Monday, April 30, 2018

ऐ चाँद

ऐ चाँद!

ऐ चाँद बता तेरा मज़हब क्या है?
करवाचौथ में सुहाग का सहारा
तो ईद के त्यौहार का तू ईशारा।
ऐ चाँद बता तू किसका क्या है?

तू जमीं पे होता तो विवाद होता
धर्म मज़हब में तू फँसकर रोता
कोर्ट के चक्कर में तू भी पिसता
ऐ चाँद बता तेरी चाहत क्या है?

कभी तू चकोर की चाहत बनता
तुझमें माशूक का चेहरा दिखता
कभी बच्चों का तू बनता मामा है
ऐ चाँद! बता तेरा जेंडर क्या है?

तुझपे जाने की भी बड़ी चाहत है
जमीं पे उतारने की भी हसरत है
तुझे तोड़ लाने की सजा क्या है?
ऐ चाँद! बता न तेरी रजा क्या है?

कभी तू पूनम की पूर्ण शबाब है
आशिक के दिल का तू ख़्वाब है
कभी घटना और रोज ही बढ़ना
ऐ चाँद बता तेरा हिसाब क्या है?
©पंकज प्रियम
30.4.2018

Thursday, April 26, 2018

वक्त और बारात

वक्त और बारात
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वक्त वक्त की बात होती है। कभी वक्त के साथ हम नहीं तो कभी वक्त हमारे साथ नहीं होता। जब वक्त था तब अपनी मर्जी नहीं थी,अब अपनी मर्जी के मालिक हैं तो कमबख्त वक्त ही नहीं है। आज चचेरे भाई की बारात थी और मैं चाह कर भी नहीं जा सका। बहुत इच्छा थी लेकिन जिम्मेवारियों का बोझ और वक्त की कमी के कारण अपनी इच्छा का शमन करना पड़ा। कल और परसों बड़े कार्यक्रम हैं जिसकी तैयारियों में जुटा हूँ। बारात जाने का एक अलग रोमांच होता है हालांकि उम्र के साथ उमंग थोड़ी फीकी जरूर पड़ जाती है। याद है सात साल की उम्र होगी मेरी,जीवन मे पहली बार बारात जाने का मौका तब आया था जब मेरे चाचा की बारात जा रही थी। आषाढ़ का महीना ,झमाझम बारिश और गया जाना था। मैं सज धर कर पूरे उत्साह में तैयार था। जब बारात जाने की बारी आई तो मुझे ले जाने से मना कर दिया गया। भीड़ बहुत ज्यादा थी,मैं छोटा था,बरसात का महीना और लम्बी दूरी की बारात,बहानों की लंबी फेरहिस्त मुझे पकड़ा दी गयी। कसम से इतना बुरा लगा कि पूछिये मत, दिल टूट गया,बाराती बनने का सारा अरमान मानो बारिश में धूल गया। बारात तो निकल गयी साथ मेरी ख्वाहिश भी चली गयी। मैं खड़ा रह गया,बारात जाने के बाद बहुत रोया,गला फाड़कर रोया,गांव की चाची,दादियों ने खूब सांत्वना दिया कि उनके घर जब कोई बारात जाएगी तो मुझे जरूर भेजा जाएगा। खैर बात आई गई हो गयी। बिल्ली के भाग से छीका टूटा और अगले ही साल गांव में एक और बारात जाने की तैयारी हुई। पहली बार बारात जाने का मौका मिला,उत्साह की चरम सीमा उफ़ान पर थी। नया कपड़ा,नये जूते और नया बैग लेकर वक्त से पहले गाड़ी पर बैठ गया। इस बार कोई रिस्क नहीं लेना चाह रहा था। बड़ी वीडियो कोच बस थी।सोनो के पास चुरहेत गाँव,एक नदी के पार। बस ड्राइवर ने अपने हाथ खड़े कर दी। सभी बाराती नदी में उतर कर इंतजार करने लगे। स्वच्छ धवल चाँदनी में नदी में रेत पर वक्त गुजारने का अलग रोमांच था। प्रारम्भिक स्वागत नदी तट पर ही हुआ। फिर हमलोगों के लिए ट्रेक्टर आया, उसी में मस्त गद्दा बिछाया गया और हम सब बाराती चल पड़े मंजिल की ओर। गांव में बढ़िया स्वागत हुआ। मेरे लिए पहला अनुभव था सो कोई तुलना भी नहीं कर सकते थे। भोजन की तैयारी चल रही थी कि हलवाई की कड़ाही से ऐसी लपट निकली की पूरे टेंट में आग लग गयी। चारो तरफ अफरातफरी का माहौल।मैं एकदम से डर गया। खा कर सोने गया तो किसी ने मेरा नया जूता चोरी कर लिया। बारात में जूता चोरी हो जाय इससे तकलीफदेह कुछ नहीं हो सकता। जूता चोरी होने के गम में नींद तो उचट ही गयी थी ऊपर से बगल में एक व्यक्ति जोर से खर्राटे भर रहा था। खर्राटे में मुझे और दिक्कत होने लगी। खर्राटे की भयानक आवाज से डर भी लग रहा था। बचपना था ,उस व्यक्ति को एक लात जमा दिया,कुछ देर खर्राटा बन्द हो गया। थोड़ी देर के फिर खर्र..खर्र...शुरू ,फिर एक जोरदार लात मेरी चली और आवाज बन्द। यही सिलसिला चलता रहा। आखिर मैंने ही हथियार डाल दिया और दूसरे कमरे में चला गया। जूते चोरी हो गए थे। गांव में चप्पल मिलने की भी उम्मीद नहीं थी।खाली पैर बारात का मज़ा लेता रहा। उनदिनों बारात को दोपहर का भोजन खिलाकर विदा किया जाता था। गांव में आम से लदे ढेरों पेड़ थे। सभी बारातियों ने खूब छककर आम खाया ।दोपहर बाद बारात वापस लौटी। इसके बाद गांव या रिश्ते की करीब करीब हर बारात मैंने अटेंड की। काफी खट्टे-मीठे अनुभवों से दो चार होता रहा। अब बारात का स्टाइल भी बदल गया है। अमूमन बाराती कोई जाने को जल्दी तैयार नहीं होता। अगर गया भी तो रात का भोजन कर भागने की फिराक में रहता है। लड़की वाले भी अहले सुबह ही बारात विदा करने में ही सहूलियत समझते हैं। अब न मरजाद की परम्परा रही और न ही किसी के पास दो दिनों का वक्त। अब तो लगता है कि एक ही दिन सारे रस्मोरिवाज पूर्ण हो जाय तो बेहतर है। अब तो बारात जाने का वक्त भी नहीं मिल पाता है।
©पंकज भूषण पाठक"प्रियम

