Saturday, March 31, 2018

ग़ज़ल/ लफ्ज़ो की बाज़ीगरी

ग़ज़ल/ लफ्ज़ो की बाज़ीगरी

दिल में दस्तक देकर,जाने तुम किधर गए
मेरी आँखें ठहरी वहीं,जाने तुम जिधर गए।

तुझसे मिलने की ,ख्वाहिश में निकले मगर
मेरे कदम तेरे दर पर,पहुँच कर भी ठहर गए।

पहले था मुझे तेरे,इरादों का एहसास मगर
तेरे नाम,काम,हर दिन सुबहो शाम कर गए

मेरी हर सांस का तुझको है एहसास मगर
दिल तोड़ दिया, क्या आंखों से भी उतर गए?

दिल की लगाई हमने यूँ बहुत बाजी मगर
तेरी मुहब्बत के खेल में हम यूँ हीं बिखर गए

अपने जज्बातों को समेटा प्रियम बहुत मगर
की लफ़्ज़ों की बाज़ीगरी तो यूँ ही निखर गए।
----/©पंकज प्रियम
31.3.2018

मेरा नाम,मेरी पहचान

मेरा नाम,मेरी पहचान

दिल मेरा धड़कन बने किसी का तो बेहतर
सांसों का क्या है?
वो तो मेरे साथ ही,टूटकर बिखर जाएगी।
नाम मेरा,मेरी पहचान बने तो ही बेहतर
दौलत का क्या है?
वो तो मेरे साथ,कब्र तक भी नही जाएगी।
ये दौलत,ये शोहरत
ये जवानी खूबसूरत
साथ कोई नही, सब धरी यहीं रह जाएगी।
जीवन का हरपल यूँ
बचपन से जी लो
सारी दौलत भी तब, यूँ ही पड़ी रह जाएगी।
काम मेरा पहचान बने तो ही बेहतर
शोहरत का क्या है?
वो तो मेरे साथ ही यहीं पे बिसर जाएगी।
©पंकज प्रियम
            सुप्रभातम

Friday, March 30, 2018

कणकण में प्रीत है



कणकण में प्रीत है
*******************
हर कदम पे ,जहां नृत्य है
हर शब्द में,जहाँ पे गीत है
हवाओं में बहता जहाँ प्रीत है।
प्राकृतिक छटा से भरपूर
खनिज व संपदा से प्रचुर
फिजाओं में बजता संगीत है।
जंगल-पहाड़, नदी- नाला
यहां का कणकण निराला
औरों की खुशी में, यहां जीत है।
धरती आबा बिरसा भूमि
सिद्धो-कान्हो जन्म भूमि
जान से बड़,जंगल जमीन रीत है।
चहुँ ओर हरियाली चादर
माटी-मटकी सोना गागर।
बुतरू लटकाए,औरत की पीठ है।
कदम कदम,मीठी बोली
आदिवासी ,जनमन भोली
कभी सरस् सरल, कभी ढीठ है।
पार्श्वनाथ गगन चुम्बी
देवलोक देवघर भूमि
प्रकृति देव् समर्पण यहां नीत है
झारखंड के कणकण में प्रीत है।
©✍पंकज प्रियम
30.3.2018

Thursday, March 29, 2018

पहचान

पहचान
लफ्ज़ मेरी पहचान बने तो ही बेहतर
चेहरे का क्या है?
वो तो मेरे साथ ही गुजर जाएगा।

शब्द मेरा सम्मान बने तो ही बेहतर
बोल का क्या है?
वो तो मेरे साथ ही चुप हो जाएगा।

अक्स मेरी निशान बने तो ही बेहतर
शरीर का क्या है?
वो तो मेरे साथ ही नश्वर हो जाएगा।

नाम मेरा इतिहास बने तो ही बेहतर
काम का क्या है?
वो तो मेरे साथ ही शिथिल हो जाएगा।

मेरा आँखे रौशनी बने तो ही बेहतर
ख्वाबों का क्या है?
वो तो मेरे साथ ही यूँ बिखर जाएगा।
-पंकज प्रियम
29.3.2018

राम के नाम

जय श्री राम,जय श्री राम
देखो लेकर सब तेरा नाम
कर रहे हैं तुझको बदनाम।
जय श्री राम....
बिहार में मचा है बवाल
हिंसा से जला है बंगाल
हरवे हथियार पर संग्राम
जय श्री राम....
सब वोट तन्त्र का राग है
हर तरफ लगी ये आग है
करते नाम, तेरा बदनाम
जय श्री राम.....

आओ अब तो, देखो राम
ले लेकर सबने, तेरा नाम
साधा सबने, अपना काम
जय श्री राम..
राम का नाम, जपते जपते
मन्दिर-मन्दिर,भजते भजते
पंहुचा सब तो कुर्सी धाम।
जय श्री राम...
बन गए हो ,चुनावी मुद्दा तुम
फिर आके देखो, धरती तुम
कुर्सी बिक रहा है, तेरे नाम
जय श्री राम..
कहते राम नाम,ही सत्य है
नेता क्यूँ कहते,यूँ असत्य हैं
लुटे हैं जनता,को शरेआम
जयश्री राम..
कोर्ट का अब तुम ,मैटर हो
बिना पता ,लिखा लेटर हो
लिफाफे में नही,कोई नाम।
जय श्री राम...
फिर नही,फैसला आएगा
क्योंकि चुनाव,आ जाएगा।
लम्बा मुकदमा तेरे ही नाम
जय श्री राम...
©पंकज प्रियम
28.3.18

ऐब

ऐब!

बहुत ऐब है,दुनिया में
कब,कहां ,किसको देखूं
किस, किसको छोडूं मैं?

बहुत फरेब है दुनिया में
किसपे भरोसा करूँ
किसको दुश्मन कहूँ मैं?

बहुत लोग हैं,दुनिया मे
दिल के जज्बात लिखूँ
या लोगों की बात सुनूँ मैं?

बहुत ऐब है, खुद में
 पहले स्वयं सुधारूं
या दुनिया को बदलूँ मैं?
...पंकज प्रियम
28.3.2018

रंग बदलते इंसान

रंग बदलते इंसान

**रंग बदलते इंसान देखिए
***********************
मन्दिरों में मुफ्त मिलते,भगवान देखिए
अपने ही घरों में बिकते,इंसान देखिए।

भगवान बनने की, ख्वाइश लिए होते
यहाँ आदमी को बनते शैतान देखिए।

इंसाफ की ऊंची कुर्सी में,बैठे लोगों का
चंद सिक्कों में ही डोलते,ईमान देखिए।

मंहगाई तो मुफ्त ही,बदनाम है यहाँ तो
रोटी से बहुत सस्ती ,यहाँ जान देखिए।

बारिश को तरसते,बादल पे ही बरसते
जँगल को काटकर बनते,मकान देखिए।

अनाज की किल्लत पे, कैसे सब रोते
खेतों को पाटकर उगते,दूकान देखिए।

कर्ज लेकर कोई, देश छोड़कर जाते
कर्ज में फाँसी लटकते,किसान देखिए।

मौसम तो बस यूँ हीं, बदनाम है प्रियम
गिरगिट से रंग बदलते,इंसान देखिए।
©पंकज प्रियम
29.3.2018

