Thursday, November 29, 2018

463.छोड़ दूँ क्या?

छोड़ दूँ क्या?
पता है की कल तो मुझे भी है मरना
लेकिन मैं आज जीना छोड़ दूँ क्या?
पता है खंजर का काम करती है नैना
निगाहों का जाम पीना छोड़ दूँ क्या?
पता है दिलों के ज़ख्म यूँ नहीं भरते
मुहब्बत से ज़ख्म सीना छोड़ दूँ क्या?
पता है आग लग जाती है बरसातों में
मस्त सावन का महीना छोड़ दूँ क्या?
पता है प्रियम कोई सगा नहीं अपना
बचपन का दोस्त कमीना छोड़ दूँ क्या?
©पंकज प्रियम
29.11.2018
©पंकज प्रियम

462.ख़्वाब

ख़्वाब

पलक जो बंद कर देखा,उसे ही ख़्वाब कहते हैं
पलक जो खोल कर देखा,उसे भी ख़्वाब कहते हैं।
निगाहों के समंदर में, हसीं एक ख़्वाब जो लहरा,
उड़ा दे नींद पलकों की,उसे भी ख़्वाब कहते हैं।

©पंकज प्रियम

Monday, November 12, 2018

474.मुहब्बत वाली कॉफी

मुहब्बत वाली कॉफी

देर निःशब्द रात के सन्नाटे
में घड़ी की बस टिक-टिक
के बीच डायरी के पन्नों में
अपनी कविता सरिता की
मौजों में डूबता लहराता
नींद से उनींदी हुई बोझिल
अलसायी भारी पलकों से
उठाकर जब तुम्हें एक कप
चाय लाने को कहता हूँ
और न चाहते हुए भी तुम
हौले-हौले मुस्कुराते हुए
किचन में चली जाती हो।
सर्द हवाओं की ठिठुरन में
जब अपने नरम हाथों से
तुम थमाती हो मेरे हाथों में
गर्म कॉफी की एक प्याली
तो कहता है दिल हाँ यही!
है मुहब्बत वाली कॉफी।

सुबह नींद खुलने से पहले
तेरा उठना और उठकर
मेरे लिए हर रोज जगकर
तेरा सजना और सजकर
हाथों में चाय की प्याली
लेकर बिस्तर पे आकर
मुझे हौले हौले से उठाकर
मेरे हाथों में जब थमाती हो
तुम गर्म चाय की प्याली
तो कहता है दिल हाँ यही!!
है मुहब्बत वाली कॉफी

ऑफिस में दिनभर थककर
जब बेहाल सा घर लौटकर
निढाल सा होकर पड़ता हूँ
तब फूलों सा मुस्कुराकर
अपने कोमल हाथों से मेरे
सर को हौले से दबाती हो
फिर गरम चाय की प्याली
मेरे हाथों में थमाती हो
तो दिल कहता है हाँ यही
है मुहब्बत वाली कॉफी।

©पंकज प्रियम

Sunday, November 11, 2018

473.नाम की सियासत

नाम की सियासत

बदल दो नाम तुम सारे,बदल दो काम तुम प्यारे
गरीबी ही संवर जाए,करो वह इंतजाम तुम प्यारे
नहीं भूखा कोई सोये, नहीं नैना कोई रोये
मिले सम्मान औरत को,बसा इक धाम तुम प्यारे।

फंसा है पेंच मन्दिर का, सुप्रीम कोर्ट में प्यारे
लगेगा नाम सियावर का, एयरपोर्ट में प्यारे
नहीं मन्दिर का मसला है,नहीं मस्जिद का झगड़ा है
सियासी खेल तमाशा ये,दिखता वोट में प्यारे।

