धर्म, परम्परा और विधान
कोई भी देवी देवता बलि नहीं मांगते। सब जीव जंतु उनकी ही तो संतान है। ऐसे में क्या कोई माँ-बाप अपने ही बच्चों की बलि मांगेगा?
हमारे वेदों-ग्रंथों में भी बलि निषेध है-
मा नो गोषु मा नो अश्वेसु रीरिष:।- ऋग्वेद 1/114/8
अर्थात- हमारी गायों और घोड़ों को मत मार
इममूर्णायुं वरुणस्य नाभिं त्वचं पशूनां द्विपदां चतुष्पदाम्।
त्वष्टु: प्रजानां प्रथमं जानिन्नमग्ने मा हिश्सी परमे व्योम।। – यजु. 13/50
अर्थात- उन जैसे बालों वाले बकरी, ऊंट आदि चौपायों और पक्षियों आदि दो पगों वालों को मत मार
' वेदों में ऐसे सैकड़ों मंत्र और ऋचाएं हैं जिससे यह सिद्ध किया जा सकता है कि हिन्दू धर्म में बलि प्रथा निषेध है और यह प्रथा हिन्दू धर्म का हिस्सा नहीं है। अगर मांसाहारी हैं तो वेशक खायें लेकिन धर्म की आड़ लेकर नहीं। वैसे भी विज्ञान की नज़र से भी देखें तो मानव शरीर माँस खाने-पचाने के योग्य बना ही नहीं है। न तो मांस के लायक दांत है और न पचाने लायक आँत।
सभी वेद-पुराण को उठाकर पढ़ लें, सभी देवी-देवताओं ने उन दानवों का वध किया जो जगत के लिए आतंक बने हुए थे। किसी निर्दोष या सदमार्गी राक्षस को नहीं मारा उल्टे उन्हें अपनी शरणागति प्रदान की। सर्वाधिक बलि लोग माँ काली या दुर्गा देवी के समक्ष देते हैं लेकिन ध्यान दें कि उन्होंने महिसासुर और अन्य दैत्यों का वध जगत कल्याण हेतु किया उसका भक्षण नहीं किया। किसी निर्दोष निरीह पशु को बलि नहीं ली। दरअसल कुछ लोगों ने यह अपनी अहम और जिह्वा के स्वादपुर्ति के लिए बलि देना शुरू किया। महिसासुर जैसे ताकतवर व्यक्ति से तो लड़ नहीं सकते तो बेचारे निर्दोष, बेजुबान पशुओं की बलि देकर उसका मांस भक्षण करने लगे। उससे उनका अहम भी शांत होता है और जिह्वा की स्वादपुर्ति भी हो जाती है। शास्त्रों में बलि का अभिप्राय अपने भीतर के दुर्गुणों जैसे क्रोध, काम, लोभ, अंहकार, मोह, ईर्ष्या इत्यादि की बलि देने की बात कही गयी है। इस्लाम मे भी कुर्बानी का अभिप्राय अपनी सबसे प्यारी वस्तु की क़ुरबानी देना है ताकि लोभ-मोह खत्म हो सके। इस्लाम में तो एक ही ख़ुदा का विश्वास है जिसकी सब संतान है तो क्या अल्लाह अपने ही सन्तान की क़ुरबानी माँगेगा?