Tuesday, March 27, 2018

रात की तन्हाई में

चाँद तो सोया है,रात की गहराई में
कैसे तुम सोओगे,रात की तन्हाई में।

दिन तो गुजार ली है,भीड़ में तुमने
कैसे तुम गुजारोगे,रात यूँ तन्हाई में।

जो लम्हे गुजारे, एक साथ हमने
कैसे भुलाओगे ,रात की तन्हाई में।

जो लिख दिया है,दिल में नाम हमने
कैसे मिटा पाओगे,दिल की गहराई में

कैसे कह दूं? किस कदर सहा हमने
कैसे गुजारी रात तब तेरी शहनाई में।

लगायी है मेंहदी,किसी और कि तुमने
कैसे मिटाओगे मेरा वो रंग, बेवफाई में।

फेंक दी है भले मेरी तस्वीर को तुमने
मेरा ही अक्स दिखेगा,रात रौशनाई में 

मेरे ही नाम दिखेंगे,इतिहास के पन्ने
जब भी पढोगे,तुम रात की तन्हाई में।

गहरी चोट खाई है, मुहब्बत में हमने
कैसे सहोगे मेरा दर्द,रात की तन्हाई में

इश्क़ की दास्ताँ,यूँ लिखी "प्रियम"तुमने
वो रो पड़े खुद पढ़ के,रात की तन्हाई में।

---पंकज प्रियम

27.3.2018

तन्हाई

संग धारा बहने से मंजिल नहीं मिलती
तन्हाई में कभी महफ़िल नहीं मिलती।
पाना हो गर मंजिल तो विपरीत चलो
तन्हाइयों से निकल करता प्रीत चलो।
धारा तो अपने संग बहा ले जाती है
खुद की भी अस्मत लूटा ले जाती है।
औरों की खातिर तुम सूरज सा जलो
तन्हाई में भी कभी न तन्हा तुम चलो।
मुफलिसी में भी तुम मुस्कुराते चलो
भीड़ में भी गुमनाम,पहचान न भूलो।
फूल ही नहीं कांटो में भी चल पाता है
दर्द आँसू पीकर भी जो मुस्कुराता है।
भीड़ में भी अलग पहचान रखता है
दुनिया उसका ही तो सम्मान करता है।
        -पंकज प्रियम

Sunday, March 25, 2018

प्रेम गीत

प्रेम गीत

किसी के होश,उड़ जाएंगे
इस कदर न मुस्कुराओ।
किसी के कदम बहक जाएंगे
इस कदर न बहकाओ।
किसी के होश....

नशीले नैनों से जाम गिर जाएंगे
इस कदर न छलकाओ।
नजरों से घायल सब हो जाएंगे
ऐसे न तुम तीर चलाओ।
किसी के होश....

परवाने सब यूँ ही, तो जल जाएंगे
इस कदर न यौवन दिखाओ।
बिन बादल ही पानी बरस जाएंगे
इस कदर न जुल्फ लहराओ।
किसी के होश.....

आहें भर भर के,दीवाने मर जाएंगे
इस दिल पे ,थोड़ा रहम खाओ।
निगाहें भर भर के,यूँ कहर ढाएंगे
प्रियम, प्रियतम तुम बन जाओ।

किसी के होश ,उड़ जाएंगे
इस कदर न मुस्कुराओ।
#प्रेमांजली
©पंकज प्रियम

बेटी मेरा अभिमान

मेरी बेटी मेरा अभिमान
*******************
चला है ये अभियान बहुत
मेरी बेटी मेरा,अभिमान बहुत
महज नारा न इसे, बन जाने दो
बेटी होती है अनमोल बहुत
धरती पे उन्हें तो, ढल जाने दो।
अपनी कोख बेटी, पल जाने दो।

कर दी कोख,कब्रिस्तान बहुत
बनाया है गर्भ ,श्मशान बहुत
पेट में अब नई,पौध उग जाने दो ।
करते रोज ही भ्रूण हत्या बहुत
घृणित सोच,अब जल जाने दो।
अपनी कोख बेटी, पल जाने दो।

खुल गए हैं,दूकान बहुत
करते लिंग पहचान बहुत
शटर इनके अब तो,गिर जाने दो।
मिल जाएंगे ,सम्मान बहुत
घर के आँगन,कली खिल जाने दो।
अपनी कोख बेटी, को पल जाने दो

घट गए है,अनुपात बहुत
हो रहे अब,उत्पात बहुत
आधी आबादी, नही घट जाने दो
मिल जाएंगे तब ,हाथ बहुत
बेटा-बेटी का, भेद मिट जाने दो।
अपनी कोख बेटी, को पल जाने दो।

बेटी देती, सम्मान बहुत
बेटी होती,अभिमान बहुत
अब तो अभियान,बढ़ जाने दो
करेगी जीवन,निर्माण बहुत
बेटी को स्वाभिमान,बन जाने दो।
अपनी कोख बेटी, को पल जाने दो
**पंकज प्रियम
24.3.2018

ग़ज़ल,


ग़ज़ल

भले छीन लो,तुम आज मेरा
कल होगा मेरा, सिर्फ मेरा!

भले तोड़ दो,तुम ख़्वाब मेरा
वक्त भी करेगा,हिसाब तेरा!

मिटा दो ,लिख के नाम मेरा,
तारीख लिखेगा,इतिहास मेरा।

रहेगा अपना, यूँ खूब जलवा
कयामत तक, बेहिसाब मेरा।

भले चुरा लो,तुम नींद मेरी
चिलमन गढ़ेगा,ख़्वाब मेरा।

भले तोड़ लो,सारा फूल मेरा
लफ़्ज़ों में महकेगा,गुलाब मेरा।

भले छीन लो,तुम जमीन मेरी
होगा पूरा खुला,आसमान मेरा।

भले छीन लो,तुम सम्मान मेरा
हमेशा रहेगा,स्वाभिमान मेरा। 

वक्त पे जोर, है किसका प्रियम?
आज जो तेरा,कल होगा मेरा
#प्रियम
©पंकज प्रियम
24.3.18

Friday, March 23, 2018

प्रियम हूँ मैं..

प्रियम हूँ मैं..

