ग़ज़ल
काफ़िया-आये
रदीफ़-रखा
आरजू
सपना सजाये रखा, अरमां दबाये रखा,
कैसे कहूँ मैं तुझसे क्या-2 छुपाये रखा।
कैसे कहूँ मैं तुझसे क्या-2 छुपाये रखा।
चाहा तुझे मैं हरदम, अपनी हदों से बढ़कर
चाहत की रौशनी में, खुद को जगाये रखा।
चाहत की रौशनी में, खुद को जगाये रखा।
जलता रहा अकेला, तुझमें मैं दूर रहकर,
रुसवाइयों के डर से, तुझको बचाये रखा।
रुसवाइयों के डर से, तुझको बचाये रखा।
मुझसे लिपट तू जाती, ख्वाबों में मेरे आके,
सपना कहीं ना टूटे, पलकें गिराये रखा।
सपना कहीं ना टूटे, पलकें गिराये रखा।
अब तो करीब आओ, अपना मुझे बनाओ
"प्रियम" की आरजू हो, कब से बताये रखा।
"प्रियम" की आरजू हो, कब से बताये रखा।
©पंकज प्रियम
28 जून 2019
28 जून 2019
2 comments:
जी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (30 -06-2019) को "पीड़ा का अर्थशास्त्र" (चर्चा अंक- 3382) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
....
अनीता सैनी
जी आभार
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