किसी भी पर्व-त्यौहार पूजा-पाठ में बाजार घूमकर देख लीजिए। लोग स्वयं के लिए तो सबसे बढ़िया और मंहगा सामान खरीदते हैं लेकिन पूजा दुकान में घी-धूप दीप या फिर पंडित जी के लिए दान की सामग्री "पूजा का है, दान करना है" बोलकर सबसे घटिया सस्ता सामान लेकर आते हैं। यहाँ तक अक्षत, घी, धूप, यज्ञोपवीत जैसी मामूली पूजा सामग्री भी खुद के लिए बढ़िया और ईश्वर को समर्पित करने के लिय घटिया सस्ता खरीदने की आदत है। ईश्वर को समर्पित करने की सामग्री हविष्य नैवेद्य कहलाती है यानी जिसे आप स्वयं खा सकते हैं वही सामग्री ईश्वर को चढ़ाना चाहिए। जिसे आप स्वयं धारण कर सकें वही वस्त्र का दान करना चाहिए लेकिन नहीं लोग कपड़े की दुकान पर जाकर कहेंगे कि -"पंडीत जी को दान करना है सस्ता वाला दिखाइए" जिस घी को आप नहीं खा सकते उससे पूजा करना निष्फल ही है। जिस वस्त्र को आप पहन नहीं सकते उसका दान निरर्थक है। शादी-व्याह, पर्व-त्यौहार के आडंबर में आप लाखों रुपये पानी की तरह बहा देंगे लेकिन जब बात पूजा सामग्री और दान की आती है तो लोगों की दरिद्रता बाहर निकल आती है। अरे! ईश्वर को नही चाहिए निरीह पशुओं की बलि, सस्ती घटिया पूजा सामग्री, वह स्वयं जगतपिता है उसे किस बात की कमी है? उन्हें तो 56 भोग भी नहीं चाहिए। मनुष्य अपनी जिह्वा स्वाद पूर्ति के लिए 56 भोग की व्यवस्था करता है उसमें कोई कमी नहीं करता लेकिन जो ईश्वर को चढ़ना है, जो पुजारी को दान करना है वह सबसे निकृष्ट सामग्री लाएगा। बलि की ही बात हो रही है तो बाजार में जाकर प्रत्यक्ष उदाहरण देख सकते हैं। लोग बढ़िया, स्वस्थ, मोटे पशुओं को खरीदना चाहते हैं ताकि अधिक से अधिक मांस निकले। उसमे ईश्वर या अल्लाह को बलि देने की भावना नहीं रहती। जैसे बलि या भोग में बेहतर गुणवत्ता देखते हैं उसी तरह चढ़ावा और दान की गुणवत्तापूर्ण सामग्री की खरीद करो लेकिन नहीं वहां तो जेब टटोलने लगेंगे। होटल में अपने अहम पूर्ति हेतु बेटर को टिप या बारात के डांस में पांच-पांच सौ के नोट हवा में उड़ाएंगे लेकिन जब मन्दिर में दान करने की बात आएगी तो जेब मे चवन्नी ढूंढेंगे। अरे! नहीं चाहिए ईश्वर को तुम्हारी चवन्नी-अठन्नी की औकात! ईश्वर तो श्रद्धा के भूखे होते, भगवान विष्णु सिर्फ एक तुलसी दल से प्रसन्न हो जाते है, बाबा भोलेनाथ तो बेलपत्र और धतूरे में ही खुश हो जाते हैं। ईश्वर ने दानपुण्य की व्यवस्था इसलिए बनाई है कि उनकी सेवा में दिनरात जुड़े परिवारों का भरणपोषण हो सके। जिस तीर्थ स्थल पर ईश्वर का वास है वहाँ की अर्थव्यवस्था और लोगों की रोजी रोटी चलती रहे। मन्दिरो से सिर्फ पंडित का पेट नहीं भरता वल्कि उस क्षेत्र में रहनेवाले हर व्यक्ति की रोजी-रोटी का जुगाड़ होता है। देश के अधिकांश शहर में रोजगार का मुख्य साधन मंदिर और पूजा है। यकीन न हो तो तीर्थ स्थल घूमकर देख