मुसाफ़िर,अल्फ़ाज़ों का
खुद से बंधा नियम हूँ मैं।
लफ़्ज़ समंदर,लहराता
शब्दों से सधा,स्वयं हूँ मैं।
संस्कृति,संस्कारों का
खुद से गढ़ा,नियम हूँ मैं।
साहित्य सृजन,सरिता
प्रेम-पथिक,"प्रियम" हूँ मैं।
कमल का फूल खिलता
पाठक पंकज भूषण हूँ मैं।
औरों में,खुशी बिखेरता
कवि-लेखक"प्रियम" हूँ मैं।
सरस्वती की पूजा करता
मां सर्वेश्वरी पुत्र प्रियम हूँ मैं
कागज,कलम में ही जीता
श्यामल पुत्र "प्रियम" हूँ मैं।
अन्वेषा-आस्था कृति रचता
किशोरी पति प्रियम हूँ मैं।
मित्र प्रेम समर्पित करता
प्रियतम सखा प्रियम हूँ मैं।

**पंकज प्रियम
23.3.2018

Thursday, March 22, 2018

वीर शहीदों के नाम

23 मार्च 1931 को फाँसी को चूमते हुए शहीद हुए वीर भगत सिंह,सुखदेव और राजगुरु को मेरा सलाम।

                 वीर शहीदों के नाम
💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐
आज की शाम,वीर शहीदों के नाम कर जाएं
वतन पे मर मिटने वालों को सलाम कर जाएं।

सरफ़रोशी की तमन्ना,लिए दिल झूम लिया
हँसते हँसते उन्होंने,फाँसी को यूँ चूम लिया।

भगत,सुखदेव और राजगुरु,तीन वीर सपूत
अकेले ही फिरंगी बेड़े को, किया नेस्तनाबूद।

सेंट्रल एसेम्बली में यूँ ही, बम फेंक आया था
सांडर्स को मार, ब्रिटिश हुकूमत हिलाया था।

फाँसी देकर अंग्रेजों ने,बुजदिली दिखाया था
अफ़सोस! की तब बापू ने, नहीं बचाया था।

अरे!फिरंगी,क्यों नही,बहादुरी दिखाया था
चोरी चुपके वीरों को, यूँ फाँसी लटकाया था।

गर थी तुझमे हिम्मत, मैदान में तुम आ जाते
हर एक वीर वतन का,तुम्हें यूँ धूल चटा जाते।

आओ गाथा वीर जवानों का,फिर दुहरा जाएं
दुश्मन की छाती पे,झण्डा तिरंगा फहरा जाएं।

हर शाम वीर शहीदों के ही नाम हम कर जाएं
वतन पे मर मिटने वालों को सलाम कर जाएं।

-----पंकज प्रियम
22.03.2018

#प्रियम

पानी

विश्व जल दिवस पर आइए एक संकल्प लें।

पानी बचाना है।

जीवन जो ,गर बचाना है
बूँद बून्द,पानी बचाना है।
बहुत हो गयी, जल बर्बादी
तड़प रही है, बड़ी आबादी।
जल बिन तरसे दुनिया सारी
केपटाउन में किल्लत भारी।
पानी पानी, रोज मारामारी
तृतीय विश्व युद्ध की तैयारी।
जल बिन थल रेगिस्तान है
जन,उपवन,जन्तु परेशान है।
सूखती अल्हड़, नदियां सारी
सागर-समंदर, सब हैरान है।
काट के जंगल,शहर बसाते
कहीं ना कोई, पेड़ लगाते।
प्रदूषण से, सांस अटकती
पर्यावरण भी,तो परेशान है।
वन,जंगल की,जो हुई कटाई
बादल भी ,दूर बैठा परेशान है।
अब भी जो ,नहीं सम्भलोगे
सोचो तुम ,खुद कैसे जिओगे।
पानी पानी, कराह रही आबादी
अब रोको तुम जल की बर्बादी।
-पंकज प्रियम
22.3.2018

Wednesday, March 21, 2018

कविता

कविता

चंद छन्दों की तुकबन्दी! नहीं है कविता।
चंद लफ्जों की युगलबंदी!नही है कविता।
भाव भंगिमा की घेराबंदी! नहीं है कविता।

साहित्यिक शब्दों का खेल! नहीं है कविता।
सिर्फ सुर व ताल का मेल! नहीं है कविता।
दुरूह शब्दों का घालमेल!नहीं  है कविता।

दिल दिमाग,समझ न पाए! नही है कविता।
जो सीधे दिल में उतर जाए, वही है कविता।
भावना की राह, गुजर जाए,वही है कविता।

दिल के रस्ते ,रूह तक जाए,वही है कविता।
किसी दर्द के तह तक जाए, वही है कविता।
भूख की तड़प जो समझाए,वही है कविता।

बच्चे की पीड़ा जो दिखलाए,वही है कविता।
जमाने का जो दर्द बतलाए, वही है कविता।
आसान शब्दों सब कह जाए,वही है कविता।

औरों के गम आँसू बन आए, वही है कविता।
नया सन्देश कुछ देकर जाए, वही है कविता।
बदलाव देश-परिवेश कर जाए,वही है कविता।

©पंकज प्रियम

Tuesday, March 20, 2018

ग़ज़ल-एहसास-

एहसास जगी है,दिल में खास
अब तो अपने, पास आ जाने दो।

मेरा दिल भी तो, है तेरे पास
अब तो अपने रूह ,उतर जाने दो।

तुम हो मेरा, पहला एहसास
अब तो सांसों में,बिखर जाने दो।

तुम धड़कन,हो मेरी सांस
एहसास मोहब्बत,हो जाने दो

टूटती सांसो की,जो प्यास
वही इश्क़ एहसास हो जाने दो।

तारीखों से जुदा, इतिहास
चाहत का एहसास,हो जाने दो।

© पंकज प्रियम

एहसास

एहसास
जगी थी दिल में, जो एहसास
शायद तुझे नहीं, वो एहसास।

तुम थी तो बिल्कुल, मेरे पास
कुछ कहना था, तुझसे खास।

दिल से तो, निकलती थी मगर
रुक जाती,आते लबों के पास।

दिल में दफ़न हुई ,दिल की बातें
रुक गया दिल,तेरे दिल के पास।

हाँ ! तू ही तो है, मेरी पहली मुहब्बत
तू ही है मेरे दिल का, पहला एहसास।

©पंकज प्रियम
20.3.2018










नही मरते कवि

नहीं मरेंगे कभी
*************
गुजर गए,बड़े कवि
"अभी बिल्कुल अभी"
देखो उनकी याद में
 "ज़मीन पक रही है"
आओ जरा करीब
"यहाँ से देखो"
साहित्य ,रो रहा है
जैसे कि हुआ हो
"अकाल में सारस"
उनकी रचनाएं
 "उत्तर कबीर और
अन्य कविताएँ"
 "बाघ" से दहाड़ते
"तालस्ताय और
साइकिल" भी
हुआ पँचर,
कवि
केदारनाथ की
विरह पीड़ा में।
यादों में होंगे
अमर वो कवि
नही मरेंगे,कभी
केदारनाथ कवि।
©पंकज प्रियम
20.3.2018

गौरैया


गौरैया!
कितनी प्यारी
बड़ी है न्यारी
सबकी दुलारी
छोटी चिरैया।

चुन चुन कर
खाती दाना।
फुर्र!हो जाएगी
पास, न जाना।

कहाँ? गुमसुम
खो गयी तुम!
मेरे आँगन की
वो छोटी गोरैया।

क्या करूँ मैं?
आके,तेरे आँगन
लगता नही, मन
नहीं रहा, उपवन।

भात से क्या?
नही भरता, तन
मानव खाता
ये छोटा सा तन।

कहाँ लगाऊं
मैं अब घोसला
कंक्रीट भरा
मानव घोसला।

अब भी आऊं
मैं तेरे आँगन
एक पेड़ लगा
बना घर उपवन।

#गौरैया दिवस
✒पंकज प्रियम

Monday, March 19, 2018

ग़ज़ल-नमक का शहर


ज़ख्म कहाँ तू खोल बैठा
ये तो नमक का शहर है।
दिल परिंदा कहाँ तू बैठा
सूखे दरख्तों का शहर है।
बन जाएंगे ज़ख्म नासूर
ये तो धीमा सा जहर है।
तुम्हारे दर्द पे, वो हंसता
कैसे लोगों का शहर है।
इंतजार-ए- इश्क़,गुजरा
नहीं उनपे,कुछ असर है।
दिल कहाँ, तू खो बैठा
नहीं कोई ,यहाँ बसर है।
©पंकज प्रियम
20.3.2018

मां पिता जीवन है!

