Wednesday, January 16, 2019

506.सच कहाँ होते हैं ख़्वाब

पढ़ डाली मैंने
वो सारी क़िताब
जिसमें भी लिखा था
सच_होते_हैं_ख़्वाब।
देखने मैं भी निकल पड़ा
रास्ते में एक बालक मिला
कचरों की ढेर पर खड़ा
कचरों को चुन रहा था
अपनी किस्मत को बुन रहा था।
उसने भी देखा था स्कूल का ख़्वाब
लेकिन खरीद नहीं सका इक क़िताब।
आगे बढ़ा तो देखा सड़क किनारे
दो बुजर्ग बैठे भूखे तड़पते हुए
घर से बेघर ठंड में ठिठुरते हुए
उन्होंने भी कभी देखा था
बच्चों में बुढ़ापे की लाठी का ख़्वाब
लेकिन उम्र की आखिर दहलीज़ पर
अपने ही बच्चों से मिल गया जवाब।
आगे बढ़ा ही था कि कदम रुक गए
पैरों के नीचे यूँ ही बिखरे पड़े थे
आलू,टमाटर और प्याज़
वहीं बैठा था किसान देकर सर पे हाथ
जी तोड़ मेहनत के बाद
फ़सल बेचने आया था
कर्ज़ चुकाकर बचे पैसों से
बेटी की शादी का देखा था ख़्वाब।
लेकिन इतने भी न मिले दाम
किराया भी होता वसूल
सब्जियों की तरह विखर गए उसके भी ख़्वाब।
गाँधी जी ने भी देखा था
सोने की चिड़ियाँ का ख़्वाब
लेकिन आज देखो हर तरफ
मन्दिर मस्जिद के नाम हो रहा फ़साद
अब मेरी भी हिम्मत देने लगी जवाब
कितना और किस-किस का लूं हिसाब
कहाँ पूरे होते हैं आम लोगों के ख़्वाब।
हां सच होते हैं न!
पाँच वर्ष में नेताओं के ख़्वाब
महीनों में ही अफसरों के ख़्वाब
टैक्स चुराते पूंजीपतियों के ख़्वाब
बैंकों को लूटकर विदेश भागते
मोदी-माल्या और निरवों के ख़्वाब।
हम तो भोले-भाले हैं ज़नाब
हमारे कहाँ सच होंगे ख़्वाब!

©पंकज प्रियम

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