समंदर हूँ मैं लफ़्ज़ों का, मुझे खामोश रहने दो, छुपा है इश्क़ का दरिया, उसे खामोश बहने दो। नहीं मशहूर की चाहत, नहीं चाहूँ धनो दौलत- मुसाफ़िर अल्फ़ाज़ों का, मुझे खामोश चलने दो। ©पंकज प्रियम
Thursday, December 17, 2020
897.हरहरो रे
Thursday, November 26, 2020
896. संविधान सुविधानुसार
Thursday, May 7, 2020
830. अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव चः।
*अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव चः।*
गीता के इस उपदेश में बहुत बड़ा गूढ़ रहस्य छिपा है। इसका स्पस्ट अर्थ है कि मनुष्य के लिए अहिंसा परम धर्म है तो लेकिन धर्म और सत्य पर संकट आए तो मनुष्य को शस्त्र उठाना चाहिए और धर्म की रक्षा करनी चाहिए। यह अहिंसा से भी बड़ा धर्म है। भगवान बुद्ध हो या महावीर दोनों ने अहिंसा को ही परम धर्म माना है। यह सही भी है कि हमें हिंसा नहीं करनी चाहिए उससे केवल विनाश होता है। आजतक जितने भी युद्ध हुए उसमें सिर्फ विनाश ही हुआ है। इसमें असंख्य निर्दोषों की जान चली जाती है। हिंसा का अर्थ केवल रक्तपात या युध्द नही, प्राणिमात्र की हिंसा को अपराध माना गया है। अपनी स्वार्थ पूर्ति और जिह्वा के क्षणिक स्वाद के लिए जो बेजुबानों का कत्ल करते हैं, बलि देते हैं वह सबसे बड़ा पाप है। मनुष्य तो अपनी रक्षा के लिए संघर्ष भी करता है लेकिन एक बेजुबान जानवर जिसे बांधकर उसकी बलि दे दी जाती है वह तो प्रतिकार भी नहीं कर सकता। चूँकि वह निर्दोष बेजुबान होता है। लोग अमूमन खुद से कमजोर पर ही हिंसक होते हैं, कोई शेर, बाघ , चीता जैसे खूंखार जानवरों की बलि नहीं देते क्योंकि वे ताकतवर होते है। दुर्गा हो या काली कभी बलि नहीं मांगती ,सब उसकी संतान है तो भला एक माँ अपने बच्चों की बलि कैसे ले सकती है? यह केवल अपनी जिह्वा शांति के लिए लोग बलि चढ़ाते हैं। जिस दिन माता बलि लेने लगी लोग बलि देना छोड़ देंगे। बुद्ध ने भी बेजुबानों की बलि देखकर ही सत्य और अहिंसा का पाठ पढ़ाया यह तो बात हुई रक्तचाप और बलि की लेकिन हिंसा की श्रेणी किसी को मन, वचन और शरीर से कष्ट देना ,प्रताड़ित करने को भी हिंसा कहते हैं। बुध्द क्या हमारे वेद और पुराणों में भी प्राणिमात्र की हिंसा का विरोध किया गया है। किसी भी तरह की हिंसा का प्रतिकार हमें किसी न किसी रूप में मिलता ही है। प्रकृति के साथ कि गयी हिंसा का ही परिणाम प्रलय है।
अब आते हैं श्लोक के शेष भाग में जिसमें धर्म की रक्षा हेतु हिंसा को अहिंसा से भी बड़ा धर्म माना गया है। महाभारत में अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने यह कहा कि सत्य और धर्म की रक्षा के लिए शस्त्र उठाना ही धर्म है।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥७॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥८॥
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ४)
भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं दुष्टों के नाश और धर्म की रक्षा का सन्देश दिया है। भगवान ने अपने सभी अवतारों में धर्म और सत्य की रक्षा हेतु दुष्टों का संहार किया। आप किसी भी भगवान का रूप देख लें अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हैं लेकिन मुद्रा सदा आशीर्वाद की रहती है। यानी कि प्राणिमात्र से स्नेह और जरूरत पड़ने पर उनकी रक्षा हेतु दुष्टों का संहार।
अतः यह पूरा श्लोक ही धर्म सत्य और जीवन का मूल आधार है इसे अधूरे में नहीं देख सकते।
©पंकज प्रियम
Saturday, April 25, 2020
822. प्रकृति का संतुलन
कोरोना: प्रकृति खुद को संतुलित तो नहीं कर रही है?