मातु-पिता जीवन है
******************

मां होती है,त्याग की मूरत
पिता साक्षात, समर्पण हैं।
बच्चों के ही,लालन पालन
में गुजरा, सारा जीवन है।
बच्चों को दे, वस्त्र भोजन
अगाध प्रेम, आकर्षण है
खुद फ़टी धोती-साड़ी में
करते जीवन निर्वहन हैं।
सपने पूरे हों ,बच्चों की
करते स्वप्न ,खुद तर्पण हैं।
खुद से भी ,बड़ा करने की
चाहत, पिता का ही मन है।
नहीं,किसी दिन पे आश्रित
वो तो, नवजीवन सृजन हैं।
डे कल्चर है, बाजार सृजित
मातु-पिता, बसे कण कण हैं।
दिल से बस ,इज्जत कर लें
यही इनका सम्मान,वंदन है।
मंहगे गिफ्टों, की नहीं चाहत
बच्चों का साथ ही,प्रेमाश्रम है।
इनके घर को,बस घर रहने दें
फिर नहीं जरूरी,वृद्धाश्रम है।
हर रोज होगा, फिर इनका दिन
हर घड़ी इनका,अभिनन्दन है।
मां पड़ी है,मृत्यु शैय्या पर
बेटा बहु तिजोरी खंगाला है।
पिता लेता ,सांस आखिरी
बेटा वसीयत ढूंढ निकाला है।
मां की हत्या ,कर देता बेटा
फिर कैसा डे? सेलिब्रेशन है।
बस तुम उनके पास रह लो
फिर हर दिन ,सेलिब्रेशन है।
सुप्रभातम
#पंकज प्रियम
19.3.2018

Saturday, March 17, 2018

कैसी जीत! कैसी हार?

कैसी जीत! कैसी हार?

जिस देश की रोटी,खाते हो
उस देश, को गाली देते हो!
कोई जीता, कोई हारा
नारा पाकिस्तान लगाते हो!

इस देश मे, जीते मरते हो
किस भरम में, फिर रहते हो!
क्या मन नही,धिक्कारा!
ऐसी आतंकी,सोच रखते हो।

जिस वेश में,हरदम रहते हो
जिस देश मे हरदम जीते हो
फिर क्यूँ जयकारा!
पड़ोसी देश की तुम करते हो।

जिस धरती ने, तुझको पाला है
बचपन से ही, तुझको संभाला है
क्या दोगे तुम सहारा?
सियासी सोच,गंदा कर डाला है।

धिक्कार है ऐसी तेरी जीत पर
धिक्कार है ऐसी तेरी हार पर
ऐसी !कंजर्फ़ सोच तुम रखते हो
गंदा सियासी खेल तुम रचते हो।
©पंकज प्रियम
16.3.2018
#अररिया जश्न में पाकिस्तानी नारे

#प्रियम

नया सवेरा

ये रात गुजर जाने दो
ये बात बिसर जाने दो
कल नया सवेरा आएगा
सूरज भी रंग दिखाएगा।

शबनमी बरस जाने दो
चकोर को तरस जाने दो।
कल चाँद निकल आएगा
भर रात चाँदनी बरसाएगा।

फिर धरती, धधक जाने दो
जंगल पलाश ,दहक जाने दो।
सखुआ शीशम,खिल जाएगा
सरहुल में, दिल मिल जाएगा।

पुराना साल ,गुजर जाने दो
नव संवत्सर ,आ जाने दो
मन उमंग, यूँ खिल जाएगा
दिल तरंग,यूँ मिल जाएगा।

©पंकज प्रियम
17.3.2018

विक्रम संवत 2074 की अंतिम रात और नव संवत्सर 2075 की अग्रिम शुभकामनाएं एवं वासन्ती नवरात्र की हार्दिक बधाई!

Friday, March 16, 2018

जीवन युद्ध

अपना युद्ध

जब लोग आपके विरुद्ध एकसाथ जुटने लगें
समझ लीजिए की आप उनसे ऊपर उठने लगे।

कुरुक्षेत्र में अकेले, कोई वीर कहाँ ललकारा था
घेरकर बुजदिलों ने, वीर अभिमन्यु को मारा था।

सबको लड़ने पड़ते हैं, यहाँ हर रोज अपने युद्ध
खुद ही जंग लड़ा सबने,चाहे राम,कृष्ण या बुद्ध।

समय चलता अपनी गति से,कौन रोक पाया है?
वक्त के साथ कदमताल करे, वही पार पाया है।

तूफानों का तो काम , सबकी राह रोक लेना है
करता है कर लेने दो,हमें तो तूफ़ां चीर जाना है।

जब सारे दुश्मन,आपस में हाथ मिलाने लगे
समझ लीजै की वो सब, अब खौफ खाने लगे।

भीड़ से कहाँ!कभी  कोई जंग जीत पाया है!
कौरव सेना को अकेले ही, केशव ने हराया है।
©पंकज प्रियम
16.3.2018
#प्रियम

Thursday, March 15, 2018

ग़ज़ल-मेरा तसव्वुर

ग़ज़ल

मेरा तसव्वुर,उनका फ़साना है
मेरा अश्क़,मुहब्बत दीवाना है।

यादों में ही, गुजार ली जिंदगी
मेरी तुरबत पे,उन्हें ही आना है।

इन सांसों ने, यूँ रख ली जिंदगी
मौत तो उनका, चाहे परवाना है।

धड़कनों ने रची है, साजिश ऐसी
मेरा दिल! और उनका निशाना है!

इश्क़ कहां है, इतना भी आसां
दरिया आग का,पार कर जाना है।

वक्त पे, किसका जोर है 'प्रियम'
कल मेरा,आज उनका जमाना है।
  - पंकज प्रियम
 15.3.2018
         

वसन्त के आँगन में..

वसन्त के आँगन में..

