Sunday, May 31, 2020

.842. तम्बाकू

○तम्बाकू
अगर जीना तुम्हे जीवन, अभी छोड़ो ये तम्बाकू,
अगर मरना तुम्हें इस क्षण, नहीं छोड़ो ये तम्बाकू।
नहीं सिगरेट, न पी बीड़ी, नहीं खाओ कभी खैनी-
जहर सब मौत के साधन, नज़र मोड़ो ये तम्बाकू।।

अभी संकल्प तुम कर लो, नहीं खाना न तम्बाकू,
अगर जीवन तुम्हें प्यारी, कभी पीना न तम्बाकू।
नहीं गुटखा , नहीं जर्दा, नहीं गांजा, नहीं कुछ भी
नशा इस रोग को घर में, कभी न लाना न तम्बाकू।।

©पंकज प्रियम

Tuesday, May 26, 2020

841. ज्वार हो

ज्वार हो
रोक सकता कौन उसको, जिस नदी में धार हो,
डूबता माझी कहाँ जब,      हाथ में पतवार हो।
बन्द कर दो रास्ते सब,   या खड़ी कर मुश्किलें-
तोड़ देगा साहिलों को,  जिस समंदर ज्वार हो।।

मोड़ सकता कौन उसको,   जो पवन रफ़्तार हो,
वो भला कब हारता जो,  खुद बना हथियार हो।
व्यूह रच लो चाह जितनी, वीर योद्धा कब रुका?
जीत लेता हर समर को, जिस हृदय यलगार हो।।

जीत सकता कौन उसको, जो स्वयं ललकार हो,
वक्त से पहले निकल कर,   जो खड़ा तैयार हो।
फेंक पाशे चाल जितनी, अब नहीं कुछ हारना-
ठान ले जो दिल प्रियम तो, स्वप्न हर साकार हो।।

अब चलो आगे बढ़ो तुम, वक्त की दरकार हो,
कौन रोकेगा तुझे अब,  तुम समय हुंकार हो।
व्यूह रचते सब रहेंगे, तुम समय के साथ चल-
छेड़ना क्या युद्ध उससे, जो गया ख़ुद हार हो।।

वो भला कब जंग जीता, जो गया मन हार हो,
हारता है हर समर जो,    देखता पथ चार हो।
शस्त्र दुश्मन देह जीता,   मन वही है जीतता-
त्यागता हर द्वेष मन से, दिल भरा जो प्यार हो।।

शब्द ही जब ढाल हो औ'  शब्द ही तलवार हो,
शब्द ही रणभूमि सजकर,    युद्ध को तैयार हो।
शब्द दुश्मन शब्द साथी, देखना यह जंग रोचक-
शब्द से खुद को बचाना,  शब्द से ही वार हो।।

©पंकज प्रियम
©पंकज प्रियम

Monday, May 25, 2020

840.बेवफ़ा

बेवफ़ा/ग़ज़ल
हम वफ़ा करते रहे तुम,     बेवफ़ा क्यूँ हो गये?
इश्क़ की पूजा अगर की, तुम ख़ुदा क्यूँ हो गये?

मानकर तुझको ख़ुदा मैं, पूजने हरदम लगा,
बाखुदा हम हो गये तुम,   नाख़ुदा क्यूँ हो गये?

इश्क़ मज़हब इश्क़ पूजा, इश्क़ ही अरदास है,
हम इबादत कर रहे थे, तुम ख़फ़ा क्यूँ हो गये?

हमसफ़र तुझको समझकर, चल पड़े थे साथ में,
मोड़पर तुम छोड़कर ख़ुद,  लापता क्यूँ हो गये?

हम भटकते ही रहे यूँ, खोजते तब दर-ब-दर ,
हम ठहर कुछ पल गये तुम, रास्ता क्यूँ हो गये?

दिल समंदर में उठा था, इश्क़ का इक ज्वार जो,
तब लहर तूफ़ान बनकर, तुम हवा क्यूँ हो गये?

हर्फ़ को बस हर्फ़ से ही, जोड़कर कहता प्रियम,
हम ग़ज़ल कहते रहे तुम, दास्ताँ क्यूँ हो गये?

