समंदर हूँ मैं लफ़्ज़ों का, मुझे खामोश रहने दो, छुपा है इश्क़ का दरिया, उसे खामोश बहने दो। नहीं मशहूर की चाहत, नहीं चाहूँ धनो दौलत- मुसाफ़िर अल्फ़ाज़ों का, मुझे खामोश चलने दो। ©पंकज प्रियम
मिटाकर रंग नफ़रत का, मुहब्बत रंग तुम भर लो।
आपकी कविता में जो बात कही गई है की नफ़रत मिटाकर मोहब्बत का रंग भरने की, वह बहुत खूबसूरत है। यह हमें सिखाती है कि अगर हम अपने मन से गिले-शिकवे और दुश्मनी निकाल दें, तो ज़िंदगी और भी रंगीन हो जाएगी।
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आपकी कविता में जो बात कही गई है की नफ़रत मिटाकर मोहब्बत का रंग भरने की, वह बहुत खूबसूरत है। यह हमें सिखाती है कि अगर हम अपने मन से गिले-शिकवे और दुश्मनी निकाल दें, तो ज़िंदगी और भी रंगीन हो जाएगी।
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