लोरी:दुलारा

दुलारा

तू मेरी आँखों का तारा है रे
तू मेरा चन्दा, सितारा है रे
तू मेरे सपनों का सागर है रे
तू मेरा जीवन,सहारा है रे।

तेरे लबों पे ,हंसी यूँ रहे
दामन में तेरे,खुशी ही रहे
तेरा ये जीवन महकता रहे
बचपन सा तू चहकता रहे।

मेरी नदी का किनारा है रे
तू मेरे दिल का दुलारा है रे
भोली सी सूरत तुम्हारा है रे
सतरंगी सपना हमारा है रे

आ मेरी आँखों सजा लूं तुझे
गोदी में थोड़ा बिठा लूं तुझे
लगता कितना प्यारा है रे
तू खूबसूरत सा नजारा है रे।
©पंकज प्रियम
26.4.2018

मन बावरे

मन बावरे

जोग कैसी जगी मन बावरे
तेरे इश्क़ में डूबी हूँ साँवरे।
मनवा जपे जो श्याम नाम
परछाई दिखे तो घनश्याम।
लागी है राधा की ये लगन
कान्हा की मुरली में मगन।
राधा के नाम श्याम श्याम
राधा-प्रेम कान्हा के नाम।
ना बजाओ ये धुन साँवरे
ना पुकारो मन वो बावरे।
दिल मचल गया तो फिर
बड़ी मुश्किल होगी साँवरे।
तुझमें डूबी यमुना किनारे
मैं कब से बैठी,तेरे आसरे।
©पंकज प्रियम
26.4.2018

Wednesday, April 25, 2018

फ़साना प्यार का

फ़साना प्यार का

लिखा हमने अफ़साना इंतजार का
बन गया फिर इक फ़साना प्यार का।

उस इंतजार का भी, एक एहसास था
उम्मीद लगाए बैठा था,दिल इकरार का।

लगायी थी हमने दिल की तब बाजी
क्या खूब मजे लिए तुमने मेरे हार का।

लबों की खामोशी अश्कों में बह गए
दिल को सदमा लगा, तेरे इनकार का।

बेपनाह मुहब्बत तो तुझसे हमने किया
और मज़ाक बनाया तूने,मेरे इज़हार का।

तुम इश्क़ की दास्तां,लिखते रहे प्रियम
और उन्हें ये सब लगता रहा बेकार का।
©पंकज प्रियम
25.4.2018

मैं हूँ न माँ!





माँ!
ओ माँ!!
आँसू मत बहा
ये बहुत अनमोल हैं।
सहारा नहीं कोई
तो क्या हुआ
मैं हूँ न माँ!!

ओ माँ!
आँखों से
मोती मत गिरा
इनका बहुत ही मोल है
बनूँगा मैं सहारा
आँखों का तारा
मैं हूँ न माँ!!

ओ माँ!
कितने दुःख सहा
दुनियां तो बस गोल है
बनूँगा ध्रुव तारा
तेरा दुलारा
मैं हूँ न माँ!!

ओ माँ!
रो के मुझे न रुला
जीवन मे बहुत झोल हैं
करके कैसे गुजारा
तूने ही तो सँवारा
तू है न माँ!!
ओ माँ!
©पंकज प्रियम
25.4.2018

अस्तित्व

अस्तित्व
यहां हर कोई लड़ रहा है
अपने अस्तित्व की लड़ाई।
दुनियां में खुद को बचाने
को खुद से खुद की लड़ाई।
कोई लड़ रहा यहां दो जून
की रोटी जुटाने की लड़ाई।
कोई लड़ रहा खुद को यहां
सर्वश्रेष्ठ बनाने की लड़ाई।
जंगल मे अधिपत्य जमाने
की बब्बर शेर की लड़ाई।
तिनका तिनका जोड़कर
घोंसला बनाने की लड़ाई।
शहर में लोग करने लगे
अब खुद की खुद से बड़ाई।
नेता की वोट जुटाने की
सियासत की होती लड़ाई।
सत्ता सिंहासन के कब्जे की
राज और कुमारों की लड़ाई।
पुरुष रोज लड़ता अपने
मर्दानगी जताने की लड़ाई।
अपनी अस्मत और किस्मत
की औरत की रोज लड़ाई।
विज्ञान ने भी कह दिया इसे
सरवाइवल ऑफ एसिस्टेंस
की सब लड़ते  यहां लड़ाई
हर कोई रोज खुद से लड़ता
अपने अस्तित्व की लड़ाई।