©पंकज प्रियम
कवि पंकज प्रियम
धरती में ही स्वर्ग है उसे नर्क हम मनुष्यों ने बनाया। नीचे की दो तीन तस्वीरों को देखें तो साफ पता चलता है हमने ही स्वर्ग को नरक बना रखा था। पिछले तीन सप्ताह में जब लॉक डाउन की स्थिति में मनुष्य घरों में कैद है, गाड़ियों के पहिये थम गये है,फैक्ट्रियों ने कचरा उगलना बंद कर दिया है तो नदियां कितनी स्वच्छ और निर्मल हो गयी। जिस जंगल को काट कर एक्सप्रेस वे बनाई गई थी आज वीरान है तो हिरण और बारहसिंगा जैसे जानवर स्वच्छन्द होकर विचरन कर रहे हैं। प्रदूषण का स्तर अचानक से कम हो गया है। नासा की रिपोर्ट के मुताबिक ओजोन परत का छेद बड़ी तेजी से भरने लगा है। दिल्ली मुम्बई जैसे प्रदूषित शहरों की हवा स्वच्छ हो गयी है। जो अपने घर परिवार से दूर थे आज मजबूरी में ही सही एक साथ हैं। जो वर्षो तक बातचीत नहीं करते थे आज हर रोज फोन कर अपनों का हालचाल लेने लगे हैं। लोग मौत के खौफ़ में संवेदनशील होते जा रहे हैं। स्वच्छ भारत मिशन के तहत अरबों रुपए खर्चकर के सरकार लोगों को स्वच्छता और हाथ धुलाई के लिए मजबूर नहीं कर सकी आज लोग डर के मारे खुद ही स्वच्छता अपनाने लगे हैं ,दिनभर हाथ धो रहे हैं। पहले हम सनातन धर्म में हाथ जोड़कर प्रणाम करते थे तो गंवार कहलाते थे आज पूरी दुनिया भरतीय प्रणाम पद्धति को अपना रही है। पहले हम हॉस्पिटल या बजार से लौटकर आते थे तो बाहर हाथ मुँह धोकर या स्नान करके ही घर मे प्रवेश करते थे उसे तथाकथित मॉडर्न लोगों ने पाखंड करार दिया आज मौत के भय से सब लोग वही कर रहे हैं। हमारे ऋषि मुनियों ने शाकाहार पर बल दिया तो हमें घासफूस वाला कहकर मजाक उड़ाया आज कोरोना मांसाहार से ही पैदा हुआ तो लोगो ने मांसाहार से तौबा कर लिया। पुरातन संस्कृति में जितने भी नियम बने हैं उसके पीछे विज्ञान छुपा है। अपनी महत्वकांक्षा और स्वार्थ की पूर्ति में इतने अंधे हो गए कि कुदरत को अपना गुलाम बनाने की हर सम्भव कोशिश की। प्रकृति से लगातार छेड़छाड़ करते रहे, जंगल के जंगल उजाड़ने लगे। खेत, नदी, तालाब और झीलों को पाट कर कंक्रीट के जंगल उगाने लगे। वक्त से भी तेज भागने की रफ्तार और पेट को भरने में फैक्ट्रियों के उगलते धुएँ से वायुमंडल को प्रदूषित करते कब ओजोन लेयर को ध्वस्त कर दिया पता ही नहीं चला! मानवीय कचरों से कल-कल बहती स्वच्छ निर्मल नदियां प्रदूषण से कराहने लगी, नीले रंग से बदरंग मटमैली काली होकर दुर्गंध देने लगी। पतित पावनी गङ्गा भी हर साल मनुष्यो से दूर जाने की कोशिश करती रही लेकिन हम भी ढीठ उसके पीछे पीछे बढ़ते रहे उसे तबाह करते रहे। आज कोरोना नामक महामारी ने पूरे विश्व को तबाह कर डाला है। जनसंख्या के बढ़ते बोझ के बीच सिर्फ कोरोना से अबतक एक लाख से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है। क्या यह प्रकृति का ही संतुलन नियम तो नहीं है? जो कभी बाढ़, भूकंप, साइक्लोन तो अब कोरोना के जरिये खुद को संतुलित करने में लगी रहती है। यह संकेत भी है महाप्रलय का अगर अब भी नहीं चेते तो फिर इस धरती का भगवान ही मालिक है।