©पंकज प्रियम

Friday, November 9, 2018

471.आदमी कैसे खुदा हो जाएगा

खुद से कोई कैसे जुदा हो जाएगा
आदमी कोई कैसे खुदा हो जाएगा।
जिस्म से भले ही जान निकल जाए
रूह से कोई कैसे बेवफ़ा हो जाएगा।
जिस्म नहीं रूह तक मुझको जाना
सफ़र भला कैसे आसां हो जाएगा।
मुहब्बत पाक इबादत है जानेजाना
इश्क़ कर लो दिल नादां हो जाएगा।
दिल की बातें दिल को ही समझाना
मुहब्बत का वहीं फैसला हो जाएगा।
नहीं करना तू जल्दबाज़ी में फैसला
ग़लत फैसलों से फासला हो जाएगा।
दुनियां बहुत देखी है तुमने तो प्रियम
साथ चलने से तुझे हौसला हो जाएगा।
©पंकज प्रियम

472.आना चाहता हूँ

* गजल
* काफिया - आना
* रदीफ़ -- चाहता हूँ
गजल
आना चाहता हूँ
तेरी जिंदगी में इस कदर आना चाहता हूँ
जिस्म नहीं रूह में उतर जाना चाहता हूँ।
चलो माना तू खुद एक हसीन ख़्वाब है
तेरे ख़्वाब में हर पहर समाना चाहता हूँ।
चलो माना तेरा हुश्न बहुत लाज़वाब है
तेरे हुश्न को इश्क़ से सजाना चाहता हूँ।
चलो माना की तू दहकता आफ़ताब है
तेरे शोलों में खुद को जलाना चाहता हूँ।
चलो माना कि तू खुद महकता ग़ुलाब है
तेरी खुशबू से बदन महकाना चाहता हूँ।
चलो माना तू खुद ही बहकता शबाब है
तेरे हुश्न में खुद को बहकाना चाहता हूँ।
चलो माना कि ये दुनियां बड़ी खराब है
तुझे खुद पर भरोसा दिलाना चाहता हूँ।
चलो माना कि तू खुद नशा-ऐ-शराब है
होठों से तुझको जाम पिलाना चाहता हूँ।
चलो माना की तू खुद इश्क़ का खुदा है
तेरी इबादत में फूल मैं गिराना चाहता हूँ।
चलो माना कि तू खुद इक हसीं ग़ज़ल है
तेरी रदीफ़ से काफ़िया मिलाना चाहता हूँ।
चलो माना "प्रियम" का दिल शायराना है
तुझे अपनी सुंदर ग़ज़ल बनाना चाहता हूँ।
©पंकज प्रियम
09/11/2018

Thursday, November 8, 2018

470.होठों से जाम छलकता है


आँखों से पैगाम झलकता है
तेरे होठों से जाम छलकता है।

तेरा हुश्न ही लाज़वाब है ऐसा
लगे की रोज चाँद निकलता है।

एक मोड़ है जवानी का ऐसा
जहां पर यूँ कदम फिसलता है।

तू चाँद है या कहूँ आफ़ताब
तुझसे ही ये मौसम बदलता है।

तू ख़्वाब है या है हसीं ग़ुलाब
मिलने को क्यूँ दिल मचलता है?


दूर तुझसे जो रहता है प्रियम
दिल ये मुश्किल से सम्भलता है।
©पंकज प्रियम

Wednesday, November 7, 2018

469.दीवाली होगी

शुभ दीवाली होगी
मन का तिमिर जब मिट जाएगा
तन का भेद जब सिमट जाएगा
प्रस्फुटित होगा जब ज्ञान प्रकाश
अमावस में भी चमकेगा आकाश
घर घर में जब खुशहाली होगी
समझना तब शुभ दिवाली होगी।

जब नौजवानों का उमंग खिलेगा
दिल से दिल का जब तरंग मिलेगा
नव सर्जन का जब होगा उल्लास
शब्द अलंकारों का होगा अनुप्रास।
जब मस्ती अल्हड़ निराली होगी
समझना तब शुभ दीवाली होगी।

हर हाथ को जब काम मिलेगा
हर साथ को जब नाम मिलेगा
कर्ज में डूबकर ना मरे किसान
फ़र्ज़ में पत्थर से न डरे जवान
जीवन में ना जब बदहाली होगी
समझना तब शुभ दीवाली होगी।