सारे जहां की आओ मुस्कान बन जाएं हम
नई उम्मीद,एक नया अरमान बन जाएं हम
हर मौसम में हमनशीं फूल खिल जाएं हम
पतझड़ के आँगन में वसन्त बन जाएं हम।

माना कि जिंदगी में,मुश्किलें हैं बहुत
दर्द हर किसी के दिल में,छुपा है बहुत।
पर कर प्रभातवंदन,मन विश्वास जगाएं हम
रोज नई उम्मीदों का,समंदर लहराएं हम।
                           पतझड़ के आँगन......
माना कि समंदर में आती लहरें हैं बहुत
जाना तूफ़ां भी गुजरती राहों में हैं बहुत
फिर भी कोई मुश्किल नही जाना उसपार
 एक दूजे की कश्ती पतवार बन जाएं हम
                          पतझड़ के आँगन......
थम जाएंगी लहरें सारी,तूफानों पे हम भारी
कदम से कदम चल के सीख लें दुनियादारी
आओ संग रोज साहिल से टकरा जाएं हम
संग यूँ ही रोज तूफानों को बिखरा जाएं हम।
                         पतझड़ के आँगन......
#प्रियम

वसन्त के आँगन में..



सारे जहां की आओ मुस्कान बन जाएं हम
नई उम्मीद,एक नया अरमान बन जाएं हम
हर मौसम में हमनशीं फूल खिल जाएं हम
पतझड़ के आँगन में वसन्त बन जाएं हम।

माना कि जिंदगी में,मुश्किलें हैं बहुत
दर्द हर किसी के दिल में,छुपा है बहुत।
पर कर प्रभातवंदन,मन विश्वास जगाएं हम
रोज नई उम्मीदों का,समंदर लहराएं हम।
                           पतझड़ के आँगन......
माना कि समंदर में आती लहरें हैं बहुत
जाना तूफ़ां भी गुजरती राहों में हैं बहुत
फिर भी कोई मुश्किल नही जाना उसपार
 एक दूजे की कश्ती पतवार बन जाएं हम
                          पतझड़ के आँगन......
थम जाएंगी लहरें सारी,तूफानों पे हम भारी
कदम से कदम चल के सीख लें दुनियादारी
आओ संग रोज साहिल से टकरा जाएं हम
संग यूँ ही रोज तूफानों को बिखरा जाएं हम।
                         पतझड़ के आँगन......
#प्रियम

उम्मीद




बड़ी उम्मीद से यूँ लहरा के
इसबार फिर पार उतरा के
दिल जो साहिल पे आया है।
उम्मीदों ने आँचल लहराया है।

बेजान पत्थरों से टकरा के
बार बार ये दिल बिखरा के
कभी खामोश लौट आया है।
उम्मीदों ने आँचल लहराया है।

खो गयी थी, जो उम्मीदें कहीं
रो रही थी जो तन्हा बैठी कहीं
फिर उन्ही उम्मीदों ने अपना
आँचल एकबार लहराया है।

सांसों में जी रही थी जिंदगी
फिर उन्ही उम्मीदों ने, सपना
दिखाकर, दिल धड़काया है।
उम्मीदों ने आँचल लहराया है।

छोड़ दिया था, तेरे साथ ही
तुझे पाने की सारी उम्मीद,
फिर से वो उम्मीद जगाया है।
उम्मीदों ने आँचल लहराया है।

लगा रखा है फिर से उम्मीद
चाहत तेरे रूह तलक जाना
मन में ये उमंग जगाया है।
उम्मीदों ने आँचल लहराया है।

तू छोड़!नही छोड़ेंगे उम्मीद
मुहब्बत की हद गुजर जाना
वर्षो बहुत इंतजार कराया है।
उम्मीदों ने आँचल लहराया है।

नई उम्मीदें जगी,नवजीवन की
कदमताल उठी,नवसृजन की
नवयुग का नवश्रृंगार भाया है।
उम्मीदों ने आँचल लहराया है।

संग चल नया इतिहास लिखेंगे
उम्मीदों की हम नई आस बनेंगे।
परिवर्तन का नया दौर आया है
उम्मीदों ने आँचल लहराया है।

जात-पात रंग-भेद मिटा जाएंगे
हर दिल में मुहब्बत जगा जाएंगे
तुम ने फिर  विश्वास दिलाया है
उम्मीदों ने आँचल लहराया है।
..पंकज प्रियम
15.03.2018





Wednesday, March 14, 2018

उम्मीद

उम्मीद
##############
बड़ी उम्मीद से लहरा के साहिल पे आते हैं
बेजान पत्थरों से टकरा के फिर लौट जाते हैं।

खो गयी थी, जो उम्मीदें कहीं
फिर उन्ही उम्मीदों ने अपना
आँचल एकबार लहराया है।

सांसों में जी रही थी जिंदगी
फिर उन्ही उम्मीदों ने, सपना
दिखाकर, दिल धड़काया है।

छोड़ दिया था, तेरे साथ ही
तुझे पाने की सारी उम्मीद,
फिर से वो उम्मीद जगाया है।

लगा रखा है फिर से उम्मीद
चाहत तेरे रूह तलक जाना
मन में ये उम्मीद जगाया है।

तू छोड़!नही छोड़ेंगे उम्मीद
मुहब्बत की हद गुजर जाना
वर्षो बहुत इंतजार कराया है।

उम्मीदों ने आँचल लहराया है।

क्या लिखूं मैं....?

क्या लिखूं मैं....?

एक अरसा हो गया
जब बहुत लिखा था।

जिंदगी की आपाधापी
में खो गया कुछ ऐसा।

खबरों की भागदौड़ में
अपनी खबर भूल गया।

ब्रेकिंग न्यूज़ की जहाँ में
मत पूछो. यूँ उलझ गया।

विसुअल और दो बाईट
लेते हुई जिंदगी यूँ टाइट।

चित्र और शब्दों की हेराफेरी
इसी में सिमटी है दुनियादारी।

कीबोर्ड की रोज खटपट में
सूख गयी यूँ लेखनी हमारी।

दिनभर की भाग दौड़ में
कितना दर्द है क्या कहूँ मैं ?

क्या?कौन?कब?कहां? किसने?
कैसे? छः ककारों में फंसा हूँ मैं।

मर गयी कैसी रचना हमारी
किसे कैसे वो जख्म दिखाऊ मैं!