©पंकज प्रियम
25.4.2018

अनाथ

अनाथ

बच्चे बड़े चैन से बच्चों के संग सोते है
और बूढ़े माँ बाप घरों में अकेले रोते हैं।

पालने में वो अपनी जवानी खपा देते है
बच्चे बेआबरू कर वृद्धाश्रम छोड़ आते हैं।

न हाल कभी पूछते न आँसू पोछ पाते हैं
भागदौड़ में अपने सृजन को भूल जाते हैं।

हाल जरा पूछ लो उनसे कभी फुर्सत में
जिन अभागों के पास माँ बाप नहीं होते है।

न सर पे बाप का हाथ,न माँ का ही साथ
सिसकते बचपन में ही कैसे जवाँ होते है।

खेलने कूदने की उम्र में वेवक्त बड़े होते हैं
खुले आसमान में ही कैसे अनाथ सोते है?
©पंकज प्रियम
25.4.2018

Tuesday, April 24, 2018

चलते चलते

चलते चलते


यूं ही वो मिल गए थे, चलते चलते
दिल में यूं खिल गए थे,चलते चलते।

बहुत दूर तक चले, वो साथ मगर
बीच राह में छोड़ गए, चलते चलते।

किया था उन्होंने,बहुत से वादे मगर
सीसा से यूं तोड़ गए सब,चलते चलते।

मेरी हाथों में उनका, था चेहरा मगर
नजरों को यूं ही फेर गए,चलते चलते।

उनकी मुहब्बत में ही,उम्र गुजारी मगर
मेरी जिंदगी से गुजर गए,चलते चलते।

बहुत खोजा उन्हें हर गली,हर डगर
जाने कौन सा शहर गए,चलते चलते।

जाने दो कहां दूरजाएंगे, तुमसे प्रियम
किसी मोड़ तो मिलेंगे ,वो चलते चलते।

©पंकज प्रियम
23.4.2018

वोट तन्त्र का गणित

वोटतन्त्र का गणित

वोटतन्त्र में बदला गणित है
पहले मुस्लिम,अब दलित है
जाति,धर्म,मजहब बंटवारा
राजनीति का यही चरित है।
          पहले मुस्लिम अब दलित है।
जनता से नहीं है लेना देना
मुद्दों को बस, जिंदा रखना
वोटों की बस गिनती करना
सियासत का यही गणित है।
          पहले मुस्लिम अब दलित है।
दंगे-फसाद के सब जड़ हैं
जंग जिहाद के सब गढ़ हैं
विकास की महिमामण्डित
इशारों पे ही, सब घटित है।
          पहले मुस्लिम अब दलित है।
वोटों की खातिर, बे-जमीर
नोटों में होते है बड़े अमीर
करनी कथनी में अंतर बड़ी
सेक्युलर होते तथाकथित हैं।
           पहले मुस्लिम अब दलित हैं।

©पंकज प्रियम
24.4.2018

ज़ाहिर

दिल की बात क्यूँ जाहिर तुम गैरों से करते हो
अपने जज्बात क्यूँ जाहिर औरों से करते हो।

पर्दानशीं तुम कुछ भी तो अब राज रह जाने दो
घर की बात क्यूँ जाहिर खिड़कियों से करते हो

इश्क़ के हर अल्फ़ाज़ लबों को ही कह जाने दो
मुहब्बत के राज क्यूँ जाहिर आँसुओ से करते हो।

अपनी चाहत की हर बात,लफ़्ज़ों में ढल जाने दो
इश्क़ की वो बात क्यूँ जाहिर दीवारों से करते हो।

बहुत रौशनी है जरा बादलों में चाँद छुप जाने दो
रात की हर बात क्यूँ जाहिर दोस्तों से करते हो।
©पंकज प्रियम
24.4.2018

Monday, April 23, 2018

क्यों न हो दुराचार?

क्यों न हो दुराचार
😢😢😢😢😢
हो गया रेप का अब, कानून पास
अपराध थमेगा!क्या है ये विश्वास।

अगर नहीं बदलेंगे विचार-संस्कार
क्यों नहीं होगा, फिर बलात्कार?

बात बात पे यहाँ बिकती है अस्मत
मर्द ही लिखते है नारी की किस्मत।

मां-बहन की सब देते रोज गालियां
गालियों पे यहां बजती है तालियाँ।

कहीं बाप-दादा पे सुनी है गालियां?
स्त्री अंगों पे ही क्यों पढ़ते गालियां?

कभी आंखों से, तो कभी बातो से
हर रोज शर्मसार होती है नारियां।

टीवी पर नारी देह का नित प्रदर्शन
इंटरनेट पे नग्नता खोजता बचपन।

फ़िल्मों में खूब दिखता बलात्कार
बच्चों का भी बदल रहा व्यवहार।

घर बाहर,हर डगर दिखे दुराचार
फिर भला कैसे रुके ये ब्लात्कार।

©पंकज प्रियम
23.4.2018

देखते देखते-5

देखते देखते-5
लोग कैसे बदल गए देखते देखते
क्या थे क्या हो गए,देखते देखते।

रोज यहां लोग, जीने की आस में
जहां से यूँ गुजर गए,देखते देखते।

लोग यहाँ खुशियों की तलाश में
घर से बिछड़ गए,देखते देखते।

सोशल मीडिया में खो गए इतने
समाज से कट गए,देखते देखते।

बाँटते थे खुशियां,तब परिवार में
परिवार ही बंट गए,देखते देखते।

सेल्फिश हो गए,अब लोग इतने
खुद सेल्फी हो गए,देखते देखते।

©पंकज प्रियम
23.4.2018

साज़िशों के लिए

साजिशों के लिए
हम तरसते रहे,बादलों के लिए
वो बरसते रहे,मनचलों के लिए।
आशियाने बने,बिजलियों के लिए
वो महकते रहे,तितलियों के लिए।
हम तड़पते रहे,जुगनुओं के लिए
वो चाँद बन गए,मजनुओं के लिए।
हम तो मरते रहे,अपनों के लिए
और वो मरते रहे,दुश्मनों के लिए।
हम बदनाम हुए,ख्वाहिशों के लिए
वो बदनाम हुए,साजिशों के लिए।
©पंकज प्रियम
22.4.2018