©पंकज प्रियम

Sunday, May 24, 2020

839. दुर्दशा

दुर्दशा,
2122 2122 2122 212
क्या कहूँ? कैसे कहूँ अब ? कुछ नहीं लब बोलता।
देखकर गर चुप रहूँ तो,  रक्त रग में खौलता।।

क्या ख़ता इनकी भला थी, मिल रही जो है सज़ा?
बोल ईश्वर कह खुदा तू,    क्या अभी तेरी रज़ा?
देखकर यह दुर्दशा सब,    क्यूँ नहीं मुँह खोलता?
क्या कहूँ? कैसे कहूँ अब , कुछ नहीं लब बोलता।।

छिन गयी रोजी तभी तो,  चल पड़े सब गाँव को,
गर्भ को ढोकर चली माँ,  खोजती इक ठाँव को।।
राह चलते जो जनी वह,    देखकर दिल डोलता।
क्या कहूँ कैसे कहूँ अब,    कुछ नहीं लब बोलता।।

बोझ घर का माथ पर ले,   गोद में नवजात को।
रक्तरंजित चल पड़ी माँ,    नाल बांधे  गात को।।     
देख जननी दुर्दशा यह,   कौन मन को रोकता।
क्या कहूँ कैसे कहूँ अब,  कुछ नहीं लब बोलता।।

काल कोरोना बना तो,     छुप गया हर अक्स है।
मर गयी संवेदना या ,       मर गया हर शख्स है।।
खौफ़ का मंज़र दिखाकर, जान खुद की तौलता।
क्या कहूँ कैसे कहूँ अब,   कुछ नहीं लब बोलता।।

आँख पट्टी बांध ली है ,       या बना धृतराष्ट्र है।
मौन साधे भीष्म सा क्यूँ? मर रहा जब राष्ट्र है।।
रौब में सब आदमी तो,      पीड़ितों को रौंदता।
क्या कहूँ कैसे कहूँ अब,  कुछ नहीं लब बोलता।।

पेट की ख़ातिर तभी सब,  बन गये मजदूर तब।
पेट की ख़ातिर अभी तो, बन गये मजबूर अब।।
छोड़कर के अब शहर को, गाँव है वह लौटता।
क्या कहूँ कैसे लिखूँ अब, कुछ नहीं लब बोलता।।

©  पंकज भूषण पाठक प्रियम

Friday, May 22, 2020

838. दिले जज्बात

नमन साहित्योदय
दिन शुक्रवार
तिथि-22 मई
ग़ज़ल सृजन
क़ाफ़िया- आता
रदीफ़- है
बहर-1222*4

*दिले जज़्बात*
नज़र में डूबकर तेरे,  कदम जब लड़खड़ाता है,
अधर को चूम जो लेता, मुझे तब होश आता है।

नज़र के पास जब होती, बड़ा बेताब दिल होता,
चली तू दूर जब जाती, हृदय पल-पल बुलाता है।

तुम्हारी याद जब आती, मुझे बैचेन कर जाती,
तुम्हारे संग जो गुजरा, वो लम्हा याद आता है।

पवन से पूछता हरदम, बता तू हाल दिलबर का,
भला वो बिन मेरे कैसे, वहाँ हर पल बिताता है।

गगन में मेघ के जरिये, तुम्हें पाती सदा भेजूँ,
मगर पढ़के मेरे ख़त को, जलद आँसू बहाता है। 

तुम्हारा अक्स मैं अक्सर, चमकते चाँद में देखूँ,
मुहब्बत देखकर मेरी, ख़ुदा भी रश्क़ खाता है।

दिली जज़्बात जो कहता, कलम उसको ग़ज़ल कहती-
जरा देखूँ यहाँ कैसे,.........प्रियम रिश्ता निभाता है।

© पंकज भूषण पाठक प्रियम

Wednesday, May 20, 2020

837. सफ़ेद इश्क़

नमन साहित्योदय
चित्रधारित रचना
ग़ज़ल
बहरे मुतक़ारिब मुसम्मन मक़्सूर
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़अल
122 122 122 12
क़ाफ़िया- आएं
रदीफ़- सनम