819. रामायण: हर प्रसंग प्रासंगिक-3
रामायण: हर प्रसंग प्रासंगिक-3
अफ़वाह न फैलायें, पहले अपने धर्मग्रंथों को पढ़ें।
©पंकज प्रियम
यह सच है कि ज्ञान-विज्ञान की सारी बातें हमारे प्राचीन धर्म गर्न्थो में वर्णित है लेकिन आजकल लोग बिना पढ़े लिखे किस तरह धर्मग्रन्थो की गलत व्याख्या कर दुष्प्रचार करने लगते हैं। यहाँ देखा जा सकता है। रामचरित मानस के इस पृष्ठ को यह कहकर प्रचारित किया जा रहा है कि इसमें कोरोना वायरस का जिक्र है। एक दोहे में चमगादड़ शब्द है तो लोगों ने इसे कोरोना से जोड़ दिया जबकि सही अर्थ यह है कि जो मनुष्य दूसरों की निंदा करते हैं वे चमगादड़ बनते हैं। इसी तरह काम, लोभ, मोह और मद को कफ़, पित्त और वायु रोग से तुलना की गई है। जिस दोहा 120 और 121 का जो अर्थ बताया जा रहा है कि पाप बढ़ने से चमगादड़ अवतरित होंगे और महामारी फैलेगी, जबकि। असल मे इस दोहे का अलग ही अर्थ है कि मनुष्य एक ही रोग से मर जाते हैं तो अनेक व्याधियों को कैसे सहेंगे और शांत चित्त कैसे रह सकेंगे। कृपया नीचे दिए गए चार तस्वीरों को देखें जिसमें प्रथम दो वायरल न्यूज है जो फैलाया जा रहा है। उसी की काट हेतु मैंने रामचरित मानस के असली अर्थ की व्याख्या करते दो पृष्ठों की तस्वीर खींच कर डाली है। कृपया उन्हें ध्यानपूर्वक पढ़ें और खुद समझें। इस ख़बर को वाइरल करने में कई तथाकथित बुद्धिजीवी, पत्रकार और साहित्यकार भी शामिल हो गए हैं। शायद उन्होंने कभी रामायण पढ़ी ही नहीं , अगर पढ़ते या दोहे के अर्थ को समझने की कोशिश करते तो यह भूल कदापि नहीं करते । कोई संस्कृत, पाली या उर्दू में नहीं लिखा है ,साधारण देवनागरी लिपि में अवधी में लिखे दोहे को भी जो न समझ पाये उसकी बुद्धि बलिहारी है। जब कई जगह इसे देखा तो मैंने विरोध किया। साक्ष्य के रूप में अपने रामचरित मानस की उन दोनों पृष्ठों की अर्थसहित व्याख्या डाल रहा हूँ कि तुलसीदास के इन दोहों का असली अर्थ क्या है? आप खुद पढ़ें और समझें किसी के भी वाइरल मैसेज को यूँ ही बिना पढ़े समझे प्रेषित करेंगे तो जाहिल और विद्वानों में क्या फ़र्क रहेगा? जो कोरोना को कुरआन से जोड़कर अल्लाह की देन बता रहे थे! कई लोगों ने तो यह दावा कर दिया था कि अल्लाह ने कोरोना उनको समाप्त करने के लिए भेजा है जो मुसलमानों को परेशान कर रहे हैं, शाहीनबाग की महिलाओं ने भी इसी तरह बयान दिया था कि कोरोना कुरान से जुड़ा है उनका कुछ अहित नहीं होगा! इस तरह के संदेशों से न केवल आप खुद मज़ाक के पात्र बनते हैं वल्कि हमारे धर्मग्रंथों का भी मज़ाक उड़ता है। कृपया कोई भी सन्देश शेयर करने से पूर्व उसकी पड़ताल अवश्य कर लें। बिना पढ़े लिखे जाने समझे कोई भी सन्देश शेयर कर देना मूर्खों का काम है जो भेड़चाल में चल पड़ते हैं।