Sunday, April 22, 2018

कवि और कविता

कवि और कविता

नाम के आगे, कवि लिखने से
ऐसे कोई कवि, नहीं बन जाता है।
चन्द शब्दों की, तुकबन्दी से
लफ़्ज़ों का रवि, नहीं बन जाता है।
सिर्फ अल्फ़ाज़ों के बवंडर से
कविता का सृजन नहीं हो जाता है।
सिर्फ लफ़्ज़ों के ही समंदर से
साहित्य संवर्द्धन नहीं हो जाता है।
जब भावनाओं के समंदर से
यहां कोई गहरा ज्वार उठ जाता है।
जब दिल की गहराईयों से
यूँ ही दर्द का ग़ुबार फुट जाता है।
जमाने के दर्द को अपना के
जो खुद शब्दों में बयाँ कर जाता है।
बच्चे,बूढ़े सबकी आँखों से
आँसू बनके लफ़्ज़ों में बह जाता है।
जो औरों के दुःख दर्द में
खुद का जीवन अर्पित कर जाता है।
जाति,धर्म,मजहब से ऊपर
अन्याय के विरुद्ध कलम उठाता है।
गरीबों के जुल्म और दमन के
ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ उठाता है।
छोड़कर राग दरबारी जो
सोयी हुई सरकार को जगा जाता है।
दर्द,तकलीफ और आँसू में
जो अपनी क़लम को डुबो जाता है।
दुश्मनी की दीवारें तोड़कर
जो देशप्रेम का भाव जगा पाता है
जन की कविता जो करे
वही तो एक सच्चा कवि कहलाता है।
जले सूरज से अधिक,तभी!
जहाँ न पहुंचे रवि,कवि पहुँच जाता है।

©पंकज प्रियम
22.4.2018

धरती कहे पुकार के

धरती कहे पुकार के

धरती कहे पुकार के,करुण चीत्कार के
हे मनुपुत्रों अब रखो कदम सम्भाल के।

मानव कर्मों का मिल रहा फल प्रतिक्षण
हरपल धरती का कैसा हो रहा है क्षरण।

पृथ्वी दिवस मनाएं, पर लें अब यही प्रण
सब मिलजुलकर करें वसुधा का संरक्षण।

प्रकृति के साथ चलें हम कदम मिलाकर
नहीं बढ़ाएं हम धरती पे यूँ रोज प्रदूषण।

देख जरा कैसे धरा पल-पल कराह रही
हमसे बस पृथ्वी यही  संकल्प चाह रही।

दिया तुझको जीवन,किया है तेरा सृजन
जंगल को उजाड़ कर,न करो चीर हरण।

करोगे जो तुम मेरा, यूँ रोज दोहन अगर
मिटेगा अस्तित्व तो,तुम भी जाओगे मर।

बसा लो खूब तुम,यूँ ही कंक्रीट का शहर
घर होगा पर ,नहीं बचेगा अस्तित्व मगर।

©पंकज प्रियम

22.4.2018
Happy world earth Day

देखते देखते-4

देखते देखते-4
वो क्या से क्या हो गया,देखते देखते
दर्द से जख्म भर लिया देखते देखते।

जख़्मों को भरा था मुश्किल से हमने
कैसे फिर हरा हो गया देखते देखते।

बसाया था जिन्हें दिल में कभी हमने
कैसे वो दिल तोड़ गया देखते देखते।

लगाई थी बाजी कभी चाहत में हमने
वो खेलकर चल गया देखते देखते।

जफ़ाओं को वफ़ा समझ लिया हमने
वो बेवफ़ा निकल गया देखते देखते।

उनको बनाया था खुदा, प्रियम तुमने
कैसे हो गया तुमसे जुदा,देखते देखते।
©पंकज प्रियम
22.4.2018

Saturday, April 21, 2018

फीलिंग्स

फीलिंग्स

उन दिनों लैंडलाइन में जो फीलिंग थी
अब वो वीडियो कालिंग में भी नहीं है।

जो मजा तब खतों के इंतजार में ही था
अब वीडियो चैट वाले प्यार में भी नहीं।

लैंडलाइन की घण्टी में जो अहसास थी
कॉलर ट्यून में भी,अब वो जज़्बात नहीं।

खत लिखने का भी तब क्या अंदाज था
खत पाने का भी क्या अलग अंदाज था।

तब हवाएं ही बता देती थी उनका हाल
फेसबुक व्हाट्सएप में भी नही है कमाल।

चाँद की रौशनी से उतर आते थे दिल में
अब तन्हा रह जाते है उनकी महफ़िल में।

©पंकज प्रियम

पानी अनमोल है



पानी है अनमोल....
💧💧💦💧💧
समझो तुम इसका मोल
पानी है कितना अनमोल।

जन- वन,जीवन-सृजन
का है ये अमृत सा घोल।

कह दो सारी दुनिया को
तुम बजाके अब तो ढोल।

बूँद बूँद को तरस जाओगे
न समझोगे पानी का मोल।

जल घिरी पर प्यासी धरती
बिन पानी नहीं दुनिया गोल।

अब नहीं अगर जो तुम चेते
केपटाउन सा होगा सब होल।
©पंकज प्रियम
21.2.2018

Friday, April 20, 2018

किस राह चलूँ?

