कहां खो गयी मानवता
क्या मर गयी संवेदना?
बीच राह कराह रही
पानी पानी गुहार रही
मदद को हाथ बढ़े नही
भीड़ तमाशबीन रही।
क्या असह्य रही वेदना
क्या मर गयी तू संवेदना?
जन रक्षा की जिसपर भार रही
वो भी देखो तस्वीर उतार रही
क्या ऐसे पुलिस की दरकार रही
क्या खो गयी इसकी भी चेतना
क्या तू मर गयी संवेदना?
समाज के पहरुआ अखबार रही
जनजागरण के पत्रकार हो तुम
दर्द से तड़पता क्या जान नही
क्या तुझमे भी बचा इंसान नही
इस वक्त भी खबर की दरकार रही
क्या यही पत्रकारिता की करार रही।
दो बूंद पानी को तरसते मुंह मे
गन माइक ठुसने की क्या दरकार रही
दो बाइट लेने की जगह
दो बूंद पानी पिलाते तो
शायद जान बच जाती
तब मानवता जग जाती
संवेदना भी बच जाती।
पर हाय यहाँ तो सब तमाशबीन रही
क्या हम इतने असंवेदन
अमानव बेगैरत इंसान रहे
औरों के दुख दर्द की नही
बस अपनी जान की परवाह रही
अब तो डूब ही मरो सब
चुल्लू भर पानी की दरकार रही
मन रही दिवस राष्ट्रीय एकता
पर जीर्ण शीर्ण है अखण्डता।
क्या खो गयी सच में मानवता
क्या सच मे मर गयी संवेदना?
.................पंकज भूषण पाठक"प्रियम"
31.10.2017
क्या मर गयी संवेदना?
बीच राह कराह रही
पानी पानी गुहार रही
मदद को हाथ बढ़े नही
भीड़ तमाशबीन रही।
क्या असह्य रही वेदना
क्या मर गयी तू संवेदना?
जन रक्षा की जिसपर भार रही
वो भी देखो तस्वीर उतार रही
क्या ऐसे पुलिस की दरकार रही
क्या खो गयी इसकी भी चेतना
क्या तू मर गयी संवेदना?
समाज के पहरुआ अखबार रही
जनजागरण के पत्रकार हो तुम
दर्द से तड़पता क्या जान नही
क्या तुझमे भी बचा इंसान नही
इस वक्त भी खबर की दरकार रही
क्या यही पत्रकारिता की करार रही।
दो बूंद पानी को तरसते मुंह मे
गन माइक ठुसने की क्या दरकार रही
दो बाइट लेने की जगह
दो बूंद पानी पिलाते तो
शायद जान बच जाती
तब मानवता जग जाती
संवेदना भी बच जाती।
पर हाय यहाँ तो सब तमाशबीन रही
क्या हम इतने असंवेदन
अमानव बेगैरत इंसान रहे
औरों के दुख दर्द की नही
बस अपनी जान की परवाह रही
अब तो डूब ही मरो सब
चुल्लू भर पानी की दरकार रही
मन रही दिवस राष्ट्रीय एकता
पर जीर्ण शीर्ण है अखण्डता।
क्या खो गयी सच में मानवता
क्या सच मे मर गयी संवेदना?
.................पंकज भूषण पाठक"प्रियम"
31.10.2017
3 comments:
mamrmik rachna
बेहतरीन पंक्तियाँ... साधुवाद
दर्द से तड़पता क्या जान नही
क्या तुझमे भी बचा इंसान नही
बहुत सुन्दर कविता है
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