Thursday, October 24, 2013

मेरे गाँव का बुढ़ा पीपल

बुढ़ा पीपल 


बुढ़ा पीपल
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मेरे गाँव का,बुढ़ा पीपल 
गाँव के प्रवेश-द्वार पर 
खड़ा वर्षों से, दृढ अविचल। 
देख रहा, निर्बल निस्तेज 
आँखों से, यहाँ का परिवर्तन ।
हवा में सरसराती, पत्तियां
कहती व्यथा, गाँव की पलपल। 
बचपन से, देखा इसने 
इस राह गुजरते,लोगों को 
दुःख दर्द की,बातें कर स्मृत 
कैसी? होती है कम्पन 
राह गुजरते;गाँव में आते 
गाँव से कोई, बाहर जाते 
छांव में बैठते हैं, कुछ पल। 
तने पर पड़ी झुर्रियां, उम्र दर्शाती है 
तल पे चट्टान की परत, बतलाती है। 
कितनी बैठकें, हुई हुई यहाँ?
बारातें ठहरी, बैठी पंचायतें
कितनी महफिलें,जमीं यहाँ। 
धुंधला गयी, वक्त के कोहरे में 
इतिहास के सपनें, यहाँ!
पीपल की, टहनियों में टंगी
अनगिनत, मिटटी की हंडी
 कहती, जिंदगी की दास्ताँ।
साथी संग, छूट गये
दुनिया से नाता, तोड़ गये
राजा -रंक, यहाँ आकर
एक अस्तित्व, में मिट गए।

हमारे गाँव का, इतिहास पुरुष
सुखदुख, साक्षी सबल।
बच्चों का ये, हमजोली
खेलते यहाँ, पे सब होली।
थकेमांदे को, मिलता आराम
मौत का होता,यहाँ अंतिम काम 
तल में बहती,'बुढ़िया' निर्मल।
युगों से कर रही  चरण शीतल।

वक्त बदला, लोग बदले
कभी पसरा था,सुनसान यहाँ
बढ़ी आबादी,गांव के बदले
बन गये अब, कई मकान यहाँ।
'बुढ़िया' पे, चढ़ा पूल सबल
तन्हा पड़ा है, बूढ़ा पीपल।
सड़क, हो गयी है काली
 भाग रही, सरपट गाड़ियाँ।
 कोई थका, अब बैठता नही
मेमनों के भोजन, को लोग
आते है यहाँ, तोड़ने पत्तियां।
खातिर चूल्हे की चौखट,कभी हल
चलती है रोज, तन पे कुल्हाड़ियां
रोज ही टूटती है,इसकी डालियाँ।
हो रहा ठूंठ ,हरपल बन रहा निर्बल।
इन कुछ सालो में सिमट गया है
बड़ा साम्राज्य ,खड़ा लाचार
सह रहा सब
प्रतिकार का भी, नही रहा बल अब।
होली, की हुड़दंग नही
सियासत, की खेमेबाजी
लड़ने-लड़ाने की होती गुटबाजी।

कितना निरीह ,पीड़ित विकल
मेरे गाँव, का यह बुढ़ा पीपल। ।
------------------------पंकज भूषण पाठक "प्रियम " 




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