Saturday, April 25, 2020

821. रामायण का हर प्रसंग प्रासंगिक है-5

रामायण का हर प्रसंग प्रासंगिक है-5

रामराज्य और अभिव्यक्ति की आज़ादी
@पंकज प्रियम

आज हम भले संविधान का हवाला देकर अभिव्यक्ति की आज़ादी का झण्डा बुलंद करते हैं लेकिन सही मायनों में अभिव्यक्ति की आज़ादी तो रामराज्य में थी। जहां एक साधारण धोबी को भी राजा के विरुद्ध बोलने की आज़ादी थी। जो भी व्यक्ति यह कहता है कि धोबी के कहने पर राम ने सीता को त्याग दिया उन्होंने न तो रामायण ढंग से पढ़ी है और न ही राम-सीता को समझा है। दोनों के बीच जितना अटूट अगाध प्रेम था उतना किसी मे नहीं। मेरे कल के आलेख में आपने पढ़ा ही होगा कि किन परिस्थितियों में सीता ने अयोध्या त्याग का कठिन प्रण लिया।
राम ने सीता को वनवास नहीं दिया बल्कि सीता ने खुद वनवास का संकल्प लिया। राम तो त्याग के पक्ष में थे ही नहीं। सीता ने यह कदम इसलिए उठाया क्योंकि पूरी अयोध्या में उसके चरित्र पर उंगली उठ रही थी तो त्याग का अमोघ अस्त्र चलाया सीता ने। सीता के प्रण के आगे राम और पिता जनक भी विवश हो गए। राम ने भी महल में वनवासियों सा ही जीवन जीया। जमीन पर सोते रहे। सारा राजसी वैभव त्यागकर चटाई पर सोना स्वीकार किया। राजा दशरथ की तीन रानियां थी लेकिन राम एक पत्नीव्रता थे। जनता के उठते सवालों का बावजूद सीता को त्यागने का निर्णय नहीं लिया और सीता को प्रतिकार करने की सलाह दी लेकिन सीता के संकल्प के आगे विवश हो गए। व्व चाहते तो जनता पर कोड़े बरसाकर उनका मुँह बन्द कर सकते थे जैसे कि बाद की सल्तनत में होता रहा और आज भी होता रहा है। आप आज फेसबुक पर सच भी लिख दें तो सीधे जेल हो जाती है तो यह कैसी आज़ादी है। कैसा फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन है? जनता के एक सवाल पर राम और सीता ने खुद को कष्ट दे दिया लेकिन जनता की अभिव्यक्ति का सम्मान किया। चाहते तो सजा दे सकते ठगे लेकिन तब शायद रामराज्य का उदाहरण आजतक नहीं दिया जाता। लोग राम को पत्नी मोह में डूबा पति और सीता को सदा कलंकित ही कहती रहती। सीता चाहती तो आम स्त्री की तरह मैं मायके चली जाऊंगी की तर्ज पर मायके जनक भी जा सकती थी ,कहीं भी जा सकती थी लेकिन उसने वनवास जाना पसंद किया। वह दृश्य देखिये जब राजा जनक आते हैं तो राम बिना किये अपराध को स्वीकारते हुए दण्ड की मांग करते हैं और जनक राम की विवशता समझते हुए राम को राजधर्म निभाने की सलाह देते हैं। आज का कोई व्यक्ति सीधे पचास तरह के केस कर देता फिर वह तो राजा थे। वह बताते हैं कि किस तरह सीता ने उन्हें पत्र लिखकर राम को सम्भालने का दायित्व सौंपा है।  सीता जंगल मे भी रहकर राम की ही चिंता करती रही।राम महल में रहकर भी सीता के गम में डूबे रहे। थे दोनों का अगाध प्रेम आम आदमी नहीं समझ सकता वही ओछी बात करता है कि राम ने सीता का त्याग किया। यह राम और सीता का ही त्याग था वही जनता फिर  सीता की पूजा करने लगे। उसवक्त प्रजा को सही मायनों में अभिव्यक्ति की आज़ादी थी जो अपने राजा और महारानी के ख़िलाफ़ भी खुलकर बोलने को स्वतंत्र थे। आज की तरह नहीं कि सवाल पूछने पर मुँह बन्द कर दिया जाता है। प्रजा के उठते सवालों का सम्मान करते हुए राम और सीता ने खुद को कितनी पीड़ा दे डाली यह कोई आम राजा या शासक नहीं कर सकता है। चाहे मुगल हो, दिल्ली सल्तनत हो या मौर्य साम्राज्य ही क्यों न हो किसी भी शासक में प्रजा के सवालों को सुनने समझने की ताकत नहीं थी। सभी ने जनता के सवालों को कुचलने के ही काम किया है। सम्राट अशोक ने तो अपने सारे भाइयों को मरवा दिया और रामायण का भ्रातृ प्रेम स्वयं में आदर्श स्थापित किया हैं। जहां राम स्वयं भरत को राजपाट सौंप सीता के साथ वनवास जाना चाहते हैं वहीं भरत राजा बननेकी बजाय खुद की जान दे देने की वैट करते हैं यह है भ्रातृ प्रेम। कहीं से नहीं लगता कि वे चारो सौतेले भाई थे। रामायण का हर प्रसंग प्रासंगिक है। इसे पढ़ने समझने की जरूरत है।
कवि पंकज प्रियम

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