Friday, March 20, 2020

792. फाँसी

हो गयी फाँसी दुष्कर्मी को, मिला हृदय को अब है चैन।
धन्यवाद करती अब माता, थी वर्षों से जो बैचेन।

दुष्कर्मी कोई बच न पाये, नेता मंत्री या अफ़सर।
फाँसी सबको हो जाये, अफ़रोज़ नाबालिक या सेंगर।

हैवान सभी होते हैं वह जो नोचते बेटी की अस्मत,
हरपल खौफ़ बढ़ाये वो मौत ही उनकी हो किस्मत।

इंसाफ़ करे अब न्यायालय, बिन लगवाये वो चक्कर,
कोई बेटी मरे नहीं अब, इन खूनी पंजों में फँसकर।

सजा कठिन हो ऐसी कि, मौत की वो फरियाद करे,
बेटी को सब बेटी समझे, फिर कोई न अपराध करे।

आसिफा हो या निर्भया, किसी की माँ न रोये कभी,
अस्मत पे जो हाथ लगाए, दे दो फाँसी उसको अभी।

न्याय में देरी अन्याय सदा, जल्दी करो इंसाफ़ अभी
हैवान दरिन्दे दुष्कर्मी को, करो न उसको माफ़ कभी।
©पंकज प्रियम

1 comment:

Anonymous said...

आपकी कविता पढ़कर दिल में गुस्सा और दर्द दोनों उठे। सच कहूँ तो, हर पंक्ति में वो पीड़ा झलक रही है जो समाज सालों से झेल रहा है। दुष्कर्मियों को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी ही चाहिए, चाहे वो कितने भी बड़े पद पर क्यों न हों। न्याय में देरी सबसे बड़ा अन्याय है, और यही वजह है कि पीड़ित परिवार टूट जाते हैं।