Thursday, January 2, 2020

772. मन बंजारा

मन बंजारा

मन बंजारा तन बंजारा
जीवन ये बंजारा है।
चार दिनों की ज़िन्दगी,
कुछ क्षण का गुजारा है।

एक पल भी कहाँ ये मन
स्थिर ठहरता है।
ख़्वाब सजाये पँखों से
हरपल ये विचरता है।

तन भी कहाँ हरदम
साथ निभाता है।
बचपन से बुढापा तक
हाथ बढ़ाता है।

तिनका-तिनका ये
जीवन जोड़ता जाता है।
पलभर ही बुलावा में
तन-मन छोड़ के जाता है।

रात घनेरी हो काली
पर होता सबेरा है।
सुबह सुनहरी हो लाली
फिर होता अँधेरा है।

तन-मन-धन और जीवन
कहाँ होता बसेरा है?
हरपल हरक्षण ये जीवन
बंजारा-बंजारा बंजारा है।
©पंकज प्रियम
02.01.2020

3 comments:

Jyoti khare said...

वाह
बहुत सुंदर सृजन
सादर

Lokesh Nashine said...

बहुत उम्दा

Admin said...

अरे यार, क्या बात है! ये कविता एकदम दिल को छू गई। हम रोज़ भागते रहते हैं, कुछ पकड़ने की कोशिश में, लेकिन ये मन हर वक्त कुछ नया खोजता रहता है। और तन? वो भी धीरे-धीरे साथ छोड़ने लगता है... बचपन से बुढ़ापे तक सब कुछ बस एक सफ़र है।