मुक्तक घटा घनघोर है छाई , लगे ज्यूँ शाम गहरायी. दिखे न राह कुछ आगे, लगे ज्यूँ धुंध लहरायी. मगर जब बात बच्चों की, भला माँ-बाप क्या सोचे- पकड़ छतरी निकल आये, भले बरसात है आयी.. ✍️पंकज प्रियम
समंदर हूँ मैं लफ़्ज़ों का, मुझे खामोश रहने दो, छुपा है इश्क़ का दरिया, उसे खामोश बहने दो। नहीं मशहूर की चाहत, नहीं चाहूँ धनो दौलत- मुसाफ़िर अल्फ़ाज़ों का, मुझे खामोश चलने दो। ©पंकज प्रियम
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