किसके साथ चलूँ?
क्या भूलूँ और मैं क्या याद करूँ
किसको छोड़ूं,किसके साथ चलूँ?

कौन अपना ,कौन पराया है यहां
किसकी मानूँ किसपे एतबार करूँ?

खबरों की भी सही खबर नही यहाँ
कौन है सच, कौन सा अखबार पढूँ?

जैसे सब बन जाते इंटलेक्यूएल यहाँ
अपने ही धर्म पे क्या मैं प्रहार करूँ?

रोज तो टूट रही है सब मर्यादा यहां
कौन सी मर्यादा का पालनहार बनूँ।

नेता,अफसर,पुलिस व पत्रकार यहाँ
कोर्ट-कचहरी, संसद सब बेकार यहाँ
औरत की इज्जत रोज तार तार यहाँ
गुंडे मवाली की अब तो सरकार यहाँ।

किसे मानूँ और किसे मैं इनकार करूँ?
किस राह को छोड़ूं और किस राह चलूँ?
©पंकज प्रियम
20.4.2018

किसका क़सूर?

कौन कसूरवार?

वो कहते की पहनावा है जिम्मेवार
लड़कियों का दिखावा है जिम्मेवार
मगर उन बच्चियों का क्या कसूर
क्यूँ होता है मासूमों का बलात्कार?

कपड़ा ही अगर होता जो कसूरवार
भड़काऊ फिगर होता जो जिम्मेदार
तो बच्चे और बुजुर्गों का नही होता
कभी भी इतनी निर्दयता से दुराचार।

पांच का बचपन या उम्र हो पचपन
उनका भी दुष्कर्म होता है हरक्षण
जेंडर का भी इसमें कोई दोष नहीं
लड़कों का भी होता यौन उत्पीड़न।

स्त्री के निजी अंगों का नहीं दोष है
वो तो नवसृजन करते निर्दोष हैं
दोष है गन्दे संस्कारों,विचारों का
घृणित मानसिकता का सब दोष है।
©पंकज प्रियम
20.4.2018

बलात्कार

बलात्कार !

बहुत हुआ मासूमों पे अत्याचार
कर लिया हमने बहुत हाहाकार
विरोध प्रदर्शन से नहीं कुछ होगा
कोशिश यही की रुके बलात्कार।

ये नहीं किसी धर्म का विषय है
ये तो केवल अधर्म का विषय है
जाति मज़हब से कुछ नहीं होगा
सामाजिक संस्कार का विषय है।

पुरातन संस्कृति में बसना होगा
संस्कारों को फिर से रचना होगा
पाश्चात्य जीवन का करके त्याग
गुरुकुल परम्परा में पढ़ना होगा।

नारी को ही तलवार बनना होगा
खुद अपना हथियार बनना होगा
वेदना,संवेदना से निकलकर उन्हें
सुरक्षा का अधिकार लेना होगा।

सियासत को दूर रखना ही होगा
समाज को ही आगे बढ़ना होगा
सबको साथ मिलकर ही इसका
ठोस उपाय,अवश्य ढूंढ़ना होगा।

घटना का हम क्यूँ करें इंतजार?
पहले ही क्यूँ न करे हम प्रहार!
दुष्कर्मी को कठोर दंड देना होगा
तभी थमेगा यहां पर ये दुराचार।

©पंकज प्रियम
20.4.2018

मेरे दिल में

मेरे दिल में

यूँ ही नहीं चर्चा होती है मेरी,हर महफ़िल में
प्रेम की अविरल धारा, बहती है मेरे दिल में।

नफरतों का बाज़ार,भले ही गर्म कर लो तुम
प्रेम की सुधा बरसती है हरपल मेरे दिल में।

दर्द देनेवालों की कमी नहीं है, इस जहां में
दर्द बांटने का हर हुनर,मौजूद है मेरे दिल में।

एक आग का दरिया समझते है लोग जिसे
वही इश्क़ का समंदर,उमड़ता है मेरे दिल में।

क्या सुनाओगे तुम मुहब्बत की दास्तां अपनी
प्रेम का पूरा ग्रन्थ ही पड़ा है यहाँ मेरे दिल में।

दर्द देकर वो भला क्या परखेंगे तुझको प्रियम
जमाने का दर्द यूँ ही, छुपा रखा है मेरे दिल में।

©पंकज प्रियम
20.4.2018

Thursday, April 19, 2018

कदम

एक कदम तुम,एक कदम हम बढ़ाएं
आओ मिलकर, हमकदम बन जाएं।
कदम दर कदम, हम यूँ ही बढ़ते जाएं
मंजिलों की राह हम आसान कर जाएं।
हमारे सुर में तुम्हारे भी सुर मिल जाएं
मिलकर हम, एक नई गीत रच जाएं।
जिंदगी में बस एक यही ख़्वाब सजाएं
हर कदम,पहले से भी बेहतर हो जाए।
गीले शिकवों को,अब तो हम मिटाएं
जीवन के कदम में, हमदम बन जाएं।
जो रुके तो, जिंदगी भी थम जाएगी
एक कदम ही सही, मगर चलते जाएं।
हौसलों के कदम, तब भी न रुक पाए
जो कभी राह में अंगार भी बिछ जाएं
©पंकज प्रियम
19.4.2018

