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Sunday, September 29, 2019

672. एक अधूरी दास्ताँ

आज अचानक मेरे सोशल पेज पर एक लड़की ने फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी। आदतन मैंने उसे स्वीकार कर लिया। ढेरों फ्रेंड्स है बस मैं भूल गया। अचानक उसने मुझे हेलो का मैसेज किया। चुकी प्रोफ़ाइल में कोई तस्वीर थी नहीं लेकिन उसके मेसेज में पता नहीं क्या कशिश थी कि मेरी उत्सुकता बढ़ गयी ।
"क्या हाल है? कैसे हैं?"
मैंने भी मेसेज भेजा
"बढिया हूँ. क्या आप मुझे जानती हैं? कभी हम मिले हैं?
"हाँ'
"कैसे?"
"आप राँची में रहते थे न वहाँ मेरा ननिहाल था।"
"अच्छा! किसके घर? मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी।
"वो सुरेश !वही तो मेरे मामा हैं।"
मैं अभी भी पहचान नहीं पा रहा था
"अच्छा आप किसकी बेटी हो?"
"रमा की"
"अरे मैं रूपा हूँ !"
"ओ हो! तो ऐसा बोलो न ! प्रोफ़ाइल में तो नाम पूर्णिमा है और हम तो तुम्हे रूपा के नाम से ही जानते हैं।"
"याद हैं न हम !"
"अरे! तुम्हें कैसे भूल सकता हूँ.कहाँ हो आजकल?"
" जमशेदपुर में"
"वहाँ क्या कर रही हो? तुम्हारा ससुराल तो गुमला है न"

"हाँ लेकिन अब हसबैंड के साथ नहीं रहती हूँ" हम दोनों अब अलग हो गए हैं ।
"क्यूँ क्या हुआ? फिर तुम क्या कर रही हो?
"जॉब कर रही हूँ?"
"आखिर हुआ क्या था बताता नहीं"
"छोड़िये यह बहुत लंबी कहानी है, कभी मिलकर सुनाऊँगी"
"खैर! और बताओ क्या हाल है?
"बस जी रही हूँ अपने बच्चों के लिए" कहकर ऑफलाइन हो गयी।
मैं सोचने लगा
"हे भगवान! ये तूने क्या किया। एक हँसते खिलखिलाते कोमल से फूल पर समय का कितना तेज धूप डाल दिया कि वह मुरझाने लगा है।"

मैं पुराने दिनों में खोने लगा कितनी हसीन,खुशमिजाज थी रूपा।

रूपा यानी पूर्णिमा
हाँ बिल्कुल पूनम के चाँद सी हसीन ,खूबसूरत और पहाड़ी नदी सा अल्हड़पन। पहली बार जब उसे देखा था तो बस देखता ही रह गया।
मैं किराए के मकान में रहकर पढ़ाई कर रहा था। मकान भले किराए का था मगर हम उस परिवार के एक सदस्य की तरह थे। कोई भेदभाव नहीं और मैं भी उनके हर कार्य में दिल से लगा रहता था। पूनम अपने ननिहाल आयी थी रहने को, उसमें कशिश ही ऐसी थी कि देख कर कोई भी आकर्षित हो जाय। मैं भी पहली नज़र में दिल हार बैठा आखिर मेरी भी उमर जवानी की दहलीज पर कदम रख चुकी थी। उसे देख दिल में अजीब सी बेताबियाँ बढ़ जाती।
पूनम की उम्र वही कोई सोलह-सत्रह साल की होगी, जवानी में अभी-अभी कदम रखा ही था, जवानी चेहरे पर फूटने लगी थी. एक रोज नहा कर खुले बाल किये चली आ रही थी, कपड़े भी आधे-अधूरे भींगे हुए थे जिससे उसके उभार साफ झलक रहे थे और उसपर भींगे लट काले नागिन से लहराते प्रतीत हो रहे थे,चोटियों से टकराती और फ़िसलती लटें कमाल का दृश्य प्रदर्शित कर रहे थे।  चाँद से मुखड़े पर पानी की बूंदे मोतियों से लग रहे थे। मैं तो बस देखता रह गया, दिल की धड़कनें लुहार की धौंकनी की तरह चलने लगी। मुझे पता ही नहीं चल रहा था कि मेरे साथ ऐसा क्यों हो रहा है। वह बिल्कुल मेरे करीब से गुजरी तो लगा हवा के झोंके में मैं भी बहता चला जा रहा हूँ। दिनभर बैचेन रहा हर बार उसकी खूबसूरती मेरी आँखों में छायी रही। रातभर करवटें बदलता रहा। पढ़ने का बिल्कुल ही मन नहीं कर रहा था। अगली सुबह जल्दी उठ गया और उसका इंतजार करने लगा। हम जिस मकान में रहते थे उसके बगल में ही उनलोगों का घर था लेकिन नहाने-धोने के लिए इसी मकान में आना पड़ता था। मैं बाहर बैठकर इंतजार करने लगा। थोड़ी देर बाद वह आयी ,आंखों से आँखे टकराई और मुस्कुरा दी। हाय! मेरा तो दिल तोते सा उड़ गया।