अपनी कहानी.अपना फ़साना ..
कैसे कहां और क्या लिखू मैं ....?
.....✍पंकज प्रियम
14.3.2018

ग़ज़ल: रूह तक जाना है


      ग़ज़ल: रूह तक

तुझे पाना,नही हसरत मेरी
मुझे बस तुझमे, खो जाना है।

तेरा जिस्म,नही चाहत मेरी
मुझे तो तेरे, रूहतक जाना है।

तुझे छूना, नही फितरत मेरी
मुझे तेरे सांसों में, बस जाना है।

तुझे सोना ,नही ये नियत मेरी
मुझे तेरे ख्वाबों में, खो जाना है।

मेरी चाहत,ख़्वाब, मेरी हसरत
सब कुछ तुझसे ही, तो जाना है।

तेरी मुहब्बत,नही क़िस्मत मेरी
मुझे तेरे इश्क़ में,यूँ गुजर जाना है।

      पंकज प्रियम
14.3.2018

पीरियड्स:द रेड ब्लड स्पॉट

अभी हाल ही पैडमैन फ़िल्म आयी है जिसके बाद लोगों में मेंस्ट्रुअल हेल्थ पर भी सोच बदल रही है। हम सब को इस विषय पर खुलकर बात करनी चाहिए तभी महिलाओं को स्वच्छता के प्रति जागरूक कर गंभीर बीमारियों से बचा सकते है। किशोरी लड़कियों को भी इसकी जानकारी होनी चाहिए। अभी मैंने एक स्कूल में मशीन लगवाया तो कई लड़कियों से बात की तो बहुत बातें निकली । कुछ बाजार में खरीदारी की अपनी झिझक भी शामिल है।उसे ही कहानी का स्वरूप देकर पटल पर रखने की इजाज़त चाहता हूं। उम्मीद है आप सबों को पसंद आएगी। श्लीलता की मर्यादा बनाये रखने की पूरी कोशिश की है। फिर भी अगर किसी को बुरा लगे तो क्षमा प्रार्थी हूँ। कहानी पर अपना बहुमूल्य विचार अवश्य दें।

U

लाल दाग
******
आज रीना बहुत खुश थी,अब उन दिनों शर्मिंदगी महसूस नही होगी। आज उसके स्कूल में एक मशीन लग गयी है। जिसमे महज 5 रुपये का सिक्का डाल कर खुद सेनिटरी पैड निकाल सकेगी। साथ ही इस्तेमाल की हुई पैड को भी सबकी नजरों से छुपा कर फेंकने की जिल्लत नही होगी। इसके लिए भी इंसीनरेटर लग गया है। जिसमें इस्तेमाल की हुई पैड को बड़ी आसानी से डिस्ट्रॉय कर लेगी।
रीना को आज भी याद है दस ग्यारह साल की उम्र रही होगी। स्कूल में अचानक से पेट मे बहुत जोरों की दर्द होने लगी थी। वह पेट पकड़ कर स्कूल में ही बैठ गयी। छुट्टी हुई तो बस्ता लेकर सभी सहेलियों के साथ क्लास रूम से निकल गयी। उसके पीछे स्कूल के सीनियर लड़के और लड़कियां हंस रही थी। वह समझ भी नही पा रही कि आखिर माजरा क्या है। आखिर पीछे क्या लगा है जो लोग देखकर हंस रहे है। ऋण ने पीछे मुड़कर देखने की कोशिश की तो एकदम से डर गई।
अरे! ये क्या हुआ? पूरी ड्रेस लाल रंग से लगी हुई थी। कहां चोट लगी जो इतना खून निकला! वह जल्दी जल्दी भागकर घर पहुंची। पेट मे अब भी दर्द हो रहा था। घर पहुंच कर वह सीधे मां के पास गयी तो वहां दादी भी बैठी थी।

"मां देखो न मेरे ड्रेस में क्या लगा है और पेट मे बहुत दर्द हो रहा है! "
उसकी बात सुनकर माँ हंसने लगी और कहा "कुछ नही जाकर बाथरूम में कपड़ा बदल लो"।
"अरे!ध्यान रखना वहां मेरे ठाकुर जी का वस्त्र रखा है उसे हाथ भी नही लगाना!अपवित्र हो जाएंगे" दादी ने बड़े रौब से फरमान झाड़ दिया।
"क्यूँ दादी? सुबह मैंने ही तो ठाकुर जी के वस्त्रों को धोया था! अब मेरे छूने से अपवित्र कैसे हो जाएंगे" रीना ने बड़ी मासूमियत से पूछा।
"तुम्हे जितना बोला है चुपचाप करो!बहुत जुबान लड़ाने लगी है।"दादी माँ ने आंखे तरेर कर कहा तो ऋण रोती हुई बाथरूम की ओर भाग गई।
बाथरूम में जब कपड़े बदले तो रीना के होश उड़ गए। पूरी स्कर्ट खून से रँगी थी लेकिन चोट का कहीं निशान नही था। आखिर उसे हुआ क्या है?
बेटी! ये लो कपड़ा! मां ने पुराने कपड़ों की एक पट्टी हाथ मे पकड़ा दी और कहा" इसे पहन लो"
रीना बिल्कुल अवाक सी थी उसे कुछ समझ मे नही आ रहा था माँ ने जैसा कहा चुपचाप कर लिया।
"और हाँ ! अब चार पांच दिनों तक तुम स्कूल नही जाना। मन्दिर और रसोई में भूलकर भी कदम नही रखना। चुपचाप अपने कमरे में रहना। जब बोलूं तभी तुम स्कूल जाना।नही तो ठाकुर जी नाराज हो जाएंगे। "मां ने दादी का फरमान दोहरा दिया।
रीना को कुछ समझ नही आ रहा था कि आखिर उसके साथ हुआ क्या है। कोई कुछ बता नही रहा है और हर काम के लिए रोक दिया गया है।वह चुपचाप अपने कमरे में जाकर लेट गयी। पेट का दर्द अबतक ठीक नही हुआ था। बदन भी टूट रहा था। कब नींद आ गयी पता ही नही चला।

