Wednesday, November 24, 2010

कैसी नादानी

कैसी नादानी ?
लाचार-वेवश सती-साध्वी रानी
शब्द हुए पुराने ,रीत हुई पुरानी।
अब तो आधुनिकता की मोडल है ये
बस चलती जहाँ इनकी मनमानी
कहते हैं समानता का युग है ये
ठीक है इन्हें अधिकार मिलना चाहिए
पर ये कैसा अधिकार ,कैसा दुरूपयोग ?
स्वच्छंद बन गयी स्वतंत्रताए
घूँघट तो उतरा कबका
साडी की जगह जींस छाये
सिगरेट -शराब बनी फैशन की निशानी
फिगर बिगड़ न जाये इसलिए
महरूम हुए बच्चे स्तनपान से
फैशन की इस दौड़ में
देखो कहीं फिसल न जाये
पति परमेश्वर का हसना बैंड हो गया
बच्चो की फिकर कहाँ
क्लब -पार्लरो से हैं दोस्ती निभानी
माडर्न बनने की है ये कैसी नादानी -
--पंकज भूषण पाठक "प्रियम "

मै ...

मै ...
बड़ा अजीब शब्द है ये मैं
कोई भी नही अछूता इससे
हर कोई बस कहता मै
धरा से गगन ,जल से पवन
बस गूंजता मै
हर जगह मै ,हर पहर मै
मानव की प्रथम कथन मैं
हर युग ,हर काल में आया मैं
विष्णु ने कहा मै
शिव ने कहा मै
कुरुक्षेत्र में कृष्ण ने भी कहा
यत्र-तत्र -सर्वत्र बस मै ही मै
इस मैं में छुपा है राज बड़ा
कभी स्वार्थ ,अहंकार कभी
कभी हूंकार ,अधिकार कभी
अर्जुन ने कहा सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर मैं
रावन ने कहा सर्वशक्तिमान मैं
इस मैं ने कितनो को उठाया
गिराया कितनो को
कह नही सकता मैं
बिल्ली की म्याऊ में मैं
बकरी की में-में में भी मैं
इस मैं के द्वंद्व जल में फंसा मैं
बता मेरे दोस्त इससे निकलू कैसे मैं --
. पंकज भूषण पाठक"प्रियम "

ग़जल --पूछ बैठे

ग़जल --
जरुरत थी उन्हें ,तो मिलते थे बार-बार
मिलने जो गये अबकी, वो काम पूछ बैठे ।
मेरे नाम के सिवा कुछ और अजीज न था
मिले जो दोस्तों के बीच, मेरा नाम पूछ बैठे ।
मेरे हर फुल को जां से अधिक करते थे प्यार
तोहफा जो दिए उनको ,तो उसका दाम पूछ बैठे ।
उनकी एक मुस्कराहट को होता मै बेक़रार
वो हैं की मेरी खुशिया ही नीलाम कर बैठे ।
उनकी जफ़ाओ पर भी था मुझे ऐतबार
वो हैं की मेरी वफाई को ही बदनाम कर बैठे ।
पंकज भूषण पाठक "प्रियम "