नज़र से नज़र को पिलाएं सनम।
चलो उम्र को फिर घटाएं सनम,

चले तुम गये थे  कहाँ छोड़ के,
चलो दिल से दिल को मिलाएं सनम।

अभी जो मिले हो तो जी भर मिलो
गुज़र जो गया वक्त लाएं सनम।

गुजर जो गयी उम्र तो क्या हुआ?
जवां दिल चलो फिर बनाएं सनम।

समंदर  किनारे  लहर   मौज  में,
चलो वक्त कुछ तो बिताएं सनम।

पकड़   हाथ मेरा   रहो  साथ तो,
जमाने को जीवन दिखाएं सनम।

चले जो गये छोड़ तन्हा सभी,
उदासी को मिलकर घटाएं सनम।

बुढ़ापे ने घेरा मगर दिल जवां,
चलो मिल फ़साना सुनाएं सनम।

जवानी फ़क़त चार दिन की यहाँ,
मुहब्बत यूहीं मिल लुटाएं सनम।

सफ़र आखिरी में न फिसले कभी
कदम से कदम को मिलाएं सनम।

सभी को गुजरना इसी वक्त में
प्रियम को कहानी बताएं सनम।

©पंकज प्रियम

Monday, May 18, 2020

836. इश्क समन्दर

नमन साहित्योदय
दिन सोमवार
छंद सृजन-सरसी छंद गीत
मात्रा भार 16,11
प्रेम की बाज़ी

आँखों से छलकाए मदिरा,  मारे नैन कटार।
चंचल चितवन चैन चुराए, तीर चले दिल पार।

होठ गुलाबी होश उड़ाए,         गोरे-गोरे गाल।
घोर घटा घनघोर गगन से, काले-काले बाल।
ज्वार उठाती मौज रवानी, बहती नदिया धार।
चंचल चितवन चैन चुराए, तीर चले दिल पार।

चमचम चमके चंदा जैसी, जैसे पूनम रात।
चंदन चम्पा और चमेली, महके खुश्बू गात।
ख़्वाबों की मलिका सी लगती, जाती चाँद के पार।
चंचल चितवन चैन चुराए, तीर चले दिल पार।

बोझ जवानी लेकर चलती,  नागिन जैसी चाल।
देखे जो भी आशिक सारे,       हो जाते बेहाल।
नैनों से ही बातें करती, नैनों से ही वार।
चंचल चितवन चैन चुराए, तीर चले दिल पार।

सूरज लाली सर पे चमके, नैना तीर कमान।
होठ रसीले नैन नशीले, झट से लेते जान।
फूलों सी वो कोमल काया, प्रेम सुधा रसधार।
चंचल चितवन चैन चुराए, तीर चले दिल पार।

इश्क़ समंदर प्रियम लहरकर,  उमड़े दिल जज़्बात।
लफ़्ज़ मुसाफ़िर बनके फिरता, लेकर दिल सौगात।
प्रेम की बाजी जीत के ये,  जाये खुद दिल हार।
चंचल चितवन चैन चुराए,   तीर चले दिल पार।

©पंकज प्रियम
18.05.2020

Sunday, May 17, 2020

इश्क़ की आग मेरे दिल में जगाने आजा
आजा आजा मुझे सीने से लगाने आजा।

प्यार के फूल मेरे दिल में खिलाने आजा
आजा आजा मुझे खुद से मिलाने आजा।

जाम पैमाग जो आँखों से छलकता तेरा
अपने होठों से वही जाम पिलाने आजा।

इश्क़ की आग जो सीने में जला रक्खा है
इश्क़ की आग से वो आग बुझाने आजा।

प्यार का ज्वार जो साँसों ने उठा रक्खा है
अपनी मौजों से ही उसको गिराने आजा।

जवां दिल जोश में जो होश गवां बैठा है,
अपने आगोश में ले होश जगाने आजा।

जब तलक जिंदा रहा रोज रुलाया तुमने,
मेरी मैय्यत पे अभी अश्क़ बहाने आजा।

तेरी यादों का 'प्रियम' दीप सजा रखा है
अपने हाथों से वही दीप जलाने आजा।

©पंकज प्रियम

Thursday, May 14, 2020

834. कोरोना काल

कोरोना काल

यह कैसा वायरस आया है?
यह कैसा वायरस आया है?

