Monday, June 8, 2020

846. कोरोना काल और साहित्य

*कोरोना काल और साहित्य* 

कहते हैं हर सिक्के के दो पहलू होते हैं वैश्विक आपदा कोरोना ने जहाँ एक तरफ भारी तबाही मचाई तो वहीं दूसरी तरफ जीने का नजरिया बदल दिया. सीमित संसाधनों में जीना सीखा दिया. कामकाज ऑफिस से चलकर वर्क टू होम हो गया. सब कुछ मानो ठप्प सा हो गया तो लोगों ने इसमें भी विकल्प की तलाश कर ली, बाज़ार से लेकर विद्यालय तक सबकुछ ऑनलाइन हो गया. साहित्य तो समाज का दर्पण होता है तो भला वह कैसे अछूता रहता ?
 इस कोरोना काल में एक बात बहुत अच्छी हुई कि सबको साहित्य सृजन और सकारात्मक सोच का बड़ा उन्मुक्त फ़लक मिल गया . झारखण्ड के परिप्रेक्ष्य में देखें तो यहाँ के रचनाकार शुरू से ही शिक्षा,साहित्य , समाज और राजनीति में उपेक्षित रहे हैं। 
अब तक मंच, साहित्य सृजन , कवि सम्मेलनों को अपनी जागीर समझने वाले बड़े-बड़े स्वनामधन्य स्थापित मंच और मठाधीशों का तिलिस्म टूट सा गया। कोरोना की वजह से मंचों के सारे आयोजन बन्द हो गए और बड़े बड़े हस्ताक्षर भी घरों में कैदी जीवन बिताने लगे। टेलीविजन के शो भी बंद हो गये ऐसे  संकट में सोशल मीडिया खासकर  फेसबुक लाइव ने वाकई एक बेहतरीन विकल्प दिया जहाँ लोग हजारों लाखों लोगों तक अपनी बात रखने में सक्षम हुए । मंचीय आयोजनों में भी लोग सिर्फ अपनी सुनाते हैं ,दूसरों को सुनने की क्षमता नहीं, वहां भी लोग फेसबुक और व्हाट्सएप पर ही जुड़े रहते हैं। अबतक बड़े बड़े प्रतिष्ठित मंच सिर्फ स्थापित रचनाकारो को ही मंच प्रदान करते रहे हैं, छोटे शहर कस्बों के कलमकारों को वे बड़ी हीन भावना से देखते हैं। अमूमन ऐसे बड़े मंचो पर किसी नवोदित या छोटे शहर या गांव के नवांकुरो को मंच देते ही नहीं और अगर देते भी हैं तो लगता कि बहुत बड़ा एहसान कर रहे । कोई नवोदित  मंच पर 2 मिनट से अधिक पढ़ता चला गया तो आयोजक बड़ी बद्तमीजी के साथ उन्हें काव्यपाठ छोड़ने को कह देते हैं। इस फेसबुक लाइव में  सबको अधिकार मिला अपनी बात कहने का, कविता शिल्प और शैली पर चर्चा एक अलग विषय  है लेकिन कवि के मन से निकला भाव छंदों के जोड़ घटाव में भले न उतरते हों लेकिन कथ्य और भाव सही हों तो उन्हें भी अवसर मिलना ही चाहिए। हर कोई एक दिन में तुलसीदास, कबीर या दिनकर तो नहीं बन जाता, अगर कोई सीखना चाहता है ,मंचों पर आना चाहता है तो उनके लिए यह फेसबुक माध्यम एक वरदान साबित हुआ । इस कोरोना काल में फेसबुक लाइव ने न केवल उनकी सृजनक्षमता बढ़ी है बल्कि एक नई पहचान भी मिली है। साहित्य के मामले में झारखण्ड जैसे राज्य में प्रतिभा तो भरी पड़ी है लेकिन उन्हें सही मंच नहीं मिल पाता है. कुछेक स्थापित साहित्यकारों को छोड़ दें झारखण्ड के नवोदित कलमकारों को स्थान मिलना संभव नहीं था लेकिन कोरोना काल में साहित्योदय ने उन कलमकारों को भी अंतरराष्ट्रीय फलक प्रदान किया जिन्होंने मंच पर कदम भी नही रखा था. झारखण्ड जैसे प्रान्त से अंतर्राष्ट्रीय स्तर का इतना बड़ा मंच पहले नहीं बन पाया था.  बाद कई  अन्य साहित्यिक संस्थाओं ने भी ऑनलाइन आयोजन शुरू किये लेकिन कुछ महीने के बाद सब थककर बैठ गये लेकिन साहित्योदय लगातार कलमकारों को मंच देता रहा. ऐसे विकट दौर में जब नंदन और कादम्बिनी जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाएं बंद हो रही थी तब साहित्योदय ने झारखण्ड से सौ पृष्ठों की रंगीन साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया. कोरोना काल में जब लोग बीमारी , बेरोजगारी और बेकारी से अवसाद में डूब रहे थे तब साहित्योदय ने लोगों को सकारात्मक सृजन कार्य में व्यस्त रखा. इस दौरान काव्यसागर , कोरोना काल , शब्द मुसाफिर जैसे पुस्तकों का प्रकाशन एक मील का पत्थर साबित हुआ. लोग कोरोना के अवसाद से उबर गये और फिर से जीना शुरू किया. 

