Wednesday, November 27, 2013

ग्लैमर कि चकाचौंध में टूटते सपने…।

ग्लैमर कि चकाचौंध में टूटते सपने…। 
----पंकज भूषण पाठक 

मिडिया कि चमक और ग्लैमर जितनी बाहर दिखती है ठीक उसके उलट अंदर धुप्प अँधेरा होता है.मोटी फ़ीस देकर पत्रकारिता कि पढाई करने के बाद युवाओ के खवाब पर पंख लग जाते है और वो भी बुद्धू बक्से के प्राइम टाइम बुलेटिन में अपना चेहरा देखने का सपना देख लेता है। मिडिया कि मंडी के रूप में मशहूर दिल्ली में बिहार और झारखण्ड से हजारो युवा रंगीन सपने लेकर जाते है कुछ कि किस्मत बनती है तो कुछ बिखर जाते हैं। निजी कारणो से जिनके लिए दिल्ली दूर होता है उनके  लिए रांची -पटना ही मक्का-मदीना होता है। पहले तो एक -दो चैनलो के ही ब्यूरो ऑफिस थे लेकिन हाल के दिनों में कई चैनल यही से ऑनएअर हो रहे है जिससे विकल्प तो बढे लेकिन स्थायित्व कि समस्या ख़त्म नही हुई है। दूसरे कार्पोरेट घरानो कि तरह मिडिया हॉउस भी झारखण्ड को एक दुधारी गाय कि नजर से देखता है और चुनाव आते ही चैनलो कि बाढ़ आ जाती है जिसे लाने में पत्रकारिता जगत के कई चम्पादको का भी हाथ होता हैं जिनका काम ही होता है चैनलो को लांच कंर करोडो के वारे-न्यारे कर लेना। स्थिति तो ये है कि जिन्हे पत्रकारिता का ककहरा भी मालूम नही होता वो एक ब्यूरो हेड कि कुर्सी के लिए  करोडो का बिसनेस ऑफर कर देते है। मिडिया को बिजनेस का बढ़िया धंधा समझने वाली कम्पनिया इनके झांसे में भी आ जाती है और साल छह महीने तो भूल -भुलैया में बीत जाता है और जब रेवेन्यू कि बात आती है तो कंपनी के पसीने छूटने लगते है और चैनल को बंद करने का फरमान सुना दिया जाता है। कंपनी एक मिनट भी उन कर्मचारीओ के बारे में नही सोचती जो दिनरात एक कर चैनल को पहचान दिलाने में अपना योगदान देते है। चैनल बंद करने के फरमान के बाद उनके घर -परिवार पर क्या बीतेगी ये शायद सोचने कि फुर्सत हुक्मरानो के पास नही होता है। एक झटके हजारो -सैकड़ो पत्रकार रोड पे आ जाते है लेकिन इस फिल्ड के तुर्रमखाँ समझे जाने वाले तमाम तोपची खामोश बैठ जाते है। दुनिया भर के दर्द कि आवाज बनने कि बात कहने वाले पत्रकार अपना ही दर्द बयान नही कर पाते। दुसरो के हक़ के सरकार से लड़ जाने वाले पत्रकरों के हक़ में कोई खड़ा भी नही हो सकता। क्युकी जहाँ वो काम करते है वहाँ कंपनी के कोई नियम बहाल ही नही रहते। हर रोज किसी न किसी चैनल में छटनी कि बात चलती रहती है तो कोई  चैनल रातोरात अचानक बंद हो जाता है.चैनल वाले भी बस पोस्ट डेटेड चेक देकर फाइनल सेटलमेंट का अग्रीमेंट थमा देते है। देश के तमाम बड़े-छोटे मिडिया हॉउस में काम करने वाले पत्रकार इस बात के लिए निश्चिंत नही होते कि उनकी नौकरी सुरक्षित है। हरपल हर घडी ये डर सताता रहता है कि पता नही कब टर्मिनेशन का मेसेज आ जाएगा।  अगर सरकार हस्तक्षेप करे तो उसे फ्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन पर हमला करार दिया जाता है। आखिर उनतमाम नवयुवाओं का क्या कसूर है जो मिडिया को अपना कैरियर बनाने का सपना देख लेते है। उन तमाम मिडिया हॉउस को सोचना चाहिए कि अगर वो कंपनी नही चला सकते तो इस धंधे में नही आये। यु हजारो -लाखो युवाओ के ख्वाब न तोड़े।