इसी तरह -ढोल गंवार शुद्र पशु नारि दोहे की गलत व्याख्या कर लोग नारी और दलित विरोधी करार देते हैं जबकि इसमें ताड़न का सभी शब्दों के साथ अलग अर्थ है। हिन्दू धर्मग्रंथों में ही नहीं अन्य के साथ भी यही होता रहा है। जैसे जिहाद
का अर्थ आतंकवाद और आत्मघाती मानव बमों से जुड़ गया है। भोले भाले युवा जिहाद के गलत अर्थ के कारण आत्मघाती मानव बम बनते रहे हैं। हमारे धर्मग्रंथो में जो भी उदाहरण दिए गए हैं वह सब अपराध, अनीति, अन्याय और दुराचार को रोकने का माध्यम है न की गलत करने के लिए। हमारे ग्रँथ हमें सदा सचेत करते हैं कि यह करोगे तो यह होगा और हकीकत भी वही है। लोग मज़ाक उड़ाकर भले न मानें लेकिन प्रकृति उन्हें सबक सीखा ही देती है। आज कोरोना ने सबको हमारी संस्कृति, संस्कार और पुरानी आदतों को अपनाने पर विवश कर दिया है जिसे अंधविश्वास और पाखंड कह कर सबने छोड़ दिया था। आज पूरी दुनिया भारत की सभ्यता और संस्कारों का अनुसरण करने को मजबूर है।
ठीक ही कहा गया है-
लीक-लीक पहिया चले, लीक ही चले कपूत।
लीक छोड़ तीनों चले, शायर, सिंह, सपूत।।
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818. रामायण : हर प्रसंग प्रासंगिक-2
रामायण: हर प्रसंग प्रासंगिक-2
अग्निपरीक्षा
राम को पता था कि रावण सीता का अपहरण करेगा इसलिए उन्होंने वास्तविक सीता को अग्निदेव की सुरक्षा में सुरक्षित रख दिया था। सीता तो वास्तव में अग्निदेव की सुरक्षा में थी रावण तो उनकी छाया का अपहरण कर ले गया था। उसी सीता को वापस आने के लिए उन्हें अग्निद्वार को पार करना पड़ा जो समाज की नजरों में अग्निपरीक्षा थी। रामायण का यह प्रसंग लक्ष्मण तक को पता नहीं था। यह सब राम और सीता की लीला ही थी राक्षसों के नाश के लिए। अग्निपरीक्षा समाज को यह पाठ पढ़ाने के लिए भी थी कि कोई सीता के चरित्र पर उंगली न उठा सके। राम की लीला राम ही जाने। जान न सके न कोई।
कवि पंकज प्रियम
817.रामायण: हर प्रसंग प्रासंगिक-1
रामायण: हर प्रसंग प्रासंगिक-1
रामायण का हर प्रसंग प्रासंगिक है। अगर बाली अपनी पत्नी की बात मानकर घर से बाहर नहीं निकलता तो मारा नहीं जाता। पत्नी के लॉक डाउन निर्णय को तोड़ने का नतीजा उसकी मौत।
ज्ञान-
बाली ने तोड़ी पत्नी की बात।
बाहर निकला, मिला आघात।।
इसलिए घर मे रहें सुरक्षित रहें।
लॉकडाउन का पूर्ण पालन करें।
दो दिन पहले प्रस्तुत किया था-
जिसने लांघी लक्ष्मणरेखा,
हाल हुआ क्या सबने देखा।
पहला लोकडौन तोड़ने का परिणाम। सीता अपहरण
821. रामायण का हर प्रसंग प्रासंगिक है-5
रामायण का हर प्रसंग प्रासंगिक है-5
रामराज्य और अभिव्यक्ति की आज़ादी
