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Friday, November 8, 2019

718. नज़र चाहिए

ग़ज़ल
212 212 212 212
इस नज़र को नज़र की नज़र चाहिए,
फूल बनकर खिलें वह असर चाहिए।

ख़्वाब को पँख हमने लगाया बहुत,
जो हकीकत लगे वह ख़बर चाहिए।

दिल भरा दर्द इतना मुहब्बत मुझे,
रोज़ शामों सुबह हर पहर चाहिए।

गर मुनासिब लगे छोड़ देना डगर,
पर सफ़र में मुझे हमसफ़र चाहिए।

तिश्नगी प्यार की आग बनके जली,
दिलजले के लिए इक ज़िगर चाहिए।

हर तरफ रेत ही रेत बिखरा "प्रियम",
छाँव मिलता रहे वह शज़र चाहिए।
©पंकज प्रियम

717. ख़्वाब पाले गये

ग़ज़ल

212 212 212
आग दिल में लगाते गये,
दर्द को फिर जगाते गये।

जख़्म देकर मुझे बेकदर,
घर किसी का सजाते गये।

प्यार में खुद ख़ता कर मुझे
बेवजह फिर सज़ा दे गये।

दर्द दिल में भरा इस कदर,
हर पहर गम बहाते गये।

ख़्वाब में रोज आये मगर,
घर कहाँ कब बुलाये गये।

प्यार की महफ़िलो में सदा
तोड़कर दिल उछाले गये।

प्यार में टूटकर क्यूँ "प्रियम",
रोज फिर ख़्वाब पाले गये।

©पंकज प्रियम

Wednesday, November 6, 2019

715. नज़र में रहा

212 212 212 212
रात दिन मैं तुम्हारी नज़र में रहा,
हर पहर मैं तुम्हारे शहर में रहा।

