Saturday, June 23, 2018

370.अंकुर

अंकुर
यूँ हीं नहींप्रस्फुटित होता है बीज अंकुर बनकर,
रहना पड़ता है धुप्प अंधेरों में जमीन के अंदर।
नवसृजन करता,जीवन का वही आधार बनता
होता है अंकुरित वो स्वयं का अस्तित्व खो कर।

प्रस्फुटित होने को हजारों बीज बिखरते हैं मगर
कुछ सड़ते,कुछ यूं ही सूख जाते हैं जमीन पर।
परिस्थितियों से जूझता,सिर्फ वही है निकलता
जीत पाता हैं जो जीवन का संघर्ष खुद लड़कर।

सृजन कथा है कहता आना फिर यहीं लौटकर
बीज प्रस्फुटन और अंकुरण,चलता जीवन भर
मुश्किलों में भी जीवन की है रोज आस गढ़ता,
विश्वास भरता है बीज,धरती का सीना चीरकर।
©पंकज प्रियम
23.6.2018

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