कौन कहता है कि, मर्द रोते नहीं।
रोते तो हैं मगर आँसू बहाते नहीं।
पुरुषों का हृदय कोई पत्थर का नहीं होता
वहाँ भी धड़कती है एक जान किसी के लिये
एक पुरूष केवल पुरूष ही नहीं होता
होता है एक माँ का दुलारा, बाप का प्यारा
एक पत्नी का संसार और बच्चों का सहारा।
घर परिवार से बाहर दुनिया और समाज
माथे पर जिम्मेवारियों का कँटीला ताज
पुरूष भी रोता और सिसकता है
आंसुओं के बाढ़ को रोक लेता है
उसकी भी आँखे होती है नम
पी जाता है अंदर ही सारे गम।
बूढ़े माँ-बाप कहीं कमजोर न पड़ जाएं
बीवी-बच्चे कहीं उदास न हो जाएं।
इसलिए आँसुओ को दबाना पड़ता है।
चेहरे पर लाकर झूठी -सी मुस्कान
दिल में हर गम को छुपाना पड़ता है।
पुरूष तब रोता है जब वह तन्हा होता है
जीवन के भँवर में जब खुद को खोता है।
अकेले ही सारी दुनिया का बोझ ढोता है।
हाँ पुरूष भी अंदर-अंदर खूब रोता है।
पुरुष दिवस की बधाई।
कवि पंकज प्रियम