समंदर हूँ मैं लफ़्ज़ों का, मुझे खामोश रहने दो, छुपा है इश्क़ का दरिया, उसे खामोश बहने दो। नहीं मशहूर की चाहत, नहीं चाहूँ धनो दौलत- मुसाफ़िर अल्फ़ाज़ों का, मुझे खामोश चलने दो। ©पंकज प्रियम
भाईसाब, ये तो ग़ज़ब लिखा है। पहली ही लाइन ने पकड़ लिया, मन हारते ही सब कुछ पहाड़ जैसा लगने लगता है। आपने जिस तरह सीता की खोज और हनुमान की ताक़त का ज़िक्र किया, वो बहुत प्रेरणादायक लगा।
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भाईसाब, ये तो ग़ज़ब लिखा है। पहली ही लाइन ने पकड़ लिया, मन हारते ही सब कुछ पहाड़ जैसा लगने लगता है। आपने जिस तरह सीता की खोज और हनुमान की ताक़त का ज़िक्र किया, वो बहुत प्रेरणादायक लगा।
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