सुबह मां ने जल्दी उठा दिया और कपड़ें को बाहर झाड़ी में फेंकने को कहा। फिर उसी तरह की कपड़े की एक और पट्टी पहना दी।
"मां! ये खून कैसे निकल रहा है। पेट मे घाव हुआ है क्या?"
रीना ने मां से सवालों की बौछार कर दी।
"अरे!कुछ नही ! बाज़ार में कुछ उल्टा सीधा खाया होगा इसलिए पेट मे जख्म हो गया है दो तीन रोज में ठीक हो जायेगा।" मां ने डांटते हुए कहा।
सुबह सोनी स्कूल जाने के लिए बुलाने आयी तो माँ ने उसे वापस भेज दिया ये कहकर की रीना बीमार है।
ये सिलसिला चार दिनों तक चलता रहा। अब दर्द कम हो गया था और खून भी आना बंद हो गया था।
अगले दिन रीना पहले की तरह ही स्कूल गयी तो सभी सहेलियों ने उसे घेर लिया "तुम स्कूल क्यों नही आ रही थी? बीमार थी क्या?"
"हाँ!" कहकर रीना क्लासरूम में चली गयी। लेकिन उसके अंदर अब भी प्रश्नों का सैलाब उमड़ रहा था।
धीरे धीरे इन घटना को बिल्कुल भूल गयी लेकिन करीब एक महीने बाद फिर वही घटना घटी तो रीना डर गई।" इसबार तो कुछ ऐसा वैसा खाया नही तो फिर पेट में दर्द और खून क्यों आ रहा है? रीना ने घर आकर सबसे पहले मां से यही सवाल किया।
"अरे!कुछ नही बेटी ! ऐसा होता है।अब तुम बड़ी हो रही हो और महीने में कुछ दिन ऐसा ही होता है। जैसा पिछले माह किया था ठीक वैसे ही रहो। " मां ने इसबार बड़े प्यार से समझाया। अब रीना को भी समझ आ रहा था कि उसकी मां भी तो महीने में तीन चार रोज बीमार सी रहती है तब पूजा पाठ नही करती। उनदिनों दादी ही खाना बनाती है।
स्कूल पास कर रीना पढ़ने के लिए शहर आ गयी। आवासीय विद्यालय के हॉस्टल में रहने लगी। अब उसे उनदिनों की समस्या समझ मे आ गयी थी। हॉस्टल में फिर वही समस्या शुरू हो गयी तो मां के बताये अनुसार कपड़े की तह कर पहनने लगी।
"अरे! रे! ये क्या कर रही हो । स्टुपिड!तुम गांव की गंवार ही ठहरी। ये लो इसे पहनो। "शिल्पा ने अपने बैग से निकाल कर विस्पर का पैकेट पकड़ा दिया।
"ये क्या है? "रीना पहली बार इस तरह के पैड को देख रही थी.
"वही है जो तुम कपड़े का तह ले रही थी।"शिल्पा ने शरारत भरी नजरों से कहा।
"लेकिन इसके लिए पैसा क्यों बर्बाद करना जब कपड़े से काम चल जाय" रीना ने मासूमियत से कहा।
"अरे! यार, तुम भी न। कपड़े से इंफेक्शन हो सकता है और फिर सूखता भी नही। ले पहन इसे ।ज्यादा सवाल मत कर।" शिल्पा ने जबरन पैकेट हाथों में थमा दिया।
आज रीना को बहुत आराम लगा। कपड़े सी असहजता नही थी।
"अच्छा शिल्पा! एक बात बता! इन दिनों लड़कियों को पूजा घर या रसोई में क्यूँ नही जाने दिया जाता है और स्कूल भी जाने से मां मना कर देती थी। क्या लडकियां अपवित्र हो जाती है?" रीना ने भोलेपन से पूछा तो शिल्पा ठठाकर हंस पड़ी।
"अरे यार! ये सब पुरानी बातें है। अरे! ये तो शरीर की स्वाभाविक प्रक्रिया है जिसका होना उतना ही जरूरी जितना कि सांस लेना और यही तो एकमात्र चीज है जो हम लड़कियों को अलग बनाती है। हम संसार का सृजन कर सकते हैं। एक बच्चे को जन्म देते हैं। दरअसल मासिकधर्म के दिनों शरीर को बहुत आराम की जरूरत होती है शायद यही वजह है कि लोगों से इसे शुद्धता से जोड़ दिया है ताकि शरीर को अधिक से अधिक आराम मिल सके।"
'आखिर ये होता क्यूँ है शिल्पा? रीना की जिज्ञासा बढ़ने लगी थी
"ज्यादातर महिलाएं माहवारी  या पीरियड्स की समस्याओं से परेशान रहती है लेकिन अज्ञानतावश या फिर शर्म या झिझक के कारण लगातार इस मुश्किलों से जूझती है। दरअसल दस से पन्द्रह साल की लड़की का अण्डाशय हर महीने एक परिपक्व अण्डा या अण्डाणु पैदा करने लगता है। वह अण्डा डिम्बवाही थैली  या फेलोपियन ट्यूब में सफर करता है। जब अण्डा गर्भाशय में पहुंचता है तो रक्त और तरल पदार्थ से मिलकर उसका अस्तर गाढ़ा होने लगता है। यह तभी होता है जब कि अण्डा उपजाऊ हो, वह बढ़ता है, अस्तर के अन्दर विकसित होकर बच्चा बन जाता है। गाढ़ा अस्तर उतर जाता है और वह माहवारी का रूधिर स्राव बन जाता है, जो कि योनि द्वारा शरीर से बाहर निकल जाता है। जिस दौरान रूधिर स्राव होता रहता है उसे माहवारी अवधि या पीरियड कहते हैं। औरत के प्रजनन अंगों में होने वाले बदलावों के आवर्तन चक्र को माहवारी चक्र या मेंस्ट्रुअल साइकल कहते हैं। यह हॉरमोन तन्त्र के नियन्त्रण में रहता है एवं प्रजनन के लिए जरूरी है। माहवारी चक्र की गिनती रक्त स्राव के पहले दिन से की जाती है क्योंकि इसका हॉरमोन चक्र से घनिष्ट तालमेल रहता है। माहवारी का खून स्राव हर महीने में एक बार 28 से 32 दिनों के अन्तराल पर होता है. ये पीरियड हम लड़कियों को पूर्ण औरत बनाती है।"
शिल्पा अपनी सारी पढ़ाई रीना के दिमाग मे उतार देना चाहती थी।
रीना को भी इसे समझने में मज़ा आने लगा था उसने सवालों की बौछार शुरू कर दी-अच्छा तो फिर इतना दर्द क्यों होता है?

एक्चुअली में जब डिम्ब का अस्तर उतरता है उससे दर्द होता है।  पीरियड्स में निचले उदर में ऐंठनभरी पीड़ा होती है। किसी औरत को तेज दर्द हो सकता है जो आता और जाता है या मन्द चुभने वाला दर्द हो सकता है। इन से पीठ में दर्द हो सकता है। दर्द कई दिन पहले भी शुरू हो सकता है और माहवारी के एकदम पहले भी हो सकता है। माहवारी का रक्त स्राव कम होते ही सामान्यतः यह खत्म हो जाता है। इसमे घबराने की आवश्यकता नही है। बस आराम की जरूरत है।"समझ गयी।

"तुम शायद ठीक ही कहती हो।मैं इसबार घर जाकर मां और दादी को इस विषय मे बढ़िया से बताउंगी। साथ ही मां के लिए भी बाजार से बढ़िया पैड ले जाउंगी। कपड़े से कितना इंफेक्शन होता है न। " रीना मानो आज ही जाकर मां को समझा देना चाहती थी।
अगली बार उसे फिर जरूरत हुई लेकिन शिल्पा तो छुट्टी में घर गई थी। अब क्या करे समझ मे नही आ रहा था।
उसने शहर में आते जाते उसने बड़े बड़े होर्डिंग्स में विश्पर का विज्ञापन देखा था लेकिन दुकान जाकर खरीदने में बड़ी शर्म आ रही थी।
बहुत हिम्मत कर एक दुकान गयी वहां बहुत सारे तरह तरह के पैड भी थे लेकिन दुकान में पुरुष होने के कारण मांगने कक हिम्मत नही हुई। कई दुकान भटकती रही आखिर एक लेडीज स्टोर मिल गयी जिसके काउंटर पर एक लड़की थी।
"मुझे ये वाला चाहिए" बड़ी झिझक से रीना ने विस्पर के पैकेट की तरफ उंगली बढ़ाकर कहा।
"ओके" कहकर महिला ने पैकेट को पहले अखबार में लपेटा फिर काले रंग की पॉलीथिन में डालकर लगभग छुपाते हुए दिया।

