Friday, April 23, 2021

911.साथी हाथ बढ़ाने का

साथी हाथ बढ़ाने का

है वक्त नहीं अब घबराने का,
मौत से जीवन छीन लाने का।

जीवन की लड़ाई लड़नी होगी,
दुश्मन पे चढ़ाई करनी होगी।
मौत ने दी है चुनौती तो फिर,
समर में सीधे भीड़ जाने का।
है वक्त नहीं/-

जब जंग छिड़ी है साँसों की,
जब ढेर लगी है लाशों की।
जब हार चुकी सिस्टम सारी-
तब खुद विश्वास जगाने का।
है वक्त नहीं-/

घनघोर अँधेरा मिट जाएगा,
फिर सूर्य सबेरा ले आएगा।
मन को मत निराश करो तुम,
बस आख़िरी जोर लगाने का।
है वक्त नहीं-/

माना कि मंजिल पार समंदर,
जाना है लेकिन उसके अंदर।
सीता को बचाना रावण से तो
फिर सागर में सेतु बनाने का।
है वक्त नहीं-/

इस कोरोना से खौफ़ बड़ा है,
सीना ताने यह तभी खड़ा है।
खुद को इससे बचाना है तो,
बस डर को मार भगाने का।
है वक्त-/

माना कि सफ़र ये मुश्किल है,
पर सामने दिखता मंजिल है।
जो पार समंदर करना है तो
फिर साथी हाथ बढ़ाने का।
©पंकज प्रियम
23.04.2021
कवि पंकज प्रियम
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