Tuesday, June 19, 2018

366.मज़ा

जो मज़ा आंखों से जाम छलकाने में है
वो क्या ख़ाक मज़ा किसी मैखाने में है।

वो खुशबू भी क्या महकेगी इस चमन में
जो मज़ा इश्क़ से बदन को महकाने में है

वो क्या ख़ाक बहलाएँगे इश्क़ में मुझको
मज़ा तो तेरी इन नजरों के बहलाने में है।

गमों के बाज़ार में कब तलक है जीना
मज़ा तो प्यार में हंसते मर जाने में है।
©पंकज प्रियम

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