी की दरकार रही
मन रही दिवस राष्ट्रीय एकता
पर जीर्ण शीर्ण है अखण्डता।
क्या खो गयी सच में मानवता
क्या सच मे मर गयी संवेदना?
.................पंकज भूषण पाठक"प्रियम"
31.10.2017

Sunday, October 22, 2017

डिजिटल इंडिया। जीवन का आधार

जीवन का आधार
............................
बहुत कहते थे आधार
है जीने का अधिकार।
सच मे हुआ ये साकार
छीन तो लिया इसने
मासूम सन्तोषी के
जीवन का अधिकार।

भूख से मौत होती नही
दो जून की रोटी नही
भात भात हाहाकार
आधार ने जो किया इनकार।

हर गांव इंटरनेट नही
हर ठावँ जेनसेट नहीं
धुप्प फैला है अंधकार
सब चाहिए लिंक्ड आधार।

आदमी आदमी की पहचान नही
एक दूजे का सम्मान नही
ऑनलाइन जो मिल सके
अब तो उसे ही मानती सरकार।

अब तो डिजिटल सबकुछ
नही रहा हकीकत कुछ
मशीनें ही अब तय करती
जिन्दगी का सरोकार।

कुलीनों का हस्ताक्षर
अनपढ़ देते अंगूठा छाप
अब तो अंगूठे से तय होता
जीवन का सब आकार।

 जो न दे सके भूखे को निवाला
नई तकनीक बन जाये हाला
ऐसे सिस्टम पे लगा दो ताला
आधार प्रणाली रोक दो सरकार
ताकि फिर एक सन्तोषी का
न छीन जाय जीने का अधिकार।
.........पंकज भूषण पाठक"प्रियम"
22.10.17