Monday, November 1, 2010

मैं बदन बेचती हूँ--

मैं बदन बेचती हूँ--
उस औरत के तन का
कतरा-कतरा फुट बहा है
तभी तो चीख-चीख कहती
हाँ मै बदन बेचती हूँ
अपनी तपिश बुझाने को नही
पेट की भूख मिटाने को नही
मै बेचती हूँ बदन ,हां बेचती हूँ मै
भूख से बिलखते रोते -कलपते
दो नन्हे बच्चो के लिए
मैं अपनी लज्जा अपनी अस्मत बेचती हूँ
छाती से दूध क्या
लहू का एक कतरा तक
न निकला सूखे होठो के लिए
आँख के आंसू भी कम पड़े तो
इन अबोध बच्चो की खातिर
आपने सिने को गर्म सलाखों से भेदती हूँ
हाँ मै बदन बेचती हूँ
ठण्ड से ठिठुरते बदन पर
धोती का इक टुकड़ा भर
कैसे इन बच्चो को तन से चिपका रखा
देखि नही किसी ने मेरी ममता
नजर पड़ी तो बस
फटे कपड़ो से झांकते
मेरे जिस्मो बदन पर
दौड़ पड़े सब पागल कुत्तो की तरह
इनके पंजो से बचने की खातिर
हवसी नजरो से बदन ढंकने की खातिर
मै आँखों की पानी बेचती हूँ
दर्द से कराहते बच्चो की खातिर
हाँ मैं बदन बेचती हूँ
पर इन सफ़ेदपोशो के जैसे
अपने ज़मीर नही बेचती हूँ
चाँद सिक्को की खातिर
अपना ईमान नही तौलती हूँ
कोई चोरी पाप नही कोई
जहां के भूखे भेड़ों से बचने की खातिर
अपनी दौलत नीलाम करती हूँ
इन मासूम बच्चो की दो रोटी की खातिर
हाँ मै बदन बेचती हूँ
आखिर हूँ तो एक माँ
नही देख सकती बच्चो का दर्द
नही सुन सकती उनकी चीत्कार
उन्हें जीवन देने की खातिर
खुद विषपान करती हूँ
हाँ मैं बदन बेचती हूँ---
---पंकज भूषण पाठक "प्रियम "

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