पारिवारिक सा मौहाल होने के कारण बातचीत शुरू हो गयी। उसका भी खिंचाव मेरी ओर होने लगा था। वह अक्सर मेरे कमरे की ओर आती और मुझसे बातें करती। अब तो उसे देखे बिना एक पल भी चैन नहीं मिलता था। मैं रोज इंतजार करता रहता। गेट पर कोई आहत होती कि मैं बाहर निकल आता। एक झलक पाकर ही सुकून मिल जाता।
उसे बंगला आती थी मैंने उसे कहा "मुझे भी सीखा दो न !
"ठीक है।"
फिर वह मेरी टीचर और मैं उसका स्टूडेंट बन गया। रोज आधे घण्टे मुझे बंगला सिखाने लगी। क-ख से शुरू कर वह मुझे "आमी तोमा के भालो बासी" यानी आई लव यू लिखना सीखा सीखा दी। हम तो हम घण्टो बैठकर गप्पे लड़ाने लगे। मेरे रोजमर्रा जीवन का हिस्सा बन गयी थी।
एक दिन वह मेरे कमरे पूजा का प्रसाद देने आयी और पास में बैठ गईं।बातचीत शुरू हो गयी। पता नहीं क्या -कुछ भी इधर-उधर की लेकिन उसकी बातें, उनकी हंसी और प्यारी सी मुस्कान का मैं दिवाना बन गया था। उससे दूर रहता तो बैचेन हो जाता और पास होता तो बेताबियाँ बढ़ने लगती। हम बिल्कुल पास बैठे थे वह बातें किये जा रही थी और मैं बस उसे देखता जा रहा था। उसकी गहरी नीली आँखें, सुंदर गुलाबी गाल और आग से दहकते होठों की लाली में  मैं डूबने लगा था। उसपर बिना दुपट्टे की झक सफेद रंग की समीज और सलवार ,उफ़्फ़!! ग़जब की खूबसूरत लग रही थी। बातों ही बातों में पता नही मुझे क्या हुआ और मैंने उसे अपने आगोश में भर लिया फिर उसके होठों को चूम लिया। 
वह अचानक से हड़बड़ा गयी और तुरंत उठ गयी, मेरी ओर बिना देखे वह बाहर निकल गयी। मैं भी अवाक रह गया
  "अरे! यह मैंने क्या कर दिया? मुझे डर लगने लगा पता नहीं वह क्या सोच रही होगी। किसी को कुछ बता दिया तो?
मैं सोचकर ही घबराने लगा।"
  उस रोज फिर वह इधर नहीं आयी मैं बैचेन हो गया लेकिन उसके घर जाने की हिम्मत भी नहीं ही रही थी। शायद यह बात उसने अपनी मामी को बता दिया था। अब उसका इधर आना कम हो गया था ।शायद घरवालों ने आने से मना कर दिया था। मैं उसे देखे बिना बैचेन हो रहा था। एक रोज वह आयी तो मैंने पूछा
"आजकल तुम दिखाई नहीं दे रही हो? क्या बात है ,नाराज़ हो मुझसे?"
"नहीं तो !"
,फिर? फिर तुम क्यूँ नहीं आ रही हो?
बड़े भोलेपन से उसने कहा-"आपने मुझे किस क्यूँ किया?"
"वो-वो मुझे पता नहीं क्या हुआ"

"तुम यहाँ क्या कर रही हो?जाओ अपना काम करो।" उसके मामा की कड़क आवाज़ सुन वह घबरा गयी और फिर तुरंत चली गयी। मैं भी अपने कमरे में आ गया।

फिर कई दिनों तक वह इस इधर नहीं आयी। उसकी मुझे आदत सी हो गयी थी उसे देखे बिना बिल्कुल ही मन नहीं लग रहा था।

बहुत दिनों के बाद आज वह आयी भी तो कुछ बात नहीं किया। मैंने कोशिश भी की,पूछा भी मगर उसने कोई जवाब नहीं दिया। मैं बैचेन हो गया उससे बात करने को , कागज़ के एक टुकड़े में बहुत बारीक अक्षरों में उसे पत्र लिखा और उससे दिल का हाल जानना चाहा।  उसने पत्र हाथ मे तो लिया लेकिन पढ़ा कि नहीं कोई जवाब नहीं दिया। 


कुछ दिनों बाद उसकी शादी तय हो गयी ,बड़े धूमधाम से शादी हो गईं मैं भी गया । उसवक्त थोड़ी बातचीत हुई। शायद बात बन्द करने का अफसोस उसे भी था। 

मैंने पूछा " अब तो तुम्हारी शादी हो रही है खुश हो न!"


