खतम हो गया अब दशहरे का मेला,
चलो फिर धकेलो जीवन का ठेला।
चले छोड़ अब तो गाँव की गलियां,
हवेली सा घर और प्यारी सी बगिया।
डहर ताकती वो बाबा की आँखें,
वो मैया का पल्लू से आँसू छिपाना।
खतम हो गया..../
वही फिर से ऑफिस, वही फिर उलझन,
समय की वो किल्लत, उधारी का जीवन।
बरस फिर अगले मिलेगा यहाँ कौन?
शहर भागते सब ये गांवों का रेला।
खतम हो गया.../
दशहरा दीवाली, छठ और ये होली
नहीं पर्व केवल, है रिश्तों की डोली।
खिलते हैं चेहरे, चमकती है आँखें,
तरसते बरस भर जो तन्हा अकेला।।
खतम हो गयी---/
बच्चों को मिलती है दादी की गोदी,
दादा के संग सब करे खूब किलोली।
संगी और साथी वो बचपन के सारे-
वो खेतों की आरी वो माटी का ढेला।
खतम हो गया---/
कवि पंकज प्रियम
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