लेकिन मैं आज जीना छोड़ दूँ क्या?
निगाहों का जाम पीना छोड़ दूँ क्या?
मुहब्बत से ज़ख्म सीना छोड़ दूँ क्या?
मस्त सावन का महीना छोड़ दूँ क्या?
बचपन का दोस्त कमीना छोड़ दूँ क्या?
29.11.2018
समंदर हूँ मैं लफ़्ज़ों का, मुझे खामोश रहने दो, छुपा है इश्क़ का दरिया, उसे खामोश बहने दो। नहीं मशहूर की चाहत, नहीं चाहूँ धनो दौलत- मुसाफ़िर अल्फ़ाज़ों का, मुझे खामोश चलने दो। ©पंकज प्रियम
ख़्वाब
पलक जो बंद कर देखा,उसे ही ख़्वाब कहते हैं
पलक जो खोल कर देखा,उसे भी ख़्वाब कहते हैं।
निगाहों के समंदर में, हसीं एक ख़्वाब जो लहरा,
उड़ा दे नींद पलकों की,उसे भी ख़्वाब कहते हैं।
©पंकज प्रियम
मुहब्बत वाली कॉफी
देर निःशब्द रात के सन्नाटे
में घड़ी की बस टिक-टिक
के बीच डायरी के पन्नों में
अपनी कविता सरिता की
मौजों में डूबता लहराता
नींद से उनींदी हुई बोझिल
अलसायी भारी पलकों से
उठाकर जब तुम्हें एक कप
चाय लाने को कहता हूँ
और न चाहते हुए भी तुम
हौले-हौले मुस्कुराते हुए
किचन में चली जाती हो।
सर्द हवाओं की ठिठुरन में
जब अपने नरम हाथों से
तुम थमाती हो मेरे हाथों में
गर्म कॉफी की एक प्याली
तो कहता है दिल हाँ यही!
है मुहब्बत वाली कॉफी।
सुबह नींद खुलने से पहले
तेरा उठना और उठकर
मेरे लिए हर रोज जगकर
तेरा सजना और सजकर
हाथों में चाय की प्याली
लेकर बिस्तर पे आकर
मुझे हौले हौले से उठाकर
मेरे हाथों में जब थमाती हो
तुम गर्म चाय की प्याली
तो कहता है दिल हाँ यही!!
है मुहब्बत वाली कॉफी
ऑफिस में दिनभर थककर
जब बेहाल सा घर लौटकर
निढाल सा होकर पड़ता हूँ
तब फूलों सा मुस्कुराकर
अपने कोमल हाथों से मेरे
सर को हौले से दबाती हो
फिर गरम चाय की प्याली
मेरे हाथों में थमाती हो
तो दिल कहता है हाँ यही
है मुहब्बत वाली कॉफी।
©पंकज प्रियम
नाम की सियासत
बदल दो नाम तुम सारे,बदल दो काम तुम प्यारे
गरीबी ही संवर जाए,करो वह इंतजाम तुम प्यारे
नहीं भूखा कोई सोये, नहीं नैना कोई रोये
मिले सम्मान औरत को,बसा इक धाम तुम प्यारे।
फंसा है पेंच मन्दिर का, सुप्रीम कोर्ट में प्यारे
लगेगा नाम सियावर का, एयरपोर्ट में प्यारे
नहीं मन्दिर का मसला है,नहीं मस्जिद का झगड़ा है
सियासी खेल तमाशा ये,दिखता वोट में प्यारे।
©पंकज प्रियम
झुर्रियों से झांकती ये दर्द भरी मुस्कान
काँपते कमजोर हाथों से सजी दूकान।
इंतजार करती बूढ़ी आंखे,लेके सम्मान
माटी के बरतन भरे,सजा धजा सामान।
आया पर्व प्रकाश का,खुशी का त्यौहार
आओ आओ कहां गए हो सब खरीदार?