भूखमरी, गरीबी और बेरोजगारी
इससे बड़ी कहाँ और है बीमारी
इन मुद्दों का जब भी शमन होगा
सियासी मुद्दों का तब दमन होगा
गली-गली सड़क और नाली होगी
समझना तब शुभ दीवाली होगी।

जब सत्य-अहिंसा की जय होगी
संस्कृति-संस्कारों की विजय होगी
जब हर घर ही प्रेमाश्रम बन जाए
फिर कौन भला वृद्धाश्रम जाए।
मुहब्बत से भरी जब थाली होगी
समझना तब शुभ दीवाली होगी।

जब कोख में बिटिया नहीं मरेगी
दहेज की बेदी जब नहीं चढ़ेगी
जब औरतों पर ना हो अत्याचार
मासूमों का जब ना हो दुराचार।
जब माँ-बहन की ना गाली होगी
समझना तब शुभ दीवाली होगी।

मुद्दों की फेहरिस्त है लम्बी इतनी
लंका में पवनसुत पूंछ की जितनी
सब पूरा होना समझो रामराज है
राम को ही कहाँ मिला सुराज है!
अयोध्या में जब वो दीवाली होगी
समझना तब शुभ दीवाली होगी।
©पंकज प्रियम
7.11.2018

Sunday, November 4, 2018

468.माटी


झुर्रियों से झांकती ये दर्द भरी मुस्कान
काँपते कमजोर हाथों से सजी दूकान।

इंतजार करती बूढ़ी आंखे,लेके सम्मान
माटी के बरतन भरे,सजा धजा सामान।

आया पर्व प्रकाश का,खुशी का त्यौहार
आओ आओ कहां गए हो सब खरीदार?

माटी के बर्तन से ही सजता मेरा घरबार
माटी माटी जिंदगी,माटी ही मेरा व्यापार।

प्लास्टिक बर्तन से अब करते सब प्यार
चायनीज लड़ियों से सजा खूब बाजार।

मेरी भी वर्तन खरीद,तो चले मेरा संसार
मेरे घर चूल्हा जले,मने दीवाली त्यौहार।
©पंकज प्रियम

467.सरकार

सरकार
सरकार का नही रहा अब कंट्रोल 
फिर मंहगा हो गया डीजल पेट्रोल.

गैस-डीजल के भी बढ़ते दाम
रोटी-नमक भी नहीं अब आम।
खाना भी अब खजाना होगा
म्यूजियम में ही सजाना होगा।
गरीबों को बस मिलती फटकार
कॉरपोरेट की जेब में सरकार।
जनता को छोड़ा है बीच बाजार
कल्याणकारी नहीं अब सरकार।
कुछ नहीं खुद करती सरकार
पीपीपी मोड पे चलती सरकार।
किसानों में कर्ज का हाहाकार
माल्या मोदी हो जाता तड़ीपार।
खूब हवाई सैर करती सरकार
जनता पे पड़ती महंगाई की मार।
©पंकज प्रियम

Saturday, November 3, 2018

466.धूप-दीप

धूप-दीप से तुम करो,चाहे हवन हजार।
मन में बैठा मैल जो,सब पूजन बेकार।।

धूप-दीप हर्षित करे, जैसे फूल बहार।
तनमन भी गर्वित करे,पाकर रूप निखार।।

धूप-दीप घर घर जले,आया फिर त्यौहार।
एक दीया कुम्हार का, लेकर दो उपहार।।

धूप-दीप से है सजा,जगमग ये संसार।
धूप-दीप पूजन-हवन,महकाए घरबार।।

धूप-दीप के मेल से,बह शीतल की धार।
तन को भी हर्षित करे,मन को मिले करार।।

©पंकज प्रियम
गिरिडीह,झारखंड

465.सवाल

सवाल
हमने पूछा भी नहीं क्या हाल है?
देखा चेहरे पर प्रश्नों का जाल है।
सिलवटों से उलझती लगी जिंदगी
मानो हर पहर जी का जंजाल है।
हरवक्त किया वक्त से जो बन्दगी
वक्त के हाथों ही हुआ हलाल है।
बात-बात में भी दिखती गन्दगी
हर बात पे ही तो हुआ बवाल है।
सवालों के भँवर में फंसा है प्रियम
मेरे सवालों पर भी उठा सवाल है।
©पंकज प्रियम

