Friday, February 7, 2025

1005.ऋतुराज बसन्त

ऋतुराज बसन्त
धरती ने शृंगार किया हो चले सुगन्धित वन उपवन। 
बासंती जो चली हवा, तो, झूम उठा सारा तन-मन।

फूल खिले हैं बागों में और वसुधा ओढ़ी पीली चुनर।
कुहू-कुहू कोयलिया गाये,   गुंजारित कर रहे भ्रमर।
बौराये मकरंद की ख़ातिर, फिरते कलियों के आंगन।
बासंती जो चली हवा, तो, झूम उठा सारा तन-मन।

दुल्हन आज बनी है अवनी, अम्बर आज बना है कन्त।
प्रकृति ने बारात सजायी, आया जो ऋतुराज बसन्त।
फूलों ने जो खुशबू बिखेरी, महक उठा है आज चमन।
बासंती जो चली हवा, तो, झूम उठा सारा तन-मन।

नवकोंपल से शोभित तरुवर, हर्षित धरती और गगन।
होली सा खुमार चढ़ा है,         नाचते गाते सारे मगन
सुर्ख दहकते अंगारों से...    फूल पलाश भरे कानन।
बासंती जो चली हवा, तो, झूम उठा सारा तन-मन।

पंकज प्रियम कवि पंकज प्रियम

1 comment:

Admin said...

वाह, बसंत ऋतु की इस खूबसूरत प्रस्तुति ने दिल को छू लिया! सच में जब बसंती हवा चलती है तो पूरा माहौल खुशियों से भर जाता है, जैसे प्रकृति खुद नाच उठती हो। फूलों की खुशबू, कोयल की कुहू और पेड़ों की हरियाली सब मिलकर एक अनोखा जादू बुन देते हैं। आपकी कविता में बसंत की वो हर खुशी और रंग बखूबी नजर आती है, जो हमें जीवन में नई उमंग और ताजगी देती है। पढ़कर मन खुश हो गया, बसंत की इस झलक को फिर से जी उठाने के लिए धन्यवाद!