@पंकज प्रियम
आज हम भले संविधान का हवाला देकर अभिव्यक्ति की आज़ादी का झण्डा बुलंद करते हैं लेकिन सही मायनों में अभिव्यक्ति की आज़ादी तो रामराज्य में थी। जहां एक साधारण धोबी को भी राजा के विरुद्ध बोलने की आज़ादी थी। जो भी व्यक्ति यह कहता है कि धोबी के कहने पर राम ने सीता को त्याग दिया उन्होंने न तो रामायण ढंग से पढ़ी है और न ही राम-सीता को समझा है। दोनों के बीच जितना अटूट अगाध प्रेम था उतना किसी मे नहीं। मेरे कल के आलेख में आपने पढ़ा ही होगा कि किन परिस्थितियों में सीता ने अयोध्या त्याग का कठिन प्रण लिया।
राम ने सीता को वनवास नहीं दिया बल्कि सीता ने खुद वनवास का संकल्प लिया। राम तो त्याग के पक्ष में थे ही नहीं। सीता ने यह कदम इसलिए उठाया क्योंकि पूरी अयोध्या में उसके चरित्र पर उंगली उठ रही थी तो त्याग का अमोघ अस्त्र चलाया सीता ने। सीता के प्रण के आगे राम और पिता जनक भी विवश हो गए। राम ने भी महल में वनवासियों सा ही जीवन जीया। जमीन पर सोते रहे। सारा राजसी वैभव त्यागकर चटाई पर सोना स्वीकार किया। राजा दशरथ की तीन रानियां थी लेकिन राम एक पत्नीव्रता थे। जनता के उठते सवालों का बावजूद सीता को त्यागने का निर्णय नहीं लिया और सीता को प्रतिकार करने की सलाह दी लेकिन सीता के संकल्प के आगे विवश हो गए। व्व चाहते तो जनता पर कोड़े बरसाकर उनका मुँह बन्द कर सकते थे जैसे कि बाद की सल्तनत में होता रहा और आज भी होता रहा है। आप आज फेसबुक पर सच भी लिख दें तो सीधे जेल हो जाती है तो यह कैसी आज़ादी है। कैसा फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन है? जनता के एक सवाल पर राम और सीता ने खुद को कष्ट दे दिया लेकिन जनता की अभिव्यक्ति का सम्मान किया। चाहते तो सजा दे सकते ठगे लेकिन तब शायद रामराज्य का उदाहरण आजतक नहीं दिया जाता। लोग राम को पत्नी मोह में डूबा पति और सीता को सदा कलंकित ही कहती रहती। सीता चाहती तो आम स्त्री की तरह मैं मायके चली जाऊंगी की तर्ज पर मायके जनक भी जा सकती थी ,कहीं भी जा सकती थी लेकिन उसने वनवास जाना पसंद किया। वह दृश्य देखिये जब राजा जनक आते हैं तो राम बिना किये अपराध को स्वीकारते हुए दण्ड की मांग करते हैं और जनक राम की विवशता समझते हुए राम को राजधर्म निभाने की सलाह देते हैं। आज का कोई व्यक्ति सीधे पचास तरह के केस कर देता फिर वह तो राजा थे। वह बताते हैं कि किस तरह सीता ने उन्हें पत्र लिखकर राम को सम्भालने का दायित्व सौंपा है। सीता जंगल मे भी रहकर राम की ही चिंता करती रही।