Friday, November 2, 2018

463.गुजारिश

मुक्तक .गुज़ारिश

गुजारिश है मेरे दिल की,कभी तुम दूर ना करना
गुजारिश है मेरे मन की,कभी मजबूर ना करना
मैं तेरा प्रेम हूँ दिलवर हूँ, तू मेरी हर ख़्वाहिश है
मुहब्बत के सफ़र में तुम,कभी मग़रूर ना करना।

©पंकज प्रियम

Thursday, November 1, 2018

462संभालो मुझे

बसा लो मुझे
अपने दिल से न ऐसे तो निकालो मुझे
गैरों पे नहीं भरोसा,तुम्हीं सम्भालो मुझे।
मैं तुम्हारा मुकद्दर हूँ दिल से ही पूछ लें
इस तरह बारबार,इश्क़ में न टालो मुझे।
डूब रहा हूँ मैं तेरी मुहब्बत के भंवर में
बढ़ाओ हाथ अपना और बचालो मुझे।
बहुत बैचेन करती है तेरी खामोशियाँ
थोड़ा हँसो और साथ में हंसा लो मुझे।
मेरे लबों की हंसी गर नहीं तुझे गंवारा
आँखों में भर के आँसू, रुला लो मुझे।
चले जाना बेशक मुझे छोड़कर तन्हा
कुछ पल ही सही पास  बिठालो मुझे।
हूँ प्रियम तेरे मुहब्बत का ही आशिक़
दिल में न सही रूह में बसा लो मुझे।
©पंकज प्रियम

461.वो माँ है

माँ
छोटी छोटी बातों का रखती जो ध्यान
मोटी मोटी बातों से रहती जो अनजान
नीचे धरती पे देखा जो इक आसमान
वो माँ है..वो माँ है..हाँ वो ही तो माँ है।
पलकों में रखती वो मेरी आँखों में सोती
निकले जो मेरे आँसू,मेरे नयनों से रोती
गोदी में खुशियां, आँचल दुनियां जहान
वो धरती..वो नदिया..वो ही आसमां है।
वो माँ है...
ममता की मूरत है या भगवान की सूरत
रहती सदा वो तत्पर,जब पड़ती जरूरत
सारी खुशियां करती अपनी जो बलिदान
वो जननी. वो दरिया. वो दया प्रतिमा है।
वो माँ है...
छोटे छोटे निवालों से,ऊंचे ऊंचे ख्यालों से
घर अंदर दीवारों से,बाहर दुनियावालों से
मुझको बचाके रखने को होती जो परेशान
वो देवी..वो करुणा...वो ही शील क्षमा है।
वो माँ है..
काली रात अंधेरों में,शरत चंद्र उजालों में
घर के गलियारों में,मस्जिद औ शिवालों में
दर दर मांगे वो मन्नत, ख़ातिर अपने सन्तान
वो काली..वो दुर्गा..वो सीता.वो ही अम्मा है।
वो माँ है...
गुलाबी धूप की सर्दी सी,बरखा बूंदे नरमी सी
हवा मस्त वो बसन्ती सी,जलता सूरज गर्मी सी
हरपल करती रक्षा मेरी,जैसे कि वो है भगवान
वो खुशबू..वो चन्दन.. वो महकी इक फ़िजां हैं
वो माँ है..
रात देर जब जगता हूँ, सुबह देर जब उठता हूँ
हरबार उसे खुद से पहले,जगा खड़ा मैं पाता हूँ
मेरे आंखों से उसकी निंदिया,है कितनी नादान
वो लोरी..वो बिस्तर.वो निंदी वो ही तो सपना है।
वो माँ है..हाँ वो माँ है..मेरी माँ है..सबकी माँ है।
©पंकज प्रियम

