Friday, April 10, 2020

812. बेबहर ग़ज़ल

ग़ज़ल बेबहर

पूछते हो फ़िज़ा में कौन ज़हर परोस रहा ,
और कोई नहीं तेरा कर्म कहर परोस रहा।

ख़ुदा बनने की चाहत, खुद नाख़ुदा हो गये
बाख़ुदा ही अब मौत का शहर परोस रहा।

ये जो फ़ितरत थी न वक्त को मात देने की,
वही वक्त हर रोज मौत का सहर परोस रहा।

जंगल, पहाड़ नदियों को पाट शहर उगाये
वही शहर सन्नाटों का हर पहर परोस रहा।

मसल ही डाला प्रियम, प्रकृति को जो सबने,
कुदरती कानून ही ग़ज़ल बे बहर परोस रहा।

©पंकज प्रियम

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