कैसर से भी खतरनाक अवाँछित कार्य के दबाव
काम का दबाव और मौत
कवि पंकज प्रियम
व्यथित हूँ यह सुनकर की PTI के राँची ब्यूरोहेड पी बी रामानुजम जी ने आत्महत्या कर ली है। हमेशा चेहरे पर मुस्कान लिये रहते थे। जब भी बात होती बहुत शांत और शालीनता से अपनी बात रखते। कहा जा रहा है कि संस्थान के कार्य दबाव के कारण उन्होंने यह कदम उठाया। मौत के कुछ पहले ही देर रात आख़िरी ख़बर भी फाइल की जो उनकी कर्तव्यनिष्ठा बताने के लिए काफी है। सोचिए जो व्यक्ति मरने जा रहा हो वह अपने संस्थान के लिए अंत समय मे भी आयी ख़बर को भेजता है।
किसी के भी कार्य के दौरान या घर पर आत्महत्या की खबर बहुत ही व्यथित करने वाला होता है. यूँ तो आत्महत्या के कई कारण हो सकते हैं लेकिन कार्य में अवांछित दबाव कैंसर से भी खतरनाक होता है. चाहे वह किसी भी क्षेत्र में हो लेकिन कार्य की गुणवत्ता कभी भी दबाव से नहीं आती. व्यक्ति कार्य अपने घर-परिवार के लिए ही करता है लेकिन वही कार्य अगर उसके मन की शांति भंग करे. घर -परिवार के लिए वक्त नहीं मिले और अवांछित दबाव हो तो वह ज्वालामुखी की तरह फट जाता है. या तो वह विद्रोह के स्वर धर लेता है या फिर स्वयं का जीवन खत्म करने पर अमादा हो जाता है. घर -परिवार में भी जब अनावश्यक तनाव होता है तभी अपनी जान लेने का कठिन निर्णय ले लेता है.
अपने 15 साल की सक्रिय पत्रकारिता में मैंने स्वयं महसूस किया कि विशुद्ध पत्रकारिता के लिए हरवक्त संक्रमण काल होता है। काम का दबाव हरवक्त रहता है , 1 ब्रेकिंग का छूटना आपके 99 एक्सलूसिव खबर पर पानी फेर देता है। उसपर से हरवक्त कम्पनियों की कोस्ट कटिंग के बहाने ...अभी कोरोना काल में सभी की जान खतरे में हैं। लोग घरों में बैठकर टेलीविजन पर मौत के आंकड़ों को देखकर मीडिया और सरकार को कोसते रहते हैं लेकिन उन्हें यह पता नहीं कि कितना खतरा मोल लेकर मीडिया, पुलिस, सरकारी कर्मी, अधिकारी कार्य करते हैं। आज पूरी दुनियां घरों में कैद है लेकिन हम जैसे लोग जान पर खेलकर रोज ऑफिस जाते हैं, लोगों से मिलते हैं काम करते हैं। निजी कंपनी हो या फिर सरकार, आज सबको अपने लक्ष्य को पूर्ण करने का दबाव झेलना पड़ रहा है। कोरोना ने सबको बाहरी बैठक, आयोजन पर रोक लगाया तो लोगों ने zoom ,गूगल और jio जैसे app ढूंढकर मीटिंग शुरू कर दी। पहले तो ऑफिस आवर में ही मीटिंग होती थी अब तो रात के 9 बजे या फिर छुट्टियों के दिन भी मीटिंग के लिए तत्काल व्हाट्सएप पर मैसेज आ जाता है। अब आप मर रहे हों या जी रहे हों, निकर में हों या लुंगी में मीटिंग में जुड़ना पड़ता है। महीनों तक वेतन न मिलने के बावजूद घर में क्या हालत है? कैसे जी रहा है यह देखने समझने की फुरसत न तो निजी कंपनियों को है और न ही सरकार को, उसे बस हर हाल में अपनी पीठ थपथपाने के लिए अनप्रैक्टिकल टारगेट पूर्ण कर के दिखाना है। चाहे इसके लिए लोग दबाव में आकर आत्महत्या ही क्यों न कर लें। 