Sunday, November 4, 2018

468.माटी


झुर्रियों से झांकती ये दर्द भरी मुस्कान
काँपते कमजोर हाथों से सजी दूकान।

इंतजार करती बूढ़ी आंखे,लेके सम्मान
माटी के बरतन भरे,सजा धजा सामान।

आया पर्व प्रकाश का,खुशी का त्यौहार
आओ आओ कहां गए हो सब खरीदार?

माटी के बर्तन से ही सजता मेरा घरबार
माटी माटी जिंदगी,माटी ही मेरा व्यापार।

प्लास्टिक बर्तन से अब करते सब प्यार
चायनीज लड़ियों से सजा खूब बाजार।

मेरी भी वर्तन खरीद,तो चले मेरा संसार
मेरे घर चूल्हा जले,मने दीवाली त्यौहार।
©पंकज प्रियम

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