सिक्कों की खनक

सिक्कों की खनक

जेब में सिक्कों की है भरमार
लेकिन फिर भी हैं बड़े लाचार
इन सिक्कों की कोई पूछ नहीं
हो गए हैं अब तो ये सब बेकार।

रुपयों की घट गई है अब कीमत
सिक्कों की नहीं, अब अहमियत
जो खनकते थे जेबों में हरदम
मिट गई अब, उनकी शख्सियत।

एक दो पैसे की, बात हुई पुरानी
रुपयों की भी बात हुई है बेमानी
बैंक में पैसा पर, जेब है निठल्ला
कैशलैस एटीएम की बनी कहानी।

कहते थे कभी की पैसा बोलता है
खनक सुनकर ही ईमान डोलता है
कोने में सिसकता पड़ा है सिक्का
नोट की किल्लत से खून खौलता है।
©पंकज प्रियम
18.4.2018

शर्मसार

शर्मसार

कैसे करें अब यहाँ जयजयकार
रोज होता मासूमों का बलात्कार
जाति मजहब की होती सियासत
देख मानवता भी हुई है शर्मसार।

कैसी ये आग लगी,कैसी है अंगार
फिजाओं में मची है कैसी हाहाकार
फूलों को तोड़कर फेंक दिया सबने
कलियों को भी मसल रहे बारम्बार।

सत्ता कुर्सी सियासत सब हैं मक्कार
धर्म का चश्मा चढ़ाए,उसे धिक्कार
सिर्फ सियासी रोटी सेंका है सबने
हो हल्ले में दबी मासूम की चीत्कार।

©पंकज प्रियम
18.4.2018

बैशाख

बैशाख

विष्णु माधव प्रिय मास है
नये प्रकृति का एहसास है।
बैसाखी सम्पन्नता की खुशी
मनाने का पर्व ये खास है।

नर-नारायण का अवतरण
अक्षय तृतीया प्रकृत वरण
नव पल्लव से वृक्ष हैं सजे
गुलमोहर से खिला आँगन।

गंगा का जाह्नवी से मिलन
उष्णता में होता जलार्पण
परशुराम, बुद्ध और सीता
का हुआ धरा में अवतरण।

प्रकृति-पर्व मिलन खास है
नवसृजन का ये एहसास है
फल फूलों से लदा शाख है
मौसम परिवर्तन बैशाख है।
©पंकज प्रियम
19.4.2018

Tuesday, April 17, 2018

और न करो बलात्कार!


शुक्रिया !बहुत मचाई हाहाकार
अब और न करो मेरा बलात्कार
मेरे नाम पर चिल्लाते टीवी सारे
तस्वीरों से भरा है पूरा अख़बार।
अब न करो....
फ़ेसबुक,ट्विटर और व्हाट्सप
बस इसमे चलता मेरा ही गपसप
प्रदर्शनों में उछला नाम बारम्बार
खूब गरम है मीडिया का बाज़ार।
अब न करो...
मत पूछो,कितना होता दर्द मुझे
जब मेरी कहानी कहते बारबार
एहसास नहीं है मेरे दर्द का तुझे
सवालों से मां-बाबा होते दो-चार।
अब न करो.....
बहुत हो चुका धर्म का बंटाधार
जाति मजहब की जयजयकार
मौत पे खूब सियासी रोटी सेंकी
खूब बढ़ा लिया तुमने जनाधार।
अब न करो.....
नहीं चाहिए मुझे भीख का चन्दा
नहीं चाहिए झूठे नेताओं की निंदा
अब बस मुझे यही न्याय स्वीकार
दुष्कर्म मुक्त हो जाये धरा इसबार।
अब न करो....
©पंकज प्रियम
17.4.2018

गैंगरेप

"गैंगरेप:धर्म का दुष्कर्म", को प्रतिलिपि पर पढ़ें : http://hindi.pratilipi.com/story/%E0%A4%97%E0%A5%88%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%AA-TcbRcF1RfVsG?utm_source=android&utm_campaign=content_share भारतीय भाषाओँ में अनगिनत रचनाएं पढ़ें, लिखें और दोस्तों से साझा करें, पूर्णत: नि:शुल्क

गन्दी सियासत

गंदी सियासत

मत करो,इतनी गंदी सियासत
बीती है ,उसपे कैसी कयामत?
दर्द नहीं उसका, समझ पाओगे
बस धर्म का मुलम्मा चढ़ाओगे।

तुमने तो बस देखा हिन्दू उसमें
मासूम ने देखा उसमें,शैतान था
तुमने खोजा धर्म मुस्लिम उसमें
बच्ची में बसा सारा हिंदुस्तान था।

रोज यहां एक अशिफ़ा मरती है
रोज ही निर्भया यहाँ पर डरती है
जात नही,कोई धर्म नहीं इसमें
यहां हररोज नारी जिस्म कटती है।

धर्मों में बंट गई,अब यहाँ वेदना है
शर्मसार मानवता,मरी संवेदना है
हवसी नजरें,मासूमियत खा गई
धर्म को देख,लौटती यहां चेतना है।

©पंकज प्रियम
17.4.2018

Monday, April 16, 2018

उठो द्रौपदी!


