सूखा आषाढ़
दोहे
वर्षा ऋतु बरखा बिना, बिन बादल आकाश।
खेतों में सूखा पड़ा, टूटी सब की आस।।
बदरी बरसे क्यों नहीं, समझा उसका हाल?
कुदरत को सब छेड़कर, किया उसे बेहाल।।
गलती मानव कर रहा, जंगल रोज उजाड़।
पेड़ों का संहार कर, काटत रोज पहाड़।।
पानी का दोहन करत, भेज दियो पाताल।
तरसे पानी बूँद को, सूखी नदिया ताल।।
एसी तो ठंडक करे, मगर बढ़ावे ताप।
दूषित है पानी-हवा, दोषी जिसके आप।।
@पंकज प्रियम
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