चुनावी बिगुल में बदलाव की बयार। ....
पंकज भूषण पाठक। …
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चुनाव आयोग ने झारखंड विधानसभा चुनाव की तारीखों का एलान कर दिया है. राज्य में पांच चरणों में मतदान की प्रक्रिया संपन्न होगी . राज्य में पांच बड़ी राजनीतिक ताकतें इस बार चुनाव में झारखंड की जनता की कसौटी पर कसी जायेंगी. राष्ट्रीय पार्टी के रूप में भाजपा व कांग्रेस, जबकि क्षेत्रीय दल के रूप में झारखंड मुक्ति मोर्चा, झारखंड विकास मोर्चा व आजसू के लिए यह चुनाव अग्नि परीक्षा होगी.
नक्सल प्रभावित राज्य होने के कारण झारखंड में 25 नवंबर, दो दिसंबर, नौ दिसंबर, 14 दिसंबर, 20 दिसंबर को वोटिंग होगी और मतगणना 23 दिसंबर को होगी.इस बार का चुनाव ऐसे माहौल में हो रहा है, जब नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय परिदृश्य में एक मजबूत और पूरे दम-खम वाले नेता के रूप में उभरे हैं. उनकी पार्टी भाजपा को केंद्र के बाद हाल में महाराष्ट्र व हरियाणा में भी सफलता मिली है. हालांकि झारखंड में क्षेत्रीय अस्मिता का सवाल काफी महत्वपूर्ण होने के कारण नरेंद्र मोदी व भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के लिए यह चुनाव पूर्व के चुनावों से अलग होगा. मोदी-शाह को यहां के लोगों के सरोकार, झारखंड की जन भावनाओं व झारखंड के लिए लंबे समय तक चले आंदोलन व उसमें हुई शहादत जैसे अहम मुद्दों पर भी जनता से सीधा संवाद करना होगा. वहीं, पिछड़ों, गरीबों, अल्पसंख्यकों व आदिवासियों के लिए राजनीति करने का दावा करने वाली कांग्रेस व उसके शीर्ष नेतृत्व सोनिया गांधी-राहुल गांधी के लिए भी झारखंड और जम्मू कश्मीर चुनाव खोयी साख को पाने का मौका होगा. कांग्रेस कार्यकर्ताओं का मनोबल मौजूदा दौर में ऐतिहासिक रूप से सबसे निचले स्तर पर है. ऐसे में कांग्रेस अगर यहां बेहतर प्रदर्शन करती है, तो वह इस पार्टी के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक तरह से संजीवनी का काम करेगा.राज्य के तीन प्रमुख क्षेत्रीय राजनीतिक दलों झामुमो, आजसू, झाविमो के लिए यह चुनाव नरेंद्र मोदी के बढ़ते राजनीतिक वर्चस्व व करिश्मे को फीका साबित करने का मौका है. ये तीनों पार्टियां झारखंड की अस्मिता व विकास के मुद्दे पर मैदान में उतरेंगी और झारखंड का विकास झारखंड के तरीके से या झारखंड के लोगों की जरूरत के अनुरूप करने का दम भरते हुए वोट मांगेंगी. लोकसभा चुनाव में झामुमो को छोड़ कर झाविमो व आजसू का प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा है. ऐसे में तीन दलों और इनके मुखिया क्रमश: शिबू सोरेन-हेमंत सोरेन, सुदेश महतो व बाबूलाल मरांडी के लिए यह चुनाव पूर्व के चुनावों से कई मायनों में अलग होगा.लोकसभा चुनाव में सीटो के बटवारे की लड़ाई और फिर चुनाव नतीजों ने कई विधायको कोराह बदलने पर मजबूर कर दिया। सबसे ज्यादा नुकसान झारखण्ड विकास मोर्चा को हुआ जिसके पांच मजबूत विधायक भाजपा में शामिल हो चुके है। झारखण्ड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस की भी हालत कमोवेश यही है। लगातार अपना जनाधार बढ़ा रही आजसू की भी मुश्किलें कम नही है। उसके कई नेता भाजपा का दामन थाम चुके हैं। राजद और जदयू के पास खोने को बहुत कुछ है नही। मोदी-शाह की जोड़ी से मुकाबले के लिए राज्य में कांग्रेस-झामुमो के नेतृत्व में एक महागंठबंधन की बात भी प्रस्तावित है. कांग्रेस के प्रदेश प्रभारी बीके हरिप्रसाद ने पिछले महीने झारखंड दौरे के दौरान इस बात को सभी दलों के सामने रखा और सभी गैर भाजपा दलों को इस महगंठबंधन में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया. यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या यह महगठजोड़ सचमुच आकार ले पाता है और अपने फौरी हितों के किनारे कर सभी गैर भाजपा दल एक साथ हो सकते हैं.फ़िलहाल तो हेमंत सोरेन के नेतृत्व में यूपीए महागठबंधन चुनावी मैदान में उतरने को राजी है लेकिन ये कितना सफल और कारगर होगा कहना मुश्किल है। राजनीतिक प्रयोगशाला के रूप में बदनाम झारखण्ड में सियासी ऊंट किस करवट बैठेगा कोई नही कह सकता। सियासी उठापटक और राजनीतिक तिकड़मों से आजिज जनता कुछ करिश्मा दिखाए इसकी उम्मीद की जा रही है। पिछले 14 वर्षो में बनी 11 सरकारों ने उन्हें निराश ही किया है ऐसे में एक नए जनादेश की ओर झारखण्ड बढ़े इससे इंकार नही किया जा सकता है। आदिवासी चेहरे पर से भी लोगो का भरोसा उठ चूका है और बहुत पहले से ही गैर आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग होने लगी है। हालांकि अबतक किसी भी दल ने ये जोखिम उठाने का साहस नही किया है।अब देखना है की इसबार सियासी गुल क्या खिलाता है।
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