   

उठो द्रौपदी!सम्भालो वस्त्र
छोड़ो लज्जा,उठाओ शस्त्र
अब नहीं यहां माधव आएंगे
ना तुम्हें कोई अर्जुन बचाएंगे।

घरघर शकुनि द्युति बिछाए
हर डगर पर दुःशासन बैठा है
पुत्र मोह में आंखों को मूंदे
हर घर में धृतराष्ट्र चुप बैठा है।

हर युग की तेरी यही कहानी
आँचल में दूध,आंखों में पानी
उतारो मेंहदी,उठाओ खड्ग
बन जाओ अब झांसी की रानी।

रावण की कैद में होकर भी
सीता तो फिर भी सुरक्षित थी
न तो हनुमान लंका जलाएंगे
अब ना ही राम बचाने आएंगे।

अपने अंदर हनुमान जगाना है
दुष्कर्मियो की लंका जलाना है
बेटी की अस्मत की खातिर
खुद ही हथियार तुम्हे उठाना है।

छोड़ो ममत्व,उठाओ तलवार
हर दुष्कर्मी पे, करो तुम वार
बचा लो खुद अपनी इज्जत
बनो भवानी!तुम करो संहार।


©पंकज प्रियम
16.4.2018

चुप क्यूँ संविधान है?



यह कैसा हमारा विधान है
चुप रहता क्यों संविधान है?
छेड़छाड़ कितने हुए इसमें
हर मर्ज की सत्ता निदान है।

अपने हिसाब से सब पढ़ते हैं
अपने मिज़ाज से इसे गढ़ते हैं
खुद पे खुद सब जुल्म करके
दोष धर्म-जात पे सब मढ़ते है।

चोर उचक्का, चक्की पिसता
हत्यारा,दुष्कर्मी बच जाता है।
इंसाफ में कोई चप्पल घिसता,
आतंकी को कोर्ट बचा जाता है।

इतनी यहां की लचर व्यवस्था
हुई है कैसी देश की व्यवस्था
गरीब किसान यहां फंदे झूले
नेता हवाई मौज मस्ती करता।

कोढ़ बन चुका अब आरक्षण
नित करता प्रतिभा का हनन
भीख माँगते सामान्य गरीब
सम्पन्नों को  मिलता संरक्षण।

©पंकज प्रियम
14.4.2018

रश्क़-ए-कमल



आज सारा झील यूँ मुस्काया है
रश्क़-ए-कमल खिल आया है।
तूने छू लिया ऐसे की लगा जैसे
कमल से पंकज मिल आया है।

झुकी झुकी सी ये तेरी निगाहें
उफ़्फ़! ये तेरी कातिल अदाएं
जल में उतरी या उससे निकली
जलपरी सी है तू हुश्न बिखराए।

माथे पे बिंदी,तेरे होठों की लाली
नागिन सी जुल्फें है काली काली
तेरे भीगे बदन की बिखरी खुशबू
लाजवाब तू,तेरी मुस्कान निराली।

किस सुघड़ हाथों की बनी मूरत
कितनी भोली सी तेरी है ये सूरत
देख मदहोशी का आलम है ऐसा
झील को भी पड़ी है तेरी जरूरत।

©पंकज प्रियम
14.4.2018

बचपन के किस्से

बचपन के किस्से

हवा के संग सरसराते ,हरे पत्तों ने यूँ गीत गाए
जो गुजरे थे बचपन के लम्हें वो लौट के आये।
गुजरती उम्र दरख़्तों के,कहती सारी फिजाएं
बुलाती मुझे लेने आगोश में,वो यूँ बाहें फैलाये।

महुआ के मदहोश करते, फूल मद्धम से गुच्छे
आम के पेड़ से लटकते, टिकोले आम  कच्चे
ये जामुन के पेड़ पर, जो हमने बचपन गुजारे
कितने हसीं थे वो पलछिन, बचपन के अच्छे।

शहर की चकाचौंध से कभी जो यूँ निकल के
बड़ा सुकून मिलता है,हरबार इनसे यूँ मिलके
जर्रे जर्रे में जिंदा है,मेरे बचपन के सारे किस्से
डुब्बा ने भी जता दी खुशी,फिजां में खिल के।

इन्ही हवाओं ने था कभी,मेरा अरमान छेड़ा
इन्ही फिजाओं में था मैंने यूँ अल्फ़ाज़ छेड़ा
अल्फ़ाज़ों के सफ़र में इस कदर जा निकला
लफ़्ज़ों ने मुझको,कभी शब्दों को हमने छेड़ा।