रीना को भी लगा कि जैसे चोरी का सामान खरीद रही है। चुपचाप पर्स में डालकर भागती हुई हॉस्टल पहुंची। उसकी सांसे फूल रही थी और दिल धौंकनी से धड़क रहा था।
"उफ्फ! कितनी प्रॉब्लम है! ये हम लड़कियों के साथ। हर महीने इतनी दर्द और तकलीफ से गुजरना पड़ता है और पैड भी आसानी से नही मिलता। लड़के तो ऐसे घूर के देखते है जैसे ड्रग खरीद रही हो।" रीना मन ही मन भुनभुना रही थी।
"अरे!कहां खो गई?" प्रिंसिपल मैडम की बात से रीना की तन्द्रा भंग हुई।
देखो तो स्वच्छता विभाग के बड़े अफसर और बीडीओ साहेब आये हैं हमारे स्कूल में ये मशीन लगवाने।
" अब तुम लोगों को कहीं बाहर जाने की जरूरत नही है। बस इसमे पैसे डालना है और सेनिटरी पैड तुम्हारे हाथों में। और इस्तेमाल के बाद इंसीनरेटर में बस डाल देना है ।बाहर छुपकर फेंकने की समस्या खत्म। अब खुश हो न तुम लोग'
"जी!" रीना और उसके स्कूल की सभी लड़कियां खुशी के मारे उछल पड़ी। अब उनदिनों की सारी मुसीबत खत्म!

*****पंकज भूषण पाठक "प्रियम"
13.3.2018

ग़ज़ल-अलग अंदाज

हमारी जिंदगी का भी
अलग अंदाज है साकी
कभी उल्फ़त में जीते हैं
कभी मुहब्बत में मरते हैं।

हमारी आशिक़ी का भी
अलग मिज़ाज है साकी
कभी फूलों को ठुकराते
कभी कांटों से लिपटते हैं।

हमारी चाहतों का भी
अलग अंदाज है साकी
सबकी मुस्कुराहटों पे
खुद हंसी भूल जाते हैं।

हमारी बन्दगी का भी
अलग अंदाज है साकी
औरों के घर उजाले को
खुद के घर आग लगाते हैं।

पंकज प्रियम
13.3.2018

अंदाज

हमारी जिंदगी का भी
अलग अंदाज है साकी
कभी उल्फ़त में जीते हैं
कभी मुहब्बत में मरते हैं।

हमारी आशिक़ी का भी
अलग मिज़ाज है साकी
कभी फूलों को ठुकराते
कभी कांटों से लिपटते हैं।

हमारी चाहतों का भी
अलग अंदाज है साकी
सबकी मुस्कुराहटों पे
खुद हंसी भूल जाते हैं।

हमारी बन्दगी का भी
अलग अंदाज है साकी
औरों के घर उजाले को
खुद के घर आग लगाते हैं।

पंकज प्रियम
13.3.2018

Tuesday, March 13, 2018

सुनो इंडिया! यह कैसा हिन्दुस्तान है?

सुनो इंडिया!

सुनो इंडिया! यह कैसा हिन्दुस्तान है?
सरहद पे रोज खेत हो रहा जवान है
और जरा देखो तो,छोड़कर खेतों को
शहर की सड़कें,जोत रहा किसान है।

सुनो इंडिया!क्या अब यही पहचान है?
कोई तो कर्ज़ लेकर देश छोड़ जाता है
तो कोई कर्ज लेकर देह छोड़ जाता है
कर्ज़ में पिसता गरीब और किसान है।

सुनो इंडिया!क्या यही हमारी शान है
कैसी सियासत तेरी, कैसा अभिमान है
खेतों में ही मिल जाता गर हक इनको
गांव छोड़के शहर,क्यूं आया किसान है।

सुनो इंडिया! क्या अब भी अनजान है
बैंकों की कर्जदारी,होती एक तरफदारी
घिस जाती चप्पल,ऐसी चक्कर सरकारी
खेतो के आंदोलन से,पूरा भरा मैदान है।
© पंकज प्रियम
12 मार्च 2018

Monday, March 12, 2018

जिन्दगी का सफ़र




जिंदगी को यूं ही गुज़र कर लेना
रोज खिलते हंसी फूलों की तरहा
मुस्कुराहटों से ही सहर कर लेना।

बन जाओ किसी चेहरे की हंसी
रोज धड़कते दिलों की ही तरहा
लोगों की सांसो पे असर कर लेना।

बहुत ही खूबसूरत है ये जिंदगी
होके मायूस न कभी इस तरहा
कभी जीवन में न जहर कर लेना।

बड़ी मुश्किल से मिलती है खुशी
होके रुसवा न कभी इस तरहा
हंसी में न गमों को बसर कर लेना।

बहुत छोटी है ये अपनी जिंदगी
बन जाओ मुस्कुराहटों की वजह
हंसी बाँटते ही यूँ सफ़र कर लेना।
©पंकज प्रियम
12.3.2018
A very happy good morning

Sunday, March 11, 2018

ग़ज़ल-जिंदगी






जिंदगी को न मुख़्तसर कर लेना
यूँ अधर में ही न गुज़र कर लेना।

संग चलना है बहुत दूर ऐ जिंदगी
यूँ राह अकेले न सफर कर लेना।

तेरे नाम ही लिख दी मैंने जिंदगी
किसी और संग न बसर कर लेना।

सुबहो शाम की है तेरी मैंने बन्दगी
आधी रात ही न तू सहर कर लेना।

लफ्जों में लिख दी है मैंने जिंदगी
होके रुसवा न तू जहर कर लेना।

तेरी सांसों में बसी है खुशबू मेरी
बात जमाने का न असर कर लेना।

बहुत खूबसूरत है सुन तू ऐ जिंदगी
इसे न तू यूँ खुद मुख़्तसर कर लेना।
©पंकज प्रियम
11.3.2018

पलाश

पलाश

***************

पलाश
जीवन मे भर लो रंग यूँ खाश
जैसे खिले हैं चमकते पलाश।
वासन्ती हवाओं में बहकते
दारुण से दहकते ये पलाश।

अपना भी रंग चढे कुछ ऐसा
इन फूलों से बनता रंग जैसा
खिंच लो जहां को अपने पास
जैसे दमकते फूल हो पलाश।

अर्थहीन जीवन न हो ऐसा
गन्धहीन फूल पलाश जैसा
सुंगंध भी जो होता काश !
देवों को भी चढ़ता पलाश।


सीरत भी हो सूरत के सिवा
खुशबू भी हो रंगत के सिवा
न हो जाय जिंदगी ऐसी काश
फूल हो जैसे की यह पलाश।

हाँ! जिंदगी में यूँ जगाओ आस
जैसे कि आग से दहकते पलाश
सुगन्ध नही तो फिर क्या हुआ
औषधीय गुणों को रखा है पास ।

अपूर्णता में भी, सम्पूर्णता का
 देता है ये तो, हरपल एहसास
कोई कमी रह जाये जीवन में
बन जाएं खुद, जग का विश्वास।

नही गन्ध है,जो नही सुगन्ध है
फिर भी फूल है, ये बहुत खास
रंगों से,वसन्त का देता एहसास
प्रकृति का नवसृजन है पलाश।
©पंकज प्रियम