काफिया -अती
रदीफ़ -है.
ग़जल
जिंदगी कुछ धुंधली कुछ शाम-सी ढलती है
स्याह रातों में खुद, गुमनाम सी जलती है ।
खुद से ही फैसले कर सजा भी खुद दे लेते हैं
नाम की ये जहाँ, कभी बदनाम भी करती है ।
यूँ तो कभी मैं पीता नही ,पर लडखडाता हूँ
गम-ए-इश्क भी जब दर्द का जाम भरती है.
भीड़ में भी तनहा, रहने की कसम खा ली
अपना होकर भी वो अनजान सी बनती है.
भीड़ में खो गया है लगता हर अक्स प्रियम
रुसवाई में तन्हाई अब निदान सी लगती है ।
-पंकज भूषण पाठक "प्रियम"
2 comments:
वाह !!! बहुत खूब.... सादर
धन्यवाद आपका
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