©पंकज प्रियम
@डुब्बा,बसखारो, गिरिडीह

मांस का टुकड़ा

मांस का टुकड़ा

मां!
तूने क्यूँ?
मुझे जन्मा?
छोड़ देती
कोख में ही
मुझे अजन्मा!
तब तो  सिर्फ थी
एक मांस का टुकड़ा
नहीं होता न मुझे दर्द इतना
न कटता तेरे जिगर का टुकड़ा।
मेरे संग तुझे भी दर्द हुआ कितना
संग संग रोई पूरी दुनियां।
ठीक ही तो तब
कह रहे थे लोग- बाग
बेटी है,करा लो गर्भपात
क्या करेगी बेटी को जन्मा?
जन्मते ही सुना तुमने ताना।
पल पल बढ़ती बेटी
के संग संग बढ़ती चिन्ता।
देर सबेर घर बाहर होती चिन्ता।
अभी तो लड़की पूरी तरह
बनी भी नहीं,बच्ची ही तो हूँ मैं!
फिर भी क्यूँ लोग मुझे यूँ देखता?
सहज बालमन
नहीं दुनिया की समझ
अंकल ही तो कहती थी उसे
एक चॉकलेट देकर मुझे खा गया
मत पूछ मां
कुत्तों से सबने नोचा कैसा
कहां? कहां?कितना दर्द हुआ!
क्या मिल गया उन्हें?
नोचकर मुझे,कितना दर्द हुआ
क्या मैं ?
एक मांस का थी टुकड़ा?
फाड़ डाले तन, क्या थी कपड़ा!
मैं मर जाती
तेरी कोख में ही ,ओ मां!
देखती तो नही वीभत्स दुनियां।
तुझे भी तो नहीं रहती मेरी चिंता।
मेरी बढ़ाई, मेरी पढ़ाई,
और फिर मेरी शादी की चिंता।
बोझ तो नहीं समझी जाती
मार देती मां
कोख में ही तो होता अच्छा!
किसे,किसपे ?करती भरोसा
सब की नजर होती, मेरे जिस्मों पर
लोग तंज कसते हैं मेरे वस्त्रों पर
पांच वर्ष में कैसे पहनूं साड़ी मां?
तू तो पहनती है न साड़ी मां!
तब भी सबने ,तेरा भी तन ही देखा
जब पल्लू से ढंक ,तूने पिलाई ममता।
क्या करूंगी मैं ?
बनकर किसी की माता।
मुझे भी तो होगी तब ,
मेरी बेटी की हरपल चिंता।
नहीं बनना बीबी,
नहीं बनना मुझे मां।
सच में
मां!
©पंकज प्रियम
16.4.2018

Sunday, April 15, 2018

आदमखोर

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आदमखोर

अब नहीं रहा जंगल घनघोर
शहर में आ गए आदमखोर।

जंगलवाले खून के प्यासे थे
शहरवाले हैं जिंदा मांसखोर।

वो आदमी मारकर  खाते थे
अब औरत के हैं जिस्मखोर।

ये खाते नहीं हैं, मांस मगर
मांसल अंगों को देते निचोड़

उन मांसल अंगों को नोचते
क्षत-विक्षत कर देते हैं छोड़।

रोज नजरों से होती घायल
जाए औरत चाहे जिस ओर।

"जिन अंगों से जीवन पाला
जिन अंगों से जीवन ढाला
वही बने हैं दुःख के कारण
वही बनी औरत तन हाला।"

जंगल-शहर में अंतर इतना
वो खुले,यहाँ छुपे आदमखोर।

वो क्षुधा तृप्ति को खाते थे
ये हवस पूर्ति के आदमखोर।

जंगलों में ही तब वो रहते थे
ये तो शरीफों में छुपे हरओर।
©पंकज प्रियम
15.4.2018

Friday, April 13, 2018

नारी जीवन

नारी जीवन
हर युग में हुआ है चीर हरण
नारी अस्मत लूटती हर क्षण
कभी अहिल्या,कभी द्रौपदी
मां सीता का भी हुआ हरण।

लेकिन तब की बात और थी
स्थिति आज से भी बेहतर थी
रावण की कैद में रहकर भी
माता सीता तब सुरक्षित थी।

आज तो अपने ही घर नारी
रोज ही असुरक्षित है बेचारी
बहसी दरिन्दों की नजऱ से
छुपती है किस्मत की मारी।

किस किस से बचती रहेगी?
किस किस से छुपती रहेगी?
गैरों की क्या?अपनों का
भी दंश कैसे सहती रहेगी?

दर्द आँसू,तनमन समर्पण
रोज करती खुशियां तर्पण
खुद मरती कर नव सृजन
जिंदगी कठिन नारी जीवन।

©पंकज प्रियम
13.4.2018

पाप

पाप
बहसी दरिंदे हर जगह होते है
नजरों में बस हवस भरे होते हैं।

क्या मन्दिर और क्या मस्जिद
खुदा ईश्वर भी क्या नहीं रोते हैं!

मन्दिर,मस्जिद,चर्च,गुरुद्वारा
जाकर अपना पाप सब धोते हैं।

बदनाम सिर्फ क्यों धर्म संस्थान
ये पाप घर स्कूल में रोज होते हैं।

हो गया है रिश्ता कलंकित इतना
कई तो बाप भी बेटी संग सोते हैं।

गुरु शिष्य का अब सम्मान कहां
स्कूलों में रोज ही हादसे होते हैं।

इसमें सियासत का चलता सिक्का
एक पे हल्ला,एक पे मौन रहते हैं।

ये अधर्म! नही है धर्म विशेष का
हर मज़हब में सब ये पाप ढोते हैं।

डूब मरो! सियासत करने वालों
तेरे ही कारण यहां हुई सब मौतें है।

©पंकज प्रियम
13.4.2018

जलियांवाला बाग की दीवारें कुछ कहती है।


बीत गए सौ साल मगर उस मंज़र की आग धधकती है।जलियांवाला बाग में वतन की खुशबू आज महकती है।

जुल्म की दास्तां गहरी इतनी,अब भी दीवारें सब कहती है। ब्रिटिश हुकूमत की फ़ितरत,अब भी सियासत में बसती है।

दमनकारी नीतियों के ही विरुद्ध तो भीड़ उमड़के आई थी। किस निर्दयता से निहत्थों पर तुमने गोलियां चलवाई थी।

क्या हिन्दू,क्या मुस्लिम,सबने तब मिलकर गोली खायी थी, वतन पे मर मिटने की,हर दिल ने मिलकर कसमें खायी थी।

आज़ादी के मतवालों की चिताएं आज भी दिल में जलती है। 
जालियांवाला बाग की दीवारों में, शहादती लहू ही बहती है।©पंकज प्रियम

जलियांवाला बाग की 101 वीं बरसी पर नमन है वतन पे मर मिटने वालों को। 13 अप्रैल 1919