Tuesday, February 8, 2011

ढाई आखर ....






ढाई आखर ....



प्रेम का ढाई आखर होता बहुत सुहाना



फिर भी जाने क्यों दुश्मन है इसका जमाना



इश्क में हो गये पागल कितने हुए लाखो घायल



छोड़ के जहाँ को भी चाहे इसे अपनानन



फिर भी जाने क्यों दुश्मन है इसका जमाना



वो बदनशीब है जिन्हें ये मयस्सर नही



खुशनशीब जिन्हें प्यार मिला यहीं



इसके आगे जहाँ को पड़ा है सर झुकाना



फिर भी जाने क्यों दुश्मन है इसका जमाना



शाह ने मुमताज की खातिर ताज बनाया



लैला की चाह में मजनू ने पत्थर खाया



किश्मत से मिलता ये,चाहे नही नही ठुकराना '



फिर भी जाने क्यों दुश्मन है इसका जमाना



प्रेमी होते है खुदा के बन्दे कहते है ऐसा सभी



टूट जाये जो ये दिल मुश्किल फिर उसे बचाना



फिर भी जाने क्यों दुश्मन इसका जमाना



तमन्नाओ को कब्र में दफ़न कर



चले गये वो अरमानो का लेकर दीया



लगा गया दिल की बाजी वो दीवाना



बस में नही होता हर किसी के इसे निभाना



फिर भी जाने क्यों दुश्मन इसका जमाना



मुहब्बत से पीर बना ,रचा है इससे सारा संसार



खुदा भी तरसे पल-पल पाने को प्यार



है दुनिया का सबसे अनमोल नजराना



फिर भी जाने क्यों दुश्मन है इसका जमाना



----------पंकज भूषण पाठक"प्रियम"









ढाई आखर

ढाई आखर ....

prem ka dhaai akhar hota bahut suhana

fir bhi jane kyu dushman hai iska jamana

ishk me ho gye pagal ,hue lakho ghayal

chhod ke bhi jahan ,chahte hain ise apnana

fir bhi jane kyu dushman hai iska jamana