Saturday, November 13, 2010

झारखण्ड के १० साल : कितना विकास कितनी उम्मीदे

झारखण्ड के १० साल : कितना विकास कितनी उम्मीदे
-पंकज भूषण पाठक
झारखण्ड गठन को १० साल हो गये और १५ नवम्बर को राज्य की जनता एक और स्थापना दिवस समारोह से रुबरु होगी. लेकिन जिस उम्मीद से इस राज्य का निर्माण हुआ था क्या वो सही मायनो में पूरा हुआ ,विकास सूचकांक को देखकर तो बिकुल ही नही लगता. किसी भी क्षेत्र की बात कर तो पिछले दस वर्षो में विकास की गति जस की तस है ,नेताओ का विकास हुआ और जनता ठगी रह गयी--एक लम्बे आन्दोलन के बाद १५ नवम्बर २००० को आदिवासियो का अपना एक अलग राज्य का सपना साकार हुआ और बिहार से अलग कर झारखण्ड प्रदेश का गठन हुआ. आदिवासियो के हितो के नाम पर बने इस प्रदेश हर मुख्यमंत्री आदिवासी ही रहा लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति ये है की उनका अबतक विकास नही हो सका. पिछले १० वर्षो में राज्य की जनता ने ८ मुख्यमंत्री, उतने ही राज्यपाल को कुर्सी पर बैठते और हटते देखा है. कुर्सी की छिनाझपटी भी देखी और घोटालो का घोटाला भी. सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक विकास सूचकांक में झारखण्ड का स्थान बहुत ही नीचे है. विकास के किसी भी क्षेत्र में झारखण्ड में अपेक्षित विकास नही हुआ है- दरअसल जिन उम्मीदों पर झारखण्ड राज्य का गठन हुआ उसपर किसी भी सरकार ने अपनी इच्छाशक्ति नही दिखाई,राजनीतिक अस्थिरता भी इसकी एक बड़ी बजह मानी जा सकती है की किसी भी सरकार को बेहतर शासन करने का मौका ही नही मिला,जोड़तोड़ की सरकार अपना पूरा समय गठबंधन को बचाने में ही लगी रही और राज्य के खजाने पर हर किसी ने अपना हाथ धो लिया--इसबार भी १५ नवम्बर को भगवान बिरसा की जयंती के साथ ही राज्य की स्थापना की बधाईया ले लेंगे,सरकार कुछेक बड़ी घोषनाए भी करेंगी और जनता उनके भाषणों पर बस तालिया बजती रह जाएगी.अब भी वक्त है जागने का,पिछले १० वर्षो में राज्य का कितना विकास हुआ और जो उम्मीदे थी उसपर मंथन करने की जरुरत है..

Saturday, November 6, 2010

हंसी बिखेरता चल

हंसी बिखेरता चल
उल्फत की राह में भी
हंसी बिखेरता तू चल
शमां जैसे जलकर भी बुझता नहीं
टकरा के पत्थरों से वो थकता नहीं
तपिश में जलता है पलपल
फिर भी मुस्कुराता है गिरी अचल ।
शबनम की चाह में तरसता हरपल
बनता कवि की प्रेरणा चाँद की दीदार में
अपलक निहारता वो विकल
तुम भी बनोगे किसी शायर का गजल ।
चाँद न सही
तू चांदनी ही बनके निकल
शायरी न सही
बन जाओ एक हसीं गजल ।
होठो की हसीं न सही
तू आंसू ही बनके निकल
उल्फत की राह में भी
हसीं बिखेरता तू चल ।
-- पंकज भूषण पाठक" प्रियम "

Monday, November 1, 2010

मैं बदन बेचती हूँ--

मैं बदन बेचती हूँ--
उस औरत के तन का
कतरा-कतरा फुट बहा है
तभी तो चीख-चीख कहती
हाँ मै बदन बेचती हूँ
अपनी तपिश बुझाने को नही
पेट की भूख मिटाने को नही
मै बेचती हूँ बदन ,हां बेचती हूँ मै
भूख से बिलखते रोते -कलपते
दो नन्हे बच्चो के लिए
मैं अपनी लज्जा अपनी अस्मत बेचती हूँ
छाती से दूध क्या
लहू का एक कतरा तक
न निकला सूखे होठो के लिए
आँख के आंसू भी कम पड़े तो
इन अबोध बच्चो की खातिर
आपने सिने को गर्म सलाखों से भेदती हूँ
हाँ मै बदन बेचती हूँ
ठण्ड से ठिठुरते बदन पर
धोती का इक टुकड़ा भर
कैसे इन बच्चो को तन से चिपका रखा
देखि नही किसी ने मेरी ममता
नजर पड़ी तो बस
फटे कपड़ो से झांकते
मेरे जिस्मो बदन पर
दौड़ पड़े सब पागल कुत्तो की तरह
इनके पंजो से बचने की खातिर
हवसी नजरो से बदन ढंकने की खातिर
मै आँखों की पानी बेचती हूँ
दर्द से कराहते बच्चो की खातिर
हाँ मैं बदन बेचती हूँ
पर इन सफ़ेदपोशो के जैसे
अपने ज़मीर नही बेचती हूँ
चाँद सिक्को की खातिर
अपना ईमान नही तौलती हूँ
कोई चोरी पाप नही कोई
जहां के भूखे भेड़ों से बचने की खातिर
अपनी दौलत नीलाम करती हूँ
इन मासूम बच्चो की दो रोटी की खातिर
हाँ मै बदन बेचती हूँ
आखिर हूँ तो एक माँ
नही देख सकती बच्चो का दर्द
नही सुन सकती उनकी चीत्कार
उन्हें जीवन देने की खातिर
खुद विषपान करती हूँ
हाँ मैं बदन बेचती हूँ---
---पंकज भूषण पाठक "प्रियम "