ऋतुराज बसन्त
धरती ने शृंगार किया हो चले सुगन्धित वन उपवन।
बासंती जो चली हवा, तो, झूम उठा सारा तन-मन।
फूल खिले हैं बागों में और वसुधा ओढ़ी पीली चुनर।
कुहू-कुहू कोयलिया गाये, गुंजारित कर रहे भ्रमर।
बौराये मकरंद की ख़ातिर, फिरते कलियों के आंगन।
बासंती जो चली हवा, तो, झूम उठा सारा तन-मन।
दुल्हन आज बनी है अवनी, अम्बर आज बना है कन्त।
प्रकृति ने बारात सजायी, आया जो ऋतुराज बसन्त।
फूलों ने जो खुशबू बिखेरी, महक उठा है आज चमन।
बासंती जो चली हवा, तो, झूम उठा सारा तन-मन।
नवकोंपल से शोभित तरुवर, हर्षित धरती और गगन।
होली सा खुमार चढ़ा है, नाचते गाते सारे मगन
सुर्ख दहकते अंगारों से... फूल पलाश भरे कानन।
बासंती जो चली हवा, तो, झूम उठा सारा तन-मन।