राम महल में रहकर भी सीता के गम में डूबे रहे। थे दोनों का अगाध प्रेम आम आदमी नहीं समझ सकता वही ओछी बात करता है कि राम ने सीता का त्याग किया। यह राम और सीता का ही त्याग था वही जनता फिर सीता की पूजा करने लगे। उसवक्त प्रजा को सही मायनों में अभिव्यक्ति की आज़ादी थी जो अपने राजा और महारानी के ख़िलाफ़ भी खुलकर बोलने को स्वतंत्र थे। आज की तरह नहीं कि सवाल पूछने पर मुँह बन्द कर दिया जाता है। प्रजा के उठते सवालों का सम्मान करते हुए राम और सीता ने खुद को कितनी पीड़ा दे डाली यह कोई आम राजा या शासक नहीं कर सकता है। चाहे मुगल हो, दिल्ली सल्तनत हो या मौर्य साम्राज्य ही क्यों न हो किसी भी शासक में प्रजा के सवालों को सुनने समझने की ताकत नहीं थी। सभी ने जनता के सवालों को कुचलने के ही काम किया है। सम्राट अशोक ने तो अपने सारे भाइयों को मरवा दिया और रामायण का भ्रातृ प्रेम स्वयं में आदर्श स्थापित किया हैं। जहां राम स्वयं भरत को राजपाट सौंप सीता के साथ वनवास जाना चाहते हैं वहीं भरत राजा बननेकी बजाय खुद की जान दे देने की वैट करते हैं यह है भ्रातृ प्रेम। कहीं से नहीं लगता कि वे चारो सौतेले भाई थे। रामायण का हर प्रसंग प्रासंगिक है। इसे पढ़ने समझने की जरूरत है।
कवि पंकज प्रियम
Thursday, April 23, 2020
820. राम सीता त्याग(हर प्रसंग प्रासंगिक-4)
सीता-राम का त्याग
पुरुष हथियार से केवल शरीर जीतता है
लेकिन स्त्री त्याग से मन को जीत लेती है।
कवि पंकज प्रियम
सीता वनवास को लेकर कई भ्रांतियां है। सभी ग्रन्थों में अलग-अलग तरह से इसकी व्याख्या की गई है। सीता के परित्याग पर लोग राम पर लाँछन लगाते रहे हैं। अब यह कहानी सही है या नहीं पता नहीं क्योंकि कहा जाता है बाल्मीकि रामायण में यह बाद क्षेपक जोड़ा गया। अब वास्तविक जो भी हो लेकिन रामानन्द सागर ने सभी ग्रंथो पर पूर्ण रिसर्च करने के बाद उत्तर रामायण में जो प्रसंग दिखाया उससे तो स्पस्ट है कि राम ने तो कभी सीता का परित्याग किया ही नहीं बल्कि सीता ने अयोध्यावासियों के लाँछन को खत्म करने के उद्दयेश्य से स्वयं अयोध्या और पति सहित पूरे परिवार के त्याग की भीष्म प्रतिज्ञा ले ली थी। यूँ तो राजा और रानी का जीवन खुद का होता नहीं लेकिन प्रजा में सीता को लेकर उठ रहे सवाल के बावजूद राम इतने व्यथित हो गए कि राजपाट छोड़कर सन्यास धारण करने तक का फैसला ले लेते हैं। सीता के त्याग के सवाल पर वह खुद वनवास जाने की सोच लेते हैं। राम के इस अंतर्द्वद्व को सीता जैसी पतिव्रता स्त्री ही समझ सकती थी। जब सीता को प्रजा की बात पता चली तो उसने खुद को लांछन मुक्त करने के लिए त्याग का अमोघ अस्त्र चलाया। रामायण का यह संवाद बेहद जानदार है कि पुरुष तो तीर तलवार से दुश्मन के शरीर को जीत सकता है लेकिन स्त्री त्याग और बलिदान के अस्त्र से दुश्मन का मन जीत लेती है। सीता सिर्फ एक पत्नी और साधारण नारी नहीं थी वह अयोध्या की महारानी थी, साक्षात देवी थी। सीता से अगाध प्रेम में जब राम के कदम अपने कर्तव्य से डिगने लगे तब सीता ने ही उन्हें राजधर्म का पाठ पढ़ाया और राजा के कर्तव्यों का भान