हुँकार
जब बात वतन पर आती है,तो कुछ बोलना पड़ता है,
जब ग़द्दारों की सुनता बोली, तो मुँह खोलना पड़ता है।
देश को गर कोई गाली दे तो फिर चुप कैसे रह जाऊं?
पाषाण नहीं हृदय है मेरा, आख़िर ये कैसे सह जाऊं?
नहीं धृतराष्ट्र सी आँखे अंधी, ना भीष्म सा हूँ मजबूर,
महफ़िल में लूट जाए भारत, नहीं मुझे यह है मंजूर।
आस्तीन के छुपे सर्पों को हमने जो अबतक पाला है,
उन्हीं सर्पों ने अंदर-अंदर भर दिया जीवन में हाला है।
दुश्मन की औकात कहाँ जो हम पर कोई घात करे,
कदम-कदम गद्दार छुपे जो हरदम भीतरघात करे।
नहीं खौफ़ भारत को, किसी दुश्मन के हथियारों से,
देश को है बस खतरा केवल, घर में छुपे ग़द्दारों से।
है प्रियम की हुँकार यही, अब कुछ ऐसा काम करो,
शत्रु से पहले तुम जयचंदो का ही काम तमाम करो।
©पंकज प्रियम
16अगस्त19
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