460.मुक्तक।स्पंदन

मुक्तक

स्पंदन है तो तनमन है, उसी से बंध जीवन है
गति जो मंद पड़ जाए,समझ लो बंद जीवन है
अगर थकहार भी जाओ,कभी तुम हार ना मानो
समय के साथ चलने का,किया अनुबंध जीवन है।
©पंकज प्रियम

464.एक दूजे के लिए


एक दूजे के लिए

जाने उसमें ऐसी क्या कशिश थी?न चाहते हुए भी मेरी नजरें  उसकी ओर चली जाती थी। क्लास में काफी दिनों तक हम दोनों दो किनारों पर बैठते रहे लेकिन एक अदृश्य डोर हमें जरूर खिंचती थी। यह डोर तब प्रकट हुआ जब हम पहलीबार फील्डवर्क में निकले। रोलनम्बर आसपास होने की वजह से हमदोनों को एक ग्रुप में रख दिया गया। पहली बार बातचीत हुई और बीच में पड़ी संकोच की दीवार ढह गई।
उस ग्रुप में हमदोनों का एक अलग ग्रुप बन गया और फिर बातों का सिलसिला शुरू हो गया।  दोस्ती धीरे धीरे प्यार में कब बदल गई पता ही नहीं चला। लेकिन प्यार होता क्या है ये उससे मिलकर ही जाना। क्लास के बीच भी हमारी बातचीत इशारों में और पत्रों में चलती रहती। हम तो बस अपनी ही दुनियां में खोने लगे ।प्यार परवान चढ़ने लगा,उसके बिना एक एक पल जीना दुश्वार लगने लगा। मन करता हरवक्त उसके ही साथ रहूँ।वो हरक्षण मेरे पास बैठी रहे। जब भी मुझे कुछ होता वो परेशान छप जाती। मुझे गुस्सा आता तो वह घबरा जाती ,मैं भी उसके रूठने पर बैचेन हो जाता।उसकी मुस्कुराहट से मेरी सांसे चलती। उसका किसी और से बातें करना,मिलना जुलना ,किसी और कि तारीफ करने मैं बर्दास्त नही कर पाता और मैं नाराज हो जाता था। शायद हमारा जन्म जन्म का रिश्ता बना था। हमारा दिल एक हुआ ,हम  एक हुए ,जमाने ने हमें साथ कर दिया लेकिन  समाज और परिवार की दीवार ऊंची पड़ी गयी। कुछ प्रतिष्ठा के बंधन और कुछ ऊंच नीच की दीवार ने हमें विवश कर दिया। मैं भी अपने प्यार को तकलीफ नहीं देना चाहता था। मेरी जान किसी और कि हो गयी,मैं खड़ा देखता रहा।कितना विवश,कितना लाचार था मैं?
चाह कर भी कुछ नहीं  कर सका। जी कह रहा था वहीं चिल्ला चिल्ला के कहूँ-प्रिया तुम सिर्फ मेरी हो!
तुम कहाँ जा रही हो,पर लब खामोश पड़ गए।मैं उसे रुसवा कैसे करता भला?वह भी तो मजबूर थी,उसे भी तो दर्द हो रहा था। हमसे बिछड़ते,जाते जाते कह गयी-
प्रिया तो सिर्फ तुम्हारी है,वह तो कोई और है जो ब्याह कर किसी और के साथ जा रही है।
हां सच ही तो है! प्रिया हरपल मेरे साथ है वह तो कोई और है जिसे मैंने विदा किया। प्रिया में साथ तो हमारा कई जन्मों का नाता है। भला वह कैसे टूट सकता है?हम तो बने हैं #इक दूजे के लिए! कौन  अलग कर सकता हैं हमें?
©®पंकज प्रियम

31.10.2018