लें। काशी, मथुरा, वृन्दावन, बरसाना, गोकुल, अयोध्या, पूरी, भुवनेश्वर, हरिद्वार, ऋषिकेश, देवघर, विंध्याचल, वैष्णो देवी, उज्जैन, रामेश्वरम, चारधाम, सभी शक्तिपीठ, सभी ज्योतिर्लिंग, जहाँ जाइये वहां की रोजी रोटी का मुख्य आधार मन्दिर ही है। जिसमें हर जाति, हर धर्म और हर वर्ग के लोगों को रोजगार मिला हुआ है। इतने रोजगार कोई भी सरकार नहीं दे सकती, जितना सिर्फ हमारे देवी-देवताओं ने दे रखा है। हमारी सनातन संस्कृति को विदेशी भी अपनाने लगे हैं। इसी तरह हमारे हर पर्व त्यौहार में हिंदुओं से अधिक अन्य धर्म के लोगों को रोजगार मिलता है। हमारी सनातन संस्कृति सदैव जग कल्याण की बात करती है।
दरअसल लोग परम्परा के नाम पर अपनी सारी अहमपूर्ति कर लेते हैं जबकि परंपरा मनुष्यों के द्वारा समय-समय अपनी सुविधानुसार बनाई गई है। विधि और परंपरा में फर्क समझने की आवश्यकता है। विधि विधान ईश्वर द्वारा निर्धारितजबकि परंपरा मनुष्य निर्मित है। ईश्वर जीवन देता है न की बलि लेता है। याद कीजिये कृष्ण का गोबरधन प्रसङ्ग। इंद्र को पशुओं की बलि देने की परंपरा दी जिसका कृष्ण ने विरोध करते हुए कहा कि परंपरा को समयानुसार बदलना जरूरी होता है। जो जीवन की बलि ले वह पूजनीय नहीं जो जीवन प्रदान करे उसकी पूजा होनी चाहिए। उन्होंने इंद्र से बेहतर गोबर्धन पर्वत की पूजा करने को कहा कि यह पर्वत हम सबको भोजन, पानी प्रदान करता है। कृष्ण का सबने बहुत विरोध किया लेकिन जब इंद्र का अहम चूर हुआ तो गोबरधन पर्वत की पूजा शुरू हो गईं। सनातन धर्म मे तो कण-कण में ईश्वर के वास् की आस्था है
जीव जंतु तो छोड़िए नदी, पहाड़, पेड़-पौधे तक की पूजा का विधान है। सनातन में सबके संरक्षण की बात की जाती है। ईश्वर कभी भी कोई गलत कार्य करने को नहीं कहते। ईश्वर के मनुष्य अवतार ने भी धैर्य, संयम और धर्म का पालन ही किया राम हो या कृष्ण, किसी ने ऐसा कुछ भी नहीं किया जो लोगों को धर्म के पथ से विचलित करे। उन्होंने हमेशा धर्म का ही पालन किया। जो गलत परम्परा थी उसे बदलने का प्रवास किया। आजकल लोग भगवान भोलेनाथ को गांजा और भांग पीते दिखाते हैं। उनके नाम पर नशापान करते हैं लेकिन उन्हें कौन समझाए कि भोलेनाथ ने कभी नशापान नहीं किया। समुद्रमंथन में जब कालकूट विष निकला तो प्रलय की स्थिति आ गयी तब महादेव ने जग कल्याण हेतु विषपान किया था। अगर आप भी सच्चे शिवभक्त हो तो गांजा-भांग की जगह थोड़ी ज़हर पीकर देख लो लेकिन सदाशिव की क्षवि बदनाम मत करो। विषपान के बाद जब मां दुर्गा ने विष को कंठ तक रोक लिया तो शंकर नीलकंठ हो गए। विष की ऊष्मा को दूर करने के लिए शिव को भी 20 वर्षों तक ऋषिकेश में कठिन साधना करनी पड़ी थी। विष के प्रभाव को कम करने के लिए धतूरे का सेवन किया क्योंकि धतूरा ठंडक प्रदान करती है।