Wednesday, November 6, 2019

715. नज़र में रहा

212 212 212 212
रात दिन मैं तुम्हारी नज़र में रहा,
हर पहर मैं तुम्हारे शहर में रहा।

सोचता ये रहा क्या हुआ है मुझे,
हर घड़ी मैं तुम्हारे असर में रहा।

रात भर जब तुम्हारे ख़यालों जगा
ओस बनकर पड़ा हर सहर में रहा।

सोचता मैं तुझे हर घड़ी इस कदर,
बेख़बर यूँ  हुआ कि ख़बर में रहा।

दर्द इतना बहा अश्क़ बनके मगर,
दिल हमेशा पड़ा कुछ कसर में रहा।

हर्फ़ दर हर्फ़ लब जोड़ता हूँ मगर,
लफ्ज़ को छेड़कर भी बहर में रहा।

तीर आँखों चली चोट दिल में लगी,
पर "प्रियम" तो हमेशा जिगर में रहा।
©पंकज प्रियम

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