यह कैसा वायरस आया है?
हर दिल में खौफ़ समाया है।
विकट कोरोना काल में अब
बस दिखता मौत का साया है।
यह -

चहुँ ओर मचा चीत्कार अभी,
हर ओर मचा हाहाकार अभी।
बन काल कोरोना आया है,
सब जन-जन ही घबराया है।
यह कैसा-

कल भाग रहे थे शहर की तरफ,
अब भाग रहे सब घर की तरफ।
ये दृश्य विभाजन का दुहराया है।
हाँ इस वक्त ने सबको हराया है।
यह कैसा-

शहर की ख़ातिर छोड़ा गाँव,
संकट में क्यूँ मिला न ठाँव?
जो शहर ने सबको भगाया है,
सब लौट के गाँव ही आया है।
यह कैसा-

छीन गयी रोजी-रोटी जब,
क्या करता बेचारा कोई तब।
जहाँ खून-पसीना बहाया है,
वही वक्त पे काम न आया है।
यह कैसा.

नर-नारी बच्चे-बूढ़े और जवान,
हलक में अटकी सबकी जान।
हालात में खुद को बिठाया है,
सामान सा ट्रक में समाया है।
यह कैसा-

हालात से तब मजदूर बने,
हालात से अब मजबूर बने।
जब शहर ने ठेंगा दिखाया है
घर वापस कदम बढ़ाया है।
यह कैसा--

सब भूखे पैदल चलने को,
नङ्गे पाँव चले हैं जलने को।
कोई खुद को बैल बनाया है,
कोई पत्ता चुन-चुन खाया है।

यह कैसा वायरस आया है,
हर दिल में खौफ़ समाया है।

©पंकज प्रियम

835. कोरोना से जंग

कोरोना से जंग

हम कोरोना से लड़ेंगे, हाँ मिलकर आगे बढ़ेंगे।
पाट बीमारी की खाई, चाँद पे फिर हम चढ़ेंगे।।

जेब अभी गर है खाली, होगी फिर से खुशहाली।
ईद-मुबारक और होली, हाँ रौशन होगी दीवाली।
बजेगी घर-घर शहनाई, फिर दूल्हे घोड़ी चढ़ेंगे,
हम कोरोना से लड़ेंगे, हाँ मिलकर आगे बढ़ेंगे।।

सड़कों पे नहीं कोई सन्नाटा, सरपट गाड़ी चलेगी।
बाजार में रौनक फिर होगी, सबको शांति मिलेगी।
स्कूल सभी खुल जाएंगे, सब बच्चे फिर से पढ़ेंगे।
हम कोरोना से लड़ेंगे, हाँ मिलकर आगे बढ़ेंगे।

घरों से बाहर निकलेंगे, फिर रोजी-रोटी पांएगे।
जमकर खूब कमाएंगे, मिलजुल बांट के खाएँगे।
मेहनत मजदूरी कर के इतिहास नया फिर गढ़ेंगे।
हम कोरोना से लड़ेंगे, हाँ मिलकर आगे बढ़ेंगे।।

सात सुरों की फिर सरगम, संगीत नया सुनाएंगे,
झूमेंगे और नाचेंगे, हम गीत नया फिर गाएंगे।
छोड़ के नफऱत की बातें, प्रेम की भाषा पढ़ेंगे।
हम कोरोना से लड़ेंगे, हाँ मिलकर आगे बढ़ेंगे।

कोरोना जो आया है, सबक हमें जो सिखाया है,
ताउम्र रखेंगे याद उसे, ये पाठ हमें जो पढ़ाया है।
छोड़ पुरानी यादों को, तस्वीर नई फिर मढेंगे,
हम कोरोना से लड़ेंगे, हाँ मिलकर आगे बढ़ेंगे।।

खौफ़ में जब दुनिया सारी, हमने झण्डा उठाया है,
साहित्य सृजन कर हमने जनजागरण फैलाया है।
साहित्योदय के संग मिल, जंग कोरोना की लड़ेंगे,
हम कोरोना से लड़ेंगे, हाँ मिलकर आगे बढ़ेंगे।

