कुदरत का बदला
पीपल को काटकर कैक्टस लगा लिया,
नीम बरगद उजाड़ गमला सजा लिया।
गाय की जगह कुत्तों को घर बिठा दिया।
नदी, कुआं, तालाब भरकर सबने अब
पानी और गंगाजल बोतल में भर लिया।
हवा कम पड़ी तो ऑक्सीजन भी तुमने
अरे ओ मूढ़ मानव सिलिंडर में भर लिया।
चंद मिनट के ऑक्सीजन के लिए अब
हजारों-लाखों देने को तुम तैयार हो।
लेकिन बताना एक बात सच्ची-सच्ची,
करोड़ों- अरबों खर्च कर के भी तुम
कुछ पल की साँसे खरीद सकते हो क्या?
पेड़ों को उजाड़ तुमने उगाए कंक्रीट के जंगल,
तुम्ही बताओ कुदरत कैसे करे तुम्हारा मंगल।
साँसों की डोर तो ऊपरवाले के हाथ में
जिसे तुमने अति आधुनिकता में भूला दिया।
पूजा पाठ ध्यान को बताकर ढकोसला,
पब, क्लब, मांस मदिरा से जोड़ा रिश्ता।
बाहर, अस्पताल या श्मशान से घर आने पर
हाथ पैर धोने की परम्परा का उड़ाते रहे मज़ाक,
हवन, पूजन और व्यायाम का भी उड़ाया मज़ाक।
हाथ जोड़ नमस्कार को कहके पिछड़ा तुमने
हग और चुम्बन से जोड़ा नाता अपना।
फल-दूध की जगह पेट में भर रहे
पिज्जा बर्गर पास्ता ब्रेड का कचरा।
विकास की अंधी दौड़ में सबकुछ भूल गये
तभी तो कुदरत भी ले रहा तुझसे बदला।
प्रकृति कर रही है आगाह हरवक्त
अब भी वक्त है सुधर जाओ वरना
प्रलय आएगी तो मुझे मत कहना।
©पंकज प्रियम
No comments:
Post a Comment