2 मिनट का मौन रखकर शोक सभा होगी, "बेचारा बहुत अच्छा था"- कह हाथ झाड़कर चलते बनेंगे या फिर भाषण देंगे आख़िर आत्महत्या क्यों की, कायर था आदि-आदि। मैं भी आत्महत्या को गलत ही मानता हूँ लेकिन कुछ तो ऐसी परिस्थितियां आ ही जाती है जब लोगों के सोचने समझने की सारी शक्ति खत्म हो जाती है। बात 2014-15 की है तब मैं पाकुड़ में पदस्थापित था। जिस लोकल ट्रेन से सफ़र कर रहा था उसमें अंडाल स्टेशन पर एक 25-26 साल का आर्मी का जवान हमारी बोगी में चढ़ गया जबकि उसके बाकी साथी दूसरी बोगी में थे। कई बार उतरने की कोशिश करता रहा। हम सभी समझ रहे थे कि शायद जल्दबाज़ी में गलत बोगी में चढ़ा है इसलिए उतरना चाह रहा है। हम सबने मना किया कि अगले स्टेशन पर बोगी बदल लेना। ठंड में भी वह पसीने से तरबतर था। खुद में बड़बड़ा रहा था कि- मेरी कोई गलती नहीं है मेरी माँ बीमार थी इसलिय घर आया था। उसकी बातों से लग रहा था कि शायद छुट्टी नहीं मिलने के कारण ड्यूटी से भागकर अपनी माँ को देखने आया हो और अब दण्ड का डर सता रहा हो। वह कई बात गेट के पास जाता फिर अंदर बैठ जाता। यही क्रम चलता रहा। फिर वह गेट के साथ लगकर खड़ा हो गया। ट्रेन ने जैसे ही अपनी रफ़्तार तेज की उसने हाथ छोड़ दिया और खडाक..........।
सभी अवाक......। ट्रेन इतनी रफ्तार में थी कि रोकी नहीं जा सकी। उस पूरी रात मैं सो नही पाया और आज भी वह घटना जेहन से जाती नहीं। पिछले दिनों सुशान्त की आत्महत्या की ख़बर आयी तो मैंने एक कविता लिखी थी कि आत्महत्या करनेवाला हीरो नहीं हो सकता है। हालांकि अब यह हत्या का मामला नज़र आ रहा है अतः मैंने अपनी उस कविता की बलि दे दी है। हालांकि आत्महत्या को मैं कभी सही नहीं मानता और इसे जीवन के संघर्षों से भागने का सबसे आसान तरीका समझता हूँ लेकिन किसी के लिए भी अपनी जान लेना बहुत कठिन होता है। खुद से अधिक अपने परिवार और बच्चों की चिंता सामने आती है। कोरोना में इस गम्भीर संकट में रोज ऑफिस जाता हूँ, सरकार के लक्ष्य को प्राप्त करने के उपरी दबाव में लगतार कार्य करता हूँ, लोगों से मिलता हूँ। यह सोचकर ही डर लगता है कि कुछ हुआ तो फिर बच्चों को कौन देखेगा? घर परिवार कौन संभालेगा? आप सोच सकते हैं कि ऐसे कितने ही सवालों से जूझने के बाद रामानुजम जैसे वरिष्ठ पत्रकार को भी आत्महत्या जैसे कदम उठाना पड़ा होगा। पत्रकार पूरी दुनिया से सवाल कर सकता है लेकिन मीडिया संस्थानों पर ही सवाल नहीं उठा सकता है। अगर किसी ने हिम्मत की तो उसे नौकरी से निकाल दी जाती है। यही स्थिति सरकारी गैर सरकारी सभी जगह लागू होता है। प्रबंधन में शामिल बड़े अधिकारी या पत्रकार अपनी कुर्सी बचाने के लिए कर्मचारियों से अधिक प्रबंधन के प्रति समर्पित हो जाते हैं। मैंने कई बार अपने यहाँ कर्मचारियों के हित में बड़े अधिकारियों से लड़ाई मोल ले ली जिसका खामियाजा हमेशा भुगतना पड़ा लेकिन मैंने देखा है कि जिनके लिए आप लड़ाई लड़ते हैं, अपने प्रबंधन से झगड़ा मोल लेते हैं वही मातहत कर्मचारी सिर्फ अपना स्वार्थ देखते हैं और जब वक्त आता है तो वही आपके साथ खड़ा नहीं होते। इसलिए ज़िन्दगी आपकी अपनी है सबको अपनी लड़ाई खुद लड़नी पड़ती है। जिंदगी संघर्ष का नाम है इसे जीयें और अपने अंदर के तनाव को परिवार और दोस्तों में शेयर करें। खुद को सृजनात्मक कार्यो में इतना व्यस्त कर दें कि तनाव फटकने का नाम न ले। सही को सही और गलत को गलत कहने की हिम्मत रखें। भगवान ने जन्म दिया है तो भोजन भी वह देगा। कोई न तो किसी का जीवन चलाता है और न कुछ बिगाड़ ही सकता है। सत्य परेशान जरूर होता है लेकिन जीत सदैव उसी की होती है इसलिए मुश्किलों से घबराएं नहीं और ज़िन्दगी को खुशहाल बनाएं। योग साधना करें, पूजा पाठ करें, भजन करें या जो भी आपकी पसंद की चीज हो वही करें।
अभी लिखता हूँ। बहुत लिखना बाकी है
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