©पंकज प्रियम
14/05/2020

Tuesday, May 12, 2020

833.वीर जवान

मुक्तक
मात्रा भार 30
जान हथेली पे रखकर के, जो करते देश की हैं रक्षा।
सच्चे वीर सिपाही हैं वो, दिल होता इनका है सच्चा।
नहीं मौत से घबराते, नहीं किसी से हैं वो डरते,
लिपटे धरती भारत के, जैसे माँ गोदी में बच्चा।।

©पंकज प्रियम

Friday, May 8, 2020

832. धर्म का ठप्पा

धर्म

लिखूंगा अगर तो कहोगे की लिखता है,
हिंदुस्तान में क्या हमारा ही धर्म सस्ता है?

जब चाहा जैसे तुमने उसको काट लिया,
चंद वोटों की ख़ातिर सबको बांट दिया!
नफऱत के बीज तो खुद बोती है सरकार,
और कुछ लिखो तो बोल पड़े लिखता है।
हिंदुस्तान में क्या हमारा ही धर्म सस्ता है?

हर गली हर नुक्कड़ धर्म का लगा ठप्पा,
एक बेचारे को खा गया समझ गोलगप्पा!
औरों की तरह उसने भी तो नाम लिखा!
क्या केवल इसमें ही तुझे धर्म दिखता है?
हिंदुस्तान में क्या हमारा ही धर्म सस्ता है?

सेक्युलरिज्म का क्या यही होता है फंडा,
हिन्दू गर हिन्दू कह दे तुम चला दो डंडा!
फिर क्यूँ नौकरी नामांकन का हर पन्ना,
हर किसी का चीख-चीख धर्म लिखता है?
हिंदुस्तान में क्या हमारा ही धर्म सस्ता है?

माना कि गंगा-जमुनी की तहज़ीब हमारी,
फिर क्यों दिखती यह ओछी नीति तुम्हारी?
संविधान ने हर किसी को है अधिकार दिया,
सबके जैसे उसने लिखा तो घाव रिसता है?
हिंदुस्तान में क्या हमारा ही धर्म सस्ता है?

मत करो यह भेदभाव, ज़हर न ऐसे घोलो,
क्या ख़ता थी उसकी आख़िर कुछ तो बोलो!
धर्म लिखना दोष अगर है सबको तुम रोको,
क्या धर्म का केवल सेलेक्टिव रिश्ता है?
हिंदुस्तान में क्या हमारा ही धर्म सस्ता है?
©पंकज प्रियम

शर्मनाक कार्रवाई- जमशेदपुर में इस फलवाले पर सिर्फ इसलिए कार्रवाई हो गयी कि उसने दुकान का नाम हिन्दू फल दुकान रख लिया था। जबकि यह कोई अपराध नहीं। सभी लोग अपने धर्म के अनुसार दुकान और होतकों का नाम रखते हैं लेकिन कार्रवाई सिर्फ बेचारे इस पर हुई। राजनीतिक पहल के बाद प्रशासन ने हाथ पीछे कर लिया।

831. सौदाई

नमन साहित्योदय
ग़ज़ल
2122 1122 1122 22
क़ाफ़िया-आई
रदीफ़- की

खो गया था मैं कभी प्यार में हरजाई की,
मैं समझ पा न सका बात वो रुसवाई की।

वो सदा प्यार जता यार बुलाता हमको,
थाह मैं पा न सका प्यार में गहराई की।

ख़ूब लूटते वो रहे प्यार दिखा कर मुझको,
आ गया था मैं तभी बात में सौदाई की।

मैं सदा फूल बहारों से सजाया उसको,
ज़िन्दगी में वो मगर यार सदा खाई की।

इश्क़ का रोग प्रियम और सताता कितना,
होश आया तो तभी प्यार की भरपाई की।
©पंकज प्रियम