कराया। राम को उनकी शपथ याद दिलाई जिसमें एक राजा के लिए प्रजा से बढ़कर कुछ नहीं होता, घर परिवार, पत्नी बच्चे यहां तक की खुद का भी जीवन नहीं होता। वह याद दिलाती है कि किस प्रकार राजा हरिश्चन्द्र ने सत्य और धर्म के लिए पत्नी, पुत्र और स्वयं को बेच दिया था। सीता ने वनवास के निर्णय स्वयं लिया ताकि उसपर लगा कलंक मिट सके, जो प्रजा आज लांछन लगा रही वही पश्चाताप कर क्षमा मांगकर सीता को महारानी स्वीकार करेगी। राम ने तो सीता को विरोध करने की भी सलाह दी लेकिन सीता का यह जवाब दिल जीतने वाला है कि स्त्री का प्रतिकार पुरुषों से अलग होता है। वह बिना तीर तलवार के ही दुश्मन को सिर्फ त्याग के हथियार से पराजित कर सकती है। अगर सीता वनवास नही लेती तो प्रजा की नज़र में वह कलंकित ही रहती। इस प्रसंग में राम का यह संवाद भी काफी प्रासंगिक है कि जनता बहुत निर्दयी होती है जो राजा से सिर्फ लेना चाहती है लेकिन जब राजा के लिए उसे कुछ देने की बारी आती है तो वह मुँह फेर लेती है। ठीक ऐसे ही जैसे कि हम मौलिक अधिकारों की बात तो ख़ूब करते हैं। सरकार को दिनरात कोसते रहते हैं लेकिन जब मौलिक कर्तव्यों की बात आती है तो चुप हो जाते हैं। देश ने क्या दिया इसपर ख़ूब चिल्लाते हैं लेकिन आपने देश को क्या दिया इस सवाल पर मौन साध लेते हैं। सोचिए उस राम के मन मे क्या बीती होगी जो सीता से अगाध प्रेम करता है। त्याग के ख्याल से ही पूरा राजपाट छोड़कर सन्यास धारण करने का निर्णय ले लेता है। उस सीता के मन मे क्या बीती होगी जो अभी 14 वर्ष का वनवास काट कर लौटी और तुरंत वनवास जाने का कठोर संकल्प लेना पड़ा। यह एक पति पत्नी के बीच का अगाध प्रेम ही था जो राम के ऊपर लगे पत्नीमोह के लाँछन को मिटाने के लिए खुद जंगल जाने को तैयार हो जाती है। अगर राम भी राजपाट छोडकर सीता के साथ वनवास को जाते तो यही जनता उन्हें ठेठ भाषा मे कहें तो मौगा कहकर खिल्ली उड़ाती और यही बात सीता ने भी राम को भी समझाया कि आप राजधर्म से विमुख न हों। राजपाट छोड़कर सन्यासी बन जाना बहुत आसान होता है लेकिन सर पर कांटो का ताज धारण कर जनता के समक्ष मुस्कुराते रहना बहुत कठिन होता है। यहां तो सबकुछ राम और सीता की आपस मे समझ और सहभागिता से वनवास के प्रसंग हुआ, इसमें राम की निंदा बिल्कुल अनुचित है। सोचिए राम के दिल पर क्या बीती होगी जब अपनी प्राणों से प्रिय सीता के त्याग के प्रण को स्वीकृति देनी पड़ी। यह दोनों का आपसी समन्वय था लेकिन सिद्धार्थ ने तो पत्नी और अबोध बच्चे को नींद में ही छोड़कर सन्यास धारण कर लिया सिर्फ ज्ञान प्राप्ति के लिए। जिसके बाद गौतम बुद्ध बने। कमोबेश यही कहानी महावीर की भी है दोनों आज भगवान की तरह पूज्य हैं। वाकई रामायण का हर प्रसंग हमेशा ही प्रासंगिक है और जीवन का सार्थक संदेश प्राप्त होता है।