Saturday, April 25, 2020

822. प्रकृति का संतुलन

कोरोना: प्रकृति खुद को संतुलित तो नहीं कर रही है?
©पंकज प्रियम
कवि पंकज प्रियम

धरती में ही स्वर्ग है उसे नर्क हम मनुष्यों ने बनाया। नीचे की दो तीन तस्वीरों को देखें तो साफ पता चलता है हमने ही स्वर्ग को नरक बना रखा था। पिछले तीन सप्ताह में जब लॉक डाउन की स्थिति में मनुष्य घरों में कैद है, गाड़ियों के पहिये थम गये है,फैक्ट्रियों ने कचरा उगलना बंद कर दिया है तो नदियां कितनी स्वच्छ और निर्मल हो गयी। जिस जंगल को काट कर एक्सप्रेस वे बनाई गई थी आज वीरान है तो हिरण और बारहसिंगा जैसे जानवर स्वच्छन्द होकर विचरन कर रहे हैं। प्रदूषण का स्तर अचानक से कम हो गया है। नासा की रिपोर्ट के मुताबिक ओजोन परत का छेद बड़ी तेजी से भरने लगा है। दिल्ली मुम्बई जैसे प्रदूषित शहरों की हवा स्वच्छ हो गयी है। जो अपने घर परिवार से दूर थे आज मजबूरी में ही सही एक साथ हैं। जो वर्षो तक बातचीत नहीं करते थे आज हर रोज फोन कर अपनों का  हालचाल लेने लगे हैं। लोग मौत के खौफ़ में संवेदनशील होते जा रहे हैं। स्वच्छ भारत मिशन के तहत अरबों रुपए खर्चकर के सरकार लोगों को स्वच्छता और हाथ धुलाई के लिए मजबूर नहीं कर सकी आज लोग डर के मारे खुद ही स्वच्छता अपनाने लगे हैं ,दिनभर हाथ धो रहे हैं। पहले हम सनातन धर्म में हाथ जोड़कर प्रणाम करते थे तो गंवार कहलाते थे आज पूरी दुनिया भरतीय प्रणाम पद्धति को अपना रही है। पहले हम हॉस्पिटल या बजार से लौटकर आते थे तो बाहर हाथ मुँह धोकर या स्नान करके ही घर मे प्रवेश करते थे उसे तथाकथित मॉडर्न लोगों ने पाखंड करार दिया आज मौत के भय से सब लोग वही कर रहे हैं। हमारे ऋषि मुनियों ने शाकाहार पर बल दिया तो हमें घासफूस वाला कहकर मजाक उड़ाया आज कोरोना मांसाहार से ही पैदा हुआ तो लोगो ने मांसाहार से तौबा कर लिया। पुरातन संस्कृति में जितने भी नियम बने हैं उसके पीछे विज्ञान छुपा है।         अपनी महत्वकांक्षा और स्वार्थ की पूर्ति में इतने अंधे हो गए कि कुदरत को अपना गुलाम बनाने की हर सम्भव कोशिश की। प्रकृति से लगातार छेड़छाड़ करते रहे, जंगल के जंगल उजाड़ने लगे। खेत, नदी, तालाब और झीलों को पाट कर कंक्रीट के जंगल उगाने लगे। वक्त से भी तेज भागने की रफ्तार और पेट को भरने में फैक्ट्रियों के उगलते धुएँ से वायुमंडल को प्रदूषित करते कब ओजोन लेयर को ध्वस्त कर दिया पता ही नहीं चला! मानवीय कचरों से कल-कल  बहती स्वच्छ निर्मल नदियां प्रदूषण से कराहने लगी, नीले रंग से बदरंग मटमैली काली होकर दुर्गंध देने लगी।  पतित पावनी गङ्गा भी हर साल मनुष्यो से दूर जाने की कोशिश करती रही लेकिन हम भी ढीठ उसके पीछे पीछे बढ़ते रहे उसे तबाह करते रहे। आज कोरोना नामक महामारी ने पूरे विश्व को तबाह कर डाला है। जनसंख्या के बढ़ते बोझ के बीच सिर्फ कोरोना से अबतक एक लाख से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है। क्या यह प्रकृति का ही संतुलन नियम तो नहीं है? जो कभी बाढ़, भूकंप, साइक्लोन तो अब कोरोना के जरिये खुद को संतुलित करने में लगी रहती है। यह संकेत भी है महाप्रलय का अगर अब भी नहीं चेते तो फिर इस धरती का भगवान ही मालिक है।

1 comment:

Amrita Tanmay said...

चिंतनीय विमर्श ।