सोचता ये रहा क्या हुआ है मुझे,
हर घड़ी मैं तुम्हारे असर में रहा।

रात भर जब तुम्हारे ख़यालों जगा
ओस बनकर पड़ा हर सहर में रहा।

सोचता मैं तुझे हर घड़ी इस कदर,
बेख़बर यूँ  हुआ कि ख़बर में रहा।

दर्द इतना बहा अश्क़ बनके मगर,
दिल हमेशा पड़ा कुछ कसर में रहा।

हर्फ़ दर हर्फ़ लब जोड़ता हूँ मगर,
लफ्ज़ को छेड़कर भी बहर में रहा।

तीर आँखों चली चोट दिल में लगी,
पर "प्रियम" तो हमेशा जिगर में रहा।
©पंकज प्रियम

Sunday, November 3, 2019

713. सवाल

सवाल

हमने पूछा भी नहीं क्या हाल है?
देखा चेहरे पर प्रश्नों का जाल है।

सिलवटों से उलझती लगी जिंदगी
मानो हर पहर जी का जंजाल है।

हरवक्त किया वक्त से जो बन्दगी
वक्त के हाथों ही हुआ हलाल है।

बात-बात में भी दिखती गन्दगी
हर बात पे ही तो हुआ बवाल है।

सवालों के भँवर में फंसा है प्रियम
मेरे सवालों पर भी उठा सवाल है।
©पंकज प्रियम

712.लाचार लगता है

1222 1222 1222
जहाँ हर काम ही बेकार लगता है,
वहाँ हर आदमी लाचार लगता है।

किसी को क्या कहोगे तुम यहाँ बोलो,
यहाँ हर आदमी सरकार लगता है।

ख़बर किसकी पढूँ किसको सुनाऊँ मैं,
बिका हर पेज ही अखबार लगता है।

भला हथियार की कोई कहाँ जरुरत है
जहाँ हर लफ़्ज़ ही तलवार लगता है।

प्रियम अब और कितना खोलना दिल को,
यहाँ हर दिल बिका बाज़ार लगता है।
©पंकज प्रियम

Monday, October 28, 2019

705. तीरगी

2122 2122 212
प्यार को तुमसे जताना रह गया,
राज दिल का ही बताना रह गया।

रोज़ मिलते हैं मगर क्यूँ फासला,
क्या तुझे मुझसे मिलाना रह गया।

जल रहा दीपक मगर क्यूँ तीरगी,
दीप दिल का ही जलाना रह गया।

तिश्नगी दिल की सताये हर घड़ी,
जाम होठों का पिलाना रह गया।

हाल अपना क्या सुनाये अब "प्रियम"
ज़ख्म अश्क़ों से बहाना रह गया।
©पंकज प्रियम

Sunday, October 27, 2019

701. खूबसूरत दीवाली

दीवाली
मुबारक मुबारक मुबारक दीवाली,
बड़ी खूबसूरत मुहब्बत दीवाली।

अमावस घनेरी बहुत ही निराली,
लगे है बहुत खूबसूरत दीवाली।

मिटा के अँधेरा सजाती उजाला,
बड़ी खूबसूरत रिवायत दीवाली।

अहम को हराना सचाई जिताना,
खुशियाँ बढ़ाती तिज़ारत दीवाली।

"प्रियम"तो सदा ही जले बन के दीपक,
जमीं को बनाती है जन्नत दीवाली।
©पंकज प्रियम

Saturday, October 26, 2019

699. जख़्म दिल का

2122   2122
हाल किसको क्या बतायें,
ज़ख्म किसको हम दिखायें।

दर्द आँसू बन के निकले,
रोक उसको हम न पायें।

दिल ज़िगर जाने वफ़ा में,
कब तलक आँसू बहायें।

इश्क़ में मजबूर दिल यह
गम सदा खुद में छुपायें।

तोड़ कर वो दिल प्रियम का,
गैर से वह दिल लगायें।
©पंकज प्रियम

Friday, October 25, 2019

698. तुम

1222 1222 1222 1222
निग़ाहों के समंदर से,  मुझे इक जाम पिलाओ तुम,
नशे में जो कदम बहके, कदम से ताल मिलाओ तुम।

नज़र में डूबकर कर तेरी, ज़िगर बैचेन हो जाता,
बहुत बेताब हूँ जानम, जरा दिल से लगाओ तुम।

नयन के तीर से घायल, हुए कितने यहाँ पागल,
नशीले नैन से मुझपर, नहीं खंज़र चलाओ तुम।

कमर तेरी लचकती है, जवानी बोझ से दबाकर,
नुमाईश हुस्न का करके, नहीं सबको जलाओ तुम।

तुम्हारा हुस्न जो छलका, समंदर ज्वार भर जाता,
जरा साहिल से टकरा के, अधर को चूम जाओ तुम।

मुहब्बत आग का दरिया, उतर जाऊं अगर मैं तो,
बरस बरखा बिना बादल, मुहब्बत झूम आओ तुम।

जवां दिल की सुनो धड़कन, बुलाती है तुझे हरक्षण,
प्रियम की बात भी सुन लो, जरा अपनी सुनाओ तुम।
©पंकज प्रियम

Tuesday, October 15, 2019

687. इश्क़ अंज़ाम

इश्क़ अंज़ाम
ग़ज़ल
212 212 212 212
याद आएं अगर एक पैगाम दो,
नाम लेकर मेरा इश्क़ अंजाम दो।

प्यार में जब कभी तुम तड़पने लगो
हिचकियों को सदा तूम मेरा नाम दो।

छोड़ दो क्या जमाना कहेगा यहाँ,
दिल सुकूँ जो मिले वही जाम दो।

हम तुम्हें चाहते इस कदर हैं सनम,
चैन खोता हूँ हर दिन जरा शाम दो।

मौत जो गर लिपट जाएगी बाँह में,
तब प्रियम को तिरंगे में आराम दो।

©पंकज प्रियम

Saturday, September 28, 2019

670. बिन मौसम बरखा

बिन मौसम बरखा
बरसता ये आश्विन लगे जैसे सावन,
निकल भी न पाउँ,भरा यूँ है आँगन।

ये काला-कलूटा भयंकर सा बादल,
घटाटोप घनघोर गरजे घना-घन।

कड़कती चमकती डराती ये बिजली,
कहर ढा रही है ये बरखा की सौतन।

बहक क्यूँ रही हो अभी तू ऐ बरखा,
तुम्हारी रुखाई में सूखा वो सावन।

फ़सल मर गयी पर न आयी तभी तू,
शहर को डुबाने मचलती हो हरक्षण।

जरा अब रुको भी, करोगी प्रलय क्या,
बरसना समय से करूंगा मैं वंदन।
©पंकज प्रियम
28/09/2019