माना कि वो वक्त के हाथों मजबूर है।
लेकिन हकीकत में यहाँ सब मजदूर हैं।
मजदूर
लड़कपन भूख में खोता, जवानी पेटभर ढोता।
बहाकर रक्त खेतों में, पसीने की फसल बोता।
किया जो वक्त ने उसको, यहाँ मजबूर है इतना-
उदर की आग में जलकर, सदा मजदूर है सोता।।
सदा परिवार की ख़ातिर, परिश्रम जो कड़ी करते।
जलाकर देह अग्नि में, सभी का पेट वो भरते।
खुली आँखों सजाते हैं यहाँ वो ख़्वाब तो लेकिन-
सताती है उदर की आग तब मजदूर वो बनते।
©पंकज प्रियम
श्रमेव जयते
कवि पंकज प्रियम
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