हाँ ,लेकिन आपके जैसा प्यार करने वाला कहाँ होगा ?

बहुत शांत स्वर था उसका। 

मैं बस खमोश उसे देखता रहा,शादी हो गयी सुबह विदाई भी हो गयी । मैं वापस तो आ गया लेकिन उसकी यादें दिल मे दफ़न हो गयी। 

कुछ दिनों के बाद आगे की पढ़ाई के लिए मैं दूसरे शहर चला गया और यह कहानी वहीं ख़त्म हो गयी। कभी सोचा नहीं था कि दुबारा भी भेंट हो सकती है। आज जब उससे बात हुई तो सारी कहानी फ़िल्म के रील की तरह फिर से जेहन में दौड़ती चली गयी। एक छोटी सी नादानी ने हमें दूर कर दिया था अब शायद उसे सुधारने का वक्त आ गया है। 


©पंकज प्रियम



Thursday, November 1, 2018

464.एक दूजे के लिए


एक दूजे के लिए

जाने उसमें ऐसी क्या कशिश थी?न चाहते हुए भी मेरी नजरें  उसकी ओर चली जाती थी। क्लास में काफी दिनों तक हम दोनों दो किनारों पर बैठते रहे लेकिन एक अदृश्य डोर हमें जरूर खिंचती थी। यह डोर तब प्रकट हुआ जब हम पहलीबार फील्डवर्क में निकले। रोलनम्बर आसपास होने की वजह से हमदोनों को एक ग्रुप में रख दिया गया। पहली बार बातचीत हुई और बीच में पड़ी संकोच की दीवार ढह गई।
उस ग्रुप में हमदोनों का एक अलग ग्रुप बन गया और फिर बातों का सिलसिला शुरू हो गया।  दोस्ती धीरे धीरे प्यार में कब बदल गई पता ही नहीं चला। लेकिन प्यार होता क्या है ये उससे मिलकर ही जाना। क्लास के बीच भी हमारी बातचीत इशारों में और पत्रों में चलती रहती। हम तो बस अपनी ही दुनियां में खोने लगे ।प्यार परवान चढ़ने लगा,उसके बिना एक एक पल जीना दुश्वार लगने लगा। मन करता हरवक्त उसके ही साथ रहूँ।वो हरक्षण मेरे पास बैठी रहे। जब भी मुझे कुछ होता वो परेशान छप जाती। मुझे गुस्सा आता तो वह घबरा जाती ,मैं भी उसके रूठने पर बैचेन हो जाता।उसकी मुस्कुराहट से मेरी सांसे चलती। उसका किसी और से बातें करना,मिलना जुलना ,किसी और कि तारीफ करने मैं बर्दास्त नही कर पाता और मैं नाराज हो जाता था। शायद हमारा जन्म जन्म का रिश्ता बना था। हमारा दिल एक हुआ ,हम  एक हुए ,जमाने ने हमें साथ कर दिया लेकिन  समाज और परिवार की दीवार ऊंची पड़ी गयी। कुछ प्रतिष्ठा के बंधन और कुछ ऊंच नीच की दीवार ने हमें विवश कर दिया। मैं भी अपने प्यार को तकलीफ नहीं देना चाहता था। मेरी जान किसी और कि हो गयी,मैं खड़ा देखता रहा।कितना विवश,कितना लाचार था मैं?
चाह कर भी कुछ नहीं  कर सका। जी कह रहा था वहीं चिल्ला चिल्ला के कहूँ-प्रिया तुम सिर्फ मेरी हो!
तुम कहाँ जा रही हो,पर लब खामोश पड़ गए।मैं उसे रुसवा कैसे करता भला?वह भी तो मजबूर थी,उसे भी तो दर्द हो रहा था। हमसे बिछड़ते,जाते जाते कह गयी-
प्रिया तो सिर्फ तुम्हारी है,वह तो कोई और है जो ब्याह कर किसी और के साथ जा रही है।
हां सच ही तो है! प्रिया हरपल मेरे साथ है वह तो कोई और है जिसे मैंने विदा किया। प्रिया में साथ तो हमारा कई जन्मों का नाता है। भला वह कैसे टूट सकता है?हम तो बने हैं #इक दूजे के लिए! कौन  अलग कर सकता हैं हमें?
©®पंकज प्रियम

31.10.2018