बिन मौसम बरखा
बरसता ये आश्विन लगे जैसे सावन,
निकल भी न पाउँ,भरा यूँ है आँगन।
ये काला-कलूटा भयंकर सा बादल,
घटाटोप घनघोर गरजे घना-घन।
कड़कती चमकती डराती ये बिजली,
कहर ढा रही है ये बरखा की सौतन।
बहक क्यूँ रही हो अभी तू ऐ बरखा,
तुम्हारी रुखाई में सूखा वो सावन।
फ़सल मर गयी पर न आयी तभी तू,
शहर को डुबाने मचलती हो हरक्षण।
जरा अब रुको भी, करोगी प्रलय क्या,
बरसना समय से करूंगा मैं वंदन।
©पंकज प्रियम
28/09/2019
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