डर
हाँ मैं भी अब डरने लगा हूँ,
खौफ में रोज मरने लगा हूँ।
शुक्रवार को सड़क पर निकलती भीड़ से
भीड़ के हाथों फेंके जा रहे पत्थरों से
गाड़ियों पर चलते डंडों से
हर तरफ दहकते शोलों से
नफरती जहरीले बोलों से
पुलिस के सर से बहते लहू से
सुनसान रात के घुप्प अंधेरे में
घर, मन्दिर और दुकानों पर
फेंके जा रहे पेट्रोल बमो से।
क्योंकि हम हैं बहुसंख्यक!
इसलिए करता कोई प्यार नहीं,
सच बोलने का भी अधिकार नहीं।
सब चुपचाप देखते रहते है यहाँ
होता रोज अपने भगवान का अपमान!
सच में सह नहीं सकते,
पर कह भी नहीं सकते।
अपने ही देश में यूँ डर रहे हैं लोग
रोज खुद से खुद मर रहे हैं लोग
कब कहाँ हो जाये दंगा?
गत शुक्रवार जब हर तरफ
हो रही थी पत्थरबाजी
तब ऑफिस से घर जाते वक्त
एक अजीब डर था मन में
पता नहीं किस गली से
कोई पत्थर कहीं से आकर
कहीं गिर जाए न गाड़ी पर।
मेरी तरह ही क्या?
अब हर आदमी डरने लगा है?
पत्थरो के खौफ से मरने लगा है।
पत्थरो से तो होता रहा है निर्माण!
हर पत्थर में हमने ढूंढा है भगवान!
फिर ये पत्थर कैसे आख़िर?
बन गए इस कदर हिंसा के सामान?
फिर से आ रहे शुक्रवार को
शुक्र मनाता हूँ कि खत्म हो यह डर
हर तरफ़ हो शांति और न चले पत्थर।
कवि पंकज प्रियम
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