माटी के बर्तन से ही सजता मेरा घरबार
माटी माटी जिंदगी,माटी ही मेरा व्यापार।
प्लास्टिक बर्तन से अब करते सब प्यार
चायनीज लड़ियों से सजा खूब बाजार।
मेरी भी वर्तन खरीद,तो चले मेरा संसार
मेरे घर चूल्हा जले,मने दीवाली त्यौहार।
©पंकज प्रियम
धूप-दीप से तुम करो,चाहे हवन हजार।
मन में बैठा मैल जो,सब पूजन बेकार।।
धूप-दीप हर्षित करे, जैसे फूल बहार।
तनमन भी गर्वित करे,पाकर रूप निखार।।
धूप-दीप घर घर जले,आया फिर त्यौहार।
एक दीया कुम्हार का, लेकर दो उपहार।।
धूप-दीप से है सजा,जगमग ये संसार।
धूप-दीप पूजन-हवन,महकाए घरबार।।
धूप-दीप के मेल से,बह शीतल की धार।
तन को भी हर्षित करे,मन को मिले करार।।
©पंकज प्रियम
गिरिडीह,झारखंड
मुक्तक .गुज़ारिश
गुजारिश है मेरे दिल की,कभी तुम दूर ना करना
गुजारिश है मेरे मन की,कभी मजबूर ना करना
मैं तेरा प्रेम हूँ दिलवर हूँ, तू मेरी हर ख़्वाहिश है
मुहब्बत के सफ़र में तुम,कभी मग़रूर ना करना।
©पंकज प्रियम
मुक्तक
स्पंदन है तो तनमन है, उसी से बंध जीवन है
गति जो मंद पड़ जाए,समझ लो बंद जीवन है
अगर थकहार भी जाओ,कभी तुम हार ना मानो
समय के साथ चलने का,किया अनुबंध जीवन है।
©पंकज प्रियम
एक दूजे के लिए
जाने उसमें ऐसी क्या कशिश थी?न चाहते हुए भी मेरी नजरें उसकी ओर चली जाती थी। क्लास में काफी दिनों तक हम दोनों दो किनारों पर बैठते रहे लेकिन एक अदृश्य डोर हमें जरूर खिंचती थी। यह डोर तब प्रकट हुआ जब हम पहलीबार फील्डवर्क में निकले। रोलनम्बर आसपास होने की वजह से हमदोनों को एक ग्रुप में रख दिया गया। पहली बार बातचीत हुई और बीच में पड़ी संकोच की दीवार ढह गई।
उस ग्रुप में हमदोनों का एक अलग ग्रुप बन गया और फिर बातों का सिलसिला शुरू हो गया। दोस्ती धीरे धीरे प्यार में कब बदल गई पता ही नहीं चला। लेकिन प्यार होता क्या है ये उससे मिलकर ही जाना। क्लास के बीच भी हमारी बातचीत इशारों में और पत्रों में चलती रहती। हम तो बस अपनी ही दुनियां में खोने लगे ।प्यार परवान चढ़ने लगा,उसके बिना एक एक पल जीना दुश्वार लगने लगा। मन करता हरवक्त उसके ही साथ रहूँ।वो हरक्षण मेरे पास बैठी रहे। जब भी मुझे कुछ होता वो परेशान छप जाती। मुझे गुस्सा आता तो वह घबरा जाती ,मैं भी उसके रूठने पर बैचेन हो जाता।उसकी मुस्कुराहट से मेरी सांसे चलती। उसका किसी और से बातें करना,मिलना जुलना ,किसी और कि तारीफ करने मैं बर्दास्त नही कर पाता और मैं नाराज हो जाता था। शायद हमारा जन्म जन्म का रिश्ता बना था। हमारा दिल एक हुआ ,हम एक हुए ,जमाने ने हमें साथ कर दिया लेकिन समाज और परिवार की दीवार ऊंची पड़ी गयी। कुछ प्रतिष्ठा के बंधन और कुछ ऊंच नीच की दीवार ने हमें विवश कर दिया। मैं भी अपने प्यार को तकलीफ नहीं देना चाहता था। मेरी जान किसी और कि हो गयी,मैं खड़ा देखता रहा।कितना विवश,कितना लाचार था मैं?
चाह कर भी कुछ नहीं कर सका। जी कह रहा था वहीं चिल्ला चिल्ला के कहूँ-प्रिया तुम सिर्फ मेरी हो!
तुम कहाँ जा रही हो,पर लब खामोश पड़ गए।मैं उसे रुसवा कैसे करता भला?वह भी तो मजबूर थी,उसे भी तो दर्द हो रहा था। हमसे बिछड़ते,जाते जाते कह गयी-
प्रिया तो सिर्फ तुम्हारी है,वह तो कोई और है जो ब्याह कर किसी और के साथ जा रही है।
हां सच ही तो है! प्रिया हरपल मेरे साथ है वह तो कोई और है जिसे मैंने विदा किया। प्रिया में साथ तो हमारा कई जन्मों का नाता है। भला वह कैसे टूट सकता है?हम तो बने हैं #इक दूजे के लिए! कौन अलग कर सकता हैं हमें?
©®पंकज प्रियम
31.10.2018