समंदर हूँ मैं लफ़्ज़ों का, मुझे खामोश रहने दो, छुपा है इश्क़ का दरिया, उसे खामोश बहने दो। नहीं मशहूर की चाहत, नहीं चाहूँ धनो दौलत- मुसाफ़िर अल्फ़ाज़ों का, मुझे खामोश चलने दो। ©पंकज प्रियम
Sunday, March 27, 2011
मन का राग बैरागी है ...
क्या कहूँ मन की बात ,ये सब सह लेता है
कभी भीड़ में तनहा होता
कभी तन्हाईओं में भी खुश हो लेता है ।
सागर की लहरे भी कम पड़ जाती
कभी अश्को से भी प्यास बुझा लेता है ।
कहा तो खुद पे भी यकीन नही
चाहता है जिसे सर पे बिठा लेता है ।
न हो यकीं तो पूछ लो दिल से
कैसे रोते हुए भी सबको हँसा देता है ।
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