Wednesday, October 27, 2021

931.ज़ख्म मेरा रो रहा

*ज़ख्म मेरा रो रहा*

क्या कहूँ कैसे कहूँ माँ, दर्द कितना हो रहा?
दूर तुमसे हूँ जो हरपल, ज़ख्म मेरा रो रहा।

गर्भ से बाहर निकलकर, किस जहाँ हम आ गये,
पास में तुम भी नहीं हो, ये कहाँ हम आ गये?

दूध की चाहत अधर को, पर दवाई पी रहे,
अंग उलझे तार नस-नस, ज़िंदगी ये जी रहे।

क्या ख़ता थी मेरी ईश्वर, जो सज़ा मुझको दिया,
रातदिन सब पूजते फिर, क्यूँ दगा मुझको दिया?

बालमन भगवान मूरत, नासमझ होते सभी,
दर्द देकर क्या तुझे भी, चैन मिलता है कभी?

तुम कृपा करते हो हरदम, देव दानव पर सदा,
क्यूँ परीक्षा लेते भगवान, पूजते ईश्वर सदा।

मौत से खुद लड़ रहे हैं, तुम तनिक तो साथ दो,
जीतकर बाहर निकलने, तुम जरा सा हाथ दो।
©पंकज प्रियम

5 comments:

Sweta sinha said...

जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २९ अक्टूबर २०२१ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।

विभा रानी श्रीवास्तव said...

वो सज़ा नहीं देता है
हम जिसे सज़ा समझते हैं दरअसल वो हमारे लिए चुनौती भेजता है

कविता रावत said...

ईश्‍वर उसे ही दुख देता है जो उसे सहन करने की क्षमता रखता है

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति ।।

Sudha Devrani said...

बहुत ही मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी सृजन।