भांग भी औषधि रूप में विष तत्वों का नाश करता है। इसलिए शिव को भांग और धतूरा चढ़ाया जाता है। शिव जग कल्याण हेतु विषपान किया था कोई शौक से नशापान नहीं। कई जगह लोग शराब का भोग लगाते है जबकि देवी माँ ने कभी मद्यपान नहीं किया। यह कुछ लोगों के द्वारा अपनी लालसा पूर्ण करने का बहाना मात्र है। परंपरा कोई शास्त्रोक्त विधान नहीं वल्कि मनुष्य निर्मित है। एक उदाहरण के तौर पर देखें तो किसी के घर शादी हो रही थी मंडप के आसपास एक कुत्ता बहुत परेशान कर रहा था तो घरवाले मंडप के एक खूंटे में उसे बांध दिया। उसे दख नई पीढ़ी ने समझा कि शायद कुत्ते बांधने की परंपरा है, अब उस परिवार में हर शादी के मंडप में कुत्ते को बांधना परम्परा बन गयी। लोग अपनी पुरखों की परंपरा बदलने से डरते हैं कि पता नहीं कुछ अपशकुन न हो जाय। जबकि ऐसा कुछ नहीं है। ईश्वर कभी भी किसी का बुरा सोचते नहीं। वे तो सदा जगत का कल्याण करते हैं। लोग कृष्ण के आधे-अधूरे उपरी आवरण को देखकर स्वयं को कृष्ण कन्हैया कह सारी गलतियां करने लगता है। कृष्ण को छलिया, चोर, नटखट, रास रचैया कहकर लोग कृष्ण बनने का पर्याय करते हैं। कृष्ण के रासलीला को लोगों ने गलत अर्थ में परिभाषित कर दिया है। राधा और कृष्ण के प्रेम का उदाहरण देकर लोग न जाने क्या क्या कर लेते हैं। हक़ीक़त यही है कि ऐसे लीगों ने कृष्ण को पढ़ा और समझा ही नहीं। कृष्ण ने जो भी किया वह जग कल्याण और सबको जीवन का पाठ पढ़ाने हेतु किया। उनका जीवन इतना सरल नहीं। इसपर कभी अलग से चर्चा करूँगा। लब्बोलुआब यही की परम्परा के नाम पर अनैतिकता को बढ़ावा न दें। समय के अनुसार जैसे हर चीज बदलती है उसी प्रकार कुरीतियों, गलत परंपरा और कुप्रथाओं को बंद करने की जरूरत है। जब कोई परम्परा या वचन जग कल्याण में बाधक बन तो उसका त्याग कर देना चाहिए। वरना महाभारत एक बड़ा उदाहरण है कि भीष्म की प्रतिज्ञा और सिंहासन के प्रति वचनबद्धता ही उनके धर्म पालन बाधक बनी। उनके सामने द्रौपदी का चीर हरण होता रहा कुछ नहीं कर पाए। युधिष्ठिर का अति धर्मपालन ही दुख का कारण बना। परम्परा के नामपर द्यूत खेलने बैठा और अपनी पत्नी तक को दांव में हार गया। अपनी अति धर्मपरायणता के कारण सबको वनवास झेलना पड़ा। कृष्ण चाहते तो पलभर में सबकुक बदल सकते थे लेकिन उन्होंने पांडवों को उसके कर्म की सजा भोगने के लिए तबतक अकेला छोड़े रखा जबतक की उन्हें अपनी गलती का अहसास नहीं हुआ। कर्ण बहुत वीर और दानी था लेकिन उसने अपने स्वार्थपूर्ण मित्रता के पालन के लिए दुर्योधन जैसे अधर्मी का साथ दिया। जिसका दण्ड उसे मिला। इसी तरह गुरु द्रोण का भी वचनबद्धता के।कारण कौरवों के साथ नाश हुआ। महाभारत ने श्रीकृष्ण ने यही संदेश दिया कि अहंकार, गलत परंपरा और रुढ़िवादी सोच नाश का कारण बनती है। समय के साथ सबको बदलना पड़ता है अन्यथा आपका अंत होना निश्चित है।
पंकज प्रियम
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