Thursday, May 7, 2020

830. अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव चः।


*अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव चः।*

गीता के इस उपदेश में बहुत बड़ा गूढ़ रहस्य छिपा है। इसका स्पस्ट अर्थ है कि मनुष्य के लिए अहिंसा परम धर्म है तो लेकिन धर्म और सत्य  पर संकट आए तो मनुष्य को शस्त्र उठाना चाहिए और धर्म  की रक्षा करनी चाहिए। यह अहिंसा से भी बड़ा धर्म है। भगवान बुद्ध हो या महावीर दोनों ने अहिंसा को ही परम धर्म माना है। यह सही भी है कि हमें हिंसा नहीं करनी चाहिए उससे केवल विनाश होता है। आजतक जितने भी युद्ध हुए उसमें सिर्फ विनाश ही हुआ है। इसमें असंख्य निर्दोषों की जान चली जाती है। हिंसा का अर्थ केवल रक्तपात या युध्द नही, प्राणिमात्र की हिंसा को अपराध माना गया है। अपनी स्वार्थ पूर्ति और जिह्वा के क्षणिक स्वाद के लिए जो बेजुबानों का कत्ल करते हैं, बलि देते हैं वह सबसे बड़ा पाप है। मनुष्य तो अपनी रक्षा के लिए संघर्ष भी करता है लेकिन एक बेजुबान जानवर जिसे बांधकर उसकी बलि दे दी जाती है वह तो प्रतिकार भी नहीं कर सकता। चूँकि वह निर्दोष बेजुबान होता है। लोग अमूमन खुद से कमजोर पर ही हिंसक होते हैं, कोई शेर, बाघ , चीता जैसे खूंखार जानवरों की बलि नहीं देते क्योंकि वे ताकतवर होते है। दुर्गा हो या काली कभी बलि नहीं मांगती ,सब उसकी संतान है तो भला एक माँ अपने बच्चों की बलि कैसे ले सकती है? यह केवल अपनी जिह्वा शांति के लिए लोग बलि चढ़ाते हैं। जिस दिन माता बलि लेने लगी लोग बलि देना छोड़ देंगे। बुद्ध ने भी बेजुबानों की बलि देखकर ही सत्य और अहिंसा का पाठ पढ़ाया यह तो बात हुई रक्तचाप और बलि की लेकिन हिंसा की श्रेणी किसी को मन, वचन और शरीर से कष्ट देना ,प्रताड़ित करने को भी हिंसा कहते हैं। बुध्द क्या हमारे वेद और पुराणों में भी प्राणिमात्र की हिंसा का विरोध किया गया है। किसी भी तरह की हिंसा का प्रतिकार हमें किसी न किसी रूप में मिलता ही है। प्रकृति के साथ कि गयी हिंसा का ही परिणाम प्रलय है।

अब आते हैं श्लोक के शेष भाग में जिसमें धर्म की रक्षा हेतु हिंसा को अहिंसा से भी बड़ा धर्म माना गया है। महाभारत में अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने यह कहा कि सत्य और धर्म की रक्षा के लिए शस्त्र उठाना ही धर्म है।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥७॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥८॥
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ४)

भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं दुष्टों के नाश और धर्म की रक्षा का सन्देश दिया है। भगवान ने अपने सभी अवतारों में धर्म और सत्य की रक्षा हेतु दुष्टों का संहार किया। आप किसी भी भगवान का रूप देख लें अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हैं लेकिन मुद्रा सदा आशीर्वाद की रहती है। यानी कि प्राणिमात्र से स्नेह और जरूरत पड़ने पर उनकी रक्षा हेतु दुष्टों का संहार।

अतः यह पूरा श्लोक ही धर्म सत्य और जीवन का मूल आधार है इसे  अधूरे में नहीं देख सकते।

©पंकज प्रियम

Wednesday, May 6, 2020

829. उसपार चलो


मध्दम-मद्घम सा सूरज,
साँझ सिन्दूरी सुरमई।
हाथों में ले हाथ सजन,
तुझमें मैं तो खो गई।

डूब रहा सूरज क्षण-क्षण,
नभ बादलों का डेरा है।
अम्बर-धरती का ये मिलन,
बस लगता तेरा-मेरा है।

सूरज की किरणों से देखो,
स्वर्णिम आभा है बिखरी।
अम्बर को आलिंगन कर के
कण-कण धरती है निखरी।