सोशल मीडिया ने साहित्य को एक नई दिशा प्रदान की। साहित्य सृजन और प्रतिभाओं का प्रदर्शन किसी बड़े मंच या मठाधीश लॉबी का मोहताज़ नहीं रहा। आनेवाले कुछ वर्षों तक शायद ही पहले की तरह कोई मंचीय आयोजन हो सके। ऐसे में सोशल मीडिया का मंच ही सभी के लिए सशक्त मंच बनेगा। मंचीय आयोजन की अपनी सीमाएं और बेहिसाब ख़र्च भी है आज जितने बड़े-बड़े कवियों का काव्यपाठ इस माध्यम में जरिये हो सका शायद ही मंचीय आयोजन में  हो पाता. आज सभी बिल्कुल सुरक्षित घरों में रहकर  बड़े बड़े कवियों को बड़ी आसानी से सुन पा रहे हैं न तो किसी से पास मांगनी है और न ही महंगे टिकट खरीदने की जरूरत है। बड़े कवियों को तो ढेरो मंच मिल जाते हैं और बदले में लाखों रुपये फीस भी, लेकिन ऐसा नहीं है कि छोटे शहरों,गाँव कस्बों में प्रतिभाएं नहीं है! सोशल मीडिया का ही कमाल है कि रानू मण्डल जैसी प्लेटफॉर्म पर भीख माँग कर पेट भरनेवाली साधारण औरत भी बॉलीवुड तक का सफर तय कर सकी। आज हमारे विशेष कार्यक्रम साहित्य संग्राम ने कविता और पत्रकारिता को जोडकर नया कीर्तिमान हासिल कर लिया है। बहुत ही मामूली खर्च और व्यवस्था के अलावे  डिजिटल टीम की दिनरात की  मेहनत से यह कार्यक्रम बेहद सफल है। टीवी चैनलों में इस तरह के आयोजन और प्रसारण में करोड़ों रुपये ख़र्च होते हैं लेकिन हमलोगों की कुछ निजी सहयोग और पूरी मेहनत से इस तरह का कार्यक्रम सपन्न हो सका है। टीवी चैनलों में कवि सम्मेलन देखकर राँची, गिरिडीह, अंबिकापुर, बिलासपुर, देवघर, हज़ारीबाग जैसे छोटे शहरों के छोटे छोटे रचनाकारों के मन मे भी उन टीवी कार्यक्रमों में शामिल होने की कुलबुलाहट रहती होगी लेकिन उनतक पहुँच पाना सबके बस की बात नहीं। इस कोरोना काल में न केवल झारखण्ड के दूर -सुदूरवर्ती ग्रामीण साहित्यिक प्रतिभा को आसमानी फलक मिला वल्कि अमेरिका, कनाडा , जर्मनी, रूस, मारीशस, जापान, केन्या , लन्दन , इंग्लैड , अफ्रीका, अबुधाबी , कतर , तंजानिया  जैसे देशों के लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकारों, कलाकरों और संस्कृतिकर्मियों को झारखण्ड की धरती से जोड़ने का काम किया.  इस कोरोना काल में जहाँ उपेक्षित गुमनाम कलमकारों को फिर से नया जीवन मिला तो वहीं नये रचनाकारों को सृजन का नया आधार मिला है.  
"✍️पंकज प्रियम
कवि -लेखक -पत्रकार 

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