हाथों में ले हाथ सजन,
चलो चलें उसपार प्रियम।
हो सुहानी रातें और बस
प्यार-मुहब्बत का मौसम।
©पंकज प्रियम

828. गन्दी तस्वीर

कौन कहता है कि भारत में मंदी है,
कौन कहता है कोरोना तालाबंदी है।
जरा देख लो दारू की दुकानों में-
भीड़ की तस्वीर कितनी गंदी है।।
©पंकज प्रियम

Monday, May 4, 2020

827. मधुशाला

शराब

कहाँ खौफ़ है कोरोना का, देख लो जीने वालों को।
भाड़ में जाये डिस्टेंसिंग, देख लो पीने वालों को।।

नहीं फ़िकर है मरने की, ये डरता नहीं बीमारी से,
नशे की लत में डूबा ऐसा, डरा नहीं महामारी से।

कहीं लगी है लम्बी लाइन, कहीं पे धक्कामुक्की है।
नहीं रुकेगा कोरोना, अब लगती बात ये पक्की है।।

अर्थव्यवस्था बिन दारू, चलता नहीं गुजारा क्या?
दारू लेने उमड़ पड़ा जो, लगता कभी बेचारा क्या?

देख लो शासन वालो को, क्या गज़ब कर डाला है?
बन्द रखा शिवालों को, पर खोल दिया मधुशाला है।।

लॉकडाउन के पीरियड में, कैसा गड़बड़झाला है?
दवा न मिलती है लेकिन, खुल गया दर हाला है।।
©पंकज प्रियम

826. फ़लसफ़ा मिल गया

ग़ज़ल
212*4
राह चलते कभी बेवफ़ा मिल गया,
ज़िन्दगी को तभी रास्ता मिल गया।

साथ छूटा तभी आँख मेरी खुली,
प्यार का इक नया वास्ता मिल गया।

हम जफ़ा को वफ़ा जो समझते रहे,
यार हमको सही फ़लसफ़ा मिल गया।

बेवफ़ा को वफ़ा की क़दर कब हुई,
मुफ्त में जो अगर बावफ़ा मिल गया।

ज़िदंगी की हकीकत यही है प्रियम,
बाखुदा को यहाँ नाख़ुदा मिल गया।

©पंकज प्रियम

Sunday, May 3, 2020

825. मधुशाला

देख लो शासन वालों ने, क्या गज़ब कर डाला है,
बन्द रखा है शिवालों को, खोल दिया मधुशाला है।
लॉकडाउन के पीरियड में, जब सारे कैद घरों में तो
दवा न मिलती है लेकिन, खुल गया दर हाला है।।
©पंकज प्रियम

824 किरदार

क़िरदार
लिखूंगा तो कहोगे,  क्यूँ यही हरबार लिखता है,
जो दिखता है जमाने में वही अख़बार लिखता है।
फिज़ाओ में जरा देखो ज़हर किसने अभी घोला-
प्रियम यूँ ही नहीं सबका सही किरदार लिखता है।।
©पंकज प्रियम

Friday, May 1, 2020

823. देख लो

ग़ज़ल
2122 2122 2122 212
क़ाफ़िया-अल
रदीफ़ -कर देख लो

मौज सागर की हूँ मेरे सँग मचल कर देख लो,
वक्त की करवट नहीं जो तुम बदल कर देख लो।

सुरमई साँसों की सरगम इश्क़ इक संगीत है
प्यार की इस तान में तुम आज ढल कर देख लो।

है बड़ी फिसलन की राहें सोचकर रखना कदम,
इश्क की राहों मे चाहो तो फिसल कर देख लो।

आग का दरिया मुहब्बत यार सब हैं बोलते,
धार उसके डूब तुम मझधार जल कर देख लो।

डर अगर लगता तुम्हें तो छोड़ दो यह खेल तुम,
गर समझ लो प्रश्न तुम तो आज हल कर देख लो।

छू लिया है जिस्म सबने, रूह को जो छू सके,
प्रेम के तुम उस डगर में यार चल कर देख लो।

तुम रुहानी इश्क़ कर लो फिर प्रियम से बोलना,
आगे हद से प्यार मे